रविवार, 18 दिसंबर 2016

2001 से कुरुतीयो को मिटाने का संकल्प ले रहे सुरेरा के मेघवाल समाज के लोग

राजस्थान के सीकर  जिले के दाँतारामगढ़ तहसील के सुरेरा  गांव के मेघवाल समाज के मन्डुसिया परिवार और छेड़वाल परिवार के लोगों ने मृत्युभोज की परंपरा खत्म कर यह साबित कर दिया है कि अगर समाज ठान ले, तो कोई काम मुश्किल नहीं होता।
जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर सुरेरा  गांव में भी मृत्युभोज की परंपरा थी, मगर गांव के मेघवाल समाज के बुजर्गों और युवाओं ने आदर्श ग्राम की संकल्पना को देखा और उसी के आधार पर गांव में मृत्युभेाज न कराने का मन बनाया।
पिछले 16 साल से मृत्युभोज बंद है। इस प्रथा में खर्च होने वाला धन गांव की गौशाला को दान में दिया जाता है। तथा कुछ हिस्सा अपनी बहन बेटियों की पढाई पर खर्च करते है यहां के 100 फीसदी घरों में शौचालय है। इतना ही नहीं गांव में कई मुद्दों और विवादों को भी आपसी बातचीत से निपटा लिया जाता है।
सुरेरा ग्राम के मेघवाल समाज के युवा और बुजर्गों की एक ही सोच है की हम मेघवाल समाज को आगे बढ़ायेंगे सुरेरा के मेघवाल समाज के   निवासीयो ने बताया कि उनके यहां बदलाव की शुरुआत 2001में हुई। वे अपने समाज के साथियों के साथ मिलकर इस मिसाल को आगे बढ़ाया  मेरे मेघवाल समाज के बंधुओं मे नवरत्न मन्डुसिया आपके सामाने कुरुतीयो को मिटाने वाली पोस्ट शेयर कर रहा हूँ तथा  आदर्श ग्राम की संकल्पना को समझा और तय किया कि वे भी इसे अपने गांव में लागू करेंगे।
मेघवाल समाज के बुजर्गों ने  बताया की कि सूरेरा मे इसी तरह छोटे-छोटे दान से एक साधना कक्ष भी यहां बनाया गया है। और सुरेरा मे मेघवाल समाज के श्मशान घाट मे बड़ी पानी की टंकी का निर्माण भी करवाया गया तथा यहाँ बच्चों के लिए संस्कारशाला भी चलती है।
मेघवाल समाज की मीटिंग मे युवा साथी और बच्चे 



गांव की दुकानों पर तंबाकू से जुड़े उत्पाद न के बराबर ही बिकते हैं। गांव के पास चार-पांच साल पहले अवैध शराब की दुकान खुली थी, लेकिन लोगों ने उसे बंद करा दिया। लोग पर्यावरण को लेकर बहुत सजग हैं। परिवार में जन्मदिन और पूर्वजों की याद में गांव का हर व्यक्ति एक पौधा लगाता है। इससे गांव काफी हरा-भरा हो गया। और मन्डुसिया और छेड़वाल  परिवार सामाजिक नव-क्रांति का कार्य कर रहा है I
और यहाँ इस म्रत्यु भोज के अलावा बाल विवाह चुचूक प्रथा आदि बंद है ॥

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

भगवाना राम कादीया का नाम कर्षिमंडी अध्यक्षों मे चर्चा मे

नागौर कर्षि मंडी अध्यको मे भगवाना राम कादीया का नाम चर्चा मे आ रहा है ॥

राजस्थान मे दलित मशीहा के नाम से मशहूर भगवाना राम कादीया का नाम इस बार कर्षि मंडी अध्यक्षो मे फ़िर से चर्चा मे आ गया है ॥
दोस्तो भगवाना राम कादीया सामान्य जीवन व्यापन करने वाले एक साधारण व्यक्ति है ॥ इनको नागौर जिले की बात की जाये तो सभी लोग इनको व्यक्तिगत रुप से जानते है ॥ इसी कारण कादीया जी का नाम कर्षि मंडी अध्यक्ष के रुप मे उभरा है ॥ कादीया को जिले मे कई प्रकार की जिम्मदारिया दे रखी है ॥ और
कर्षि मंडी अध्यक्ष का चुनाव वैसे तो कई जिलों में पद एवं गरिमा का रुप ले चुका है लेकिन इस जिले में जिला कर्षि मंडीअध्यक्ष का पद हथियाने से ज्यादा नागौर  में  कई  पार्टीयो का प्रयास एक दूसरे  प्रत्याशी कादीया से दूर रखने की कवायद में लगी है। क्यों की इनके सामने जीत पाना मुश्किल है ॥  इसके लिए पार्टीनेता, कार्यकर्ता और रणनीतिकार गोटे बिछाने में जुट गए हैं। की भगवाना राम कादीया को जिताकर कर्षि मंडी अध्यक्ष बनाये और भगवाना राम कादीया को जिताने के लिये इनका ग्रूप रात दिन मेहनत कर रहे है ॥  बागी तेवर अपनाये नेता भी भगवाना राम कादीया  की टिकट पर सहमत है इस शर्त पर लेने को तैयार हैं की उन्हें जिला कर्षि मंडी के चुनाव में पार्टी प्रत्याशी बनाया जाय।चर्चा में यह भी चल रहा है कि भगवाना राम कादीया को ही चुनावी मेदान मे उतारा जाये   तथा जिला नागौर के चुनाव में मुख्य मुकाबला मुख्य रुप से भगवाना राम कादीया का ही माना जा रहा है ॥ और इनके नाम से कस्बे मे खुशियों से संयोजित हो रहे है ॥

नवरत्न मंदुसिया की कलम से  ✅✅✅www.mandusiya.blogspot.com

सोमवार, 12 सितंबर 2016

अपने अधिकार

 IPC में धाराओ का मतलब
दोस्तो आजाद भारत मे सभी लोग आजादी चाहते है ॥ और भारत रत्न डॉक्टर भीव राव अम्बेडकर पर हमे गर्व करना चाहिए जिसने आजाद हिन्दुस्थान मे सभी लोगो को जीना सिखाया और अपने अधिकारों की महत्वकांक्षा सिखाई  आइये विस्तार से जाने अपने अधिकार दोस्तो मे अपने ब्लॉग www.mandusiya.blogspot.com पर अपने अधिकारों की अपडेट देता रहूंगा
धारा 307 = हत्या की कोशिश धारा 302 =हत्या का दंड धारा 376 = बलात्कार धारा 395 = डकैती धारा 377= अप्राकृतिक कृत्य धारा 396= डकैती के दौरान हत्याधारा 120= षडयंत्र रचना धारा 365= अपहरण धारा 201= सबूत मिटाना धारा 34= सामान आशय धारा 412= छीनाझपटी धारा 378= चोरी धारा 141=विधिविरुद्ध जमाव धारा 191= मिथ्यासाक्ष्य देना धारा 300= हत्या करना धारा 309= आत्महत्या की कोशिश धारा 310= ठगी करना धारा 312= गर्भपात करना धारा 351= हमला करना धारा 354= स्त्री लज्जाभंग धारा 362= अपहरण धारा 415= छल करना धारा 445= गृहभेदंन धारा 494= पति/पत्नी के जीवनकाल में पुनःविवाह0 धारा 499= मानहानि धारा 511= आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों को करने के प्रयत्न के लिए दंड।
 हमारेे देश में कानूनन कुछ ऐसी हकीक़तें है, जिसकी जानकारी हमारे पास नहीं होने के कारण  हम अपने अधिकार से मेहरूम रह जाते है।

तो चलिए ऐसे ही कुछ  *5 रोचक फैक्ट्स* की जानकारी आपको देते है, जो जीवन में कभी भी उपयोगी हो सकती है.
 *1.  शाम के वक्त महिलाओं की गिरफ्तारी नहीं हो सकती*-
कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर, सेक्शन 46 के तहत शाम 6 बजे के बाद और सुबह 6 के पहले भारतीय पुलिस किसी भी महिला को गिरफ्तार नहीं कर सकती, फिर चाहे गुनाह कितना भी संगीन क्यों ना हो. अगर पुलिस ऐसा करते हुए पाई जाती है तो गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ शिकायत (मामला) दर्ज की जा सकती है. इससे उस पुलिस अधिकारी की नौकरी खतरे में आ सकती है.
2. सिलेंडर फटने से जान-माल के नुकसान पर 40 लाख रूपये तक का बीमा कवर क्लेम कर सकते है*-
पब्लिक लायबिलिटी पॉलिसी के तहत अगर किसी कारण आपके घर में सिलेंडर फट जाता है और आपको जान-माल का नुकसान झेलना पड़ता है तो आप तुरंत गैस कंपनी से बीमा कवर क्लेम कर सकते है. आपको बता दे कि गैस कंपनी से 40 लाख रूपये तक का बीमा क्लेम कराया जा सकता है. अगर कंपनी आपका क्लेम देने से मना करती है या टालती है तो इसकी शिकायत की जा सकती है. दोषी पाये जाने पर गैस कंपनी का लायसेंस रद्द हो सकता है.
3. कोई भी हॉटेल चाहे वो 5 स्टार ही क्यों ना हो…
आप फ्री में पानी पी सकते है और वाश रूम इस्तमाल कर सकते है*-
इंडियन सीरीज एक्ट, 1887 के अनुसार आप देश के किसी भी हॉटेल में जाकर पानी मांगकर पी सकते है और उस हॉटल का वाश रूम भी इस्तमाल कर सकते है. हॉटेल छोटा हो या 5 स्टार, वो आपको रोक नही सकते. अगर हॉटेल का मालिक या कोई कर्मचारी आपको पानी पिलाने से या वाश रूम इस्तमाल करने से रोकता है तो आप उन पर कारवाई  कर सकते है. आपकी शिकायत से उस हॉटेल का लायसेंस रद्द हो सकता है.
4. गर्भवती महिलाओं को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता*-
मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961 के मुताबिक़ गर्भवती महिलाओं को अचानक नौकरी से नहीं निकाला जा सकता. मालिक को पहले तीन महीने की नोटिस देनी होगी और प्रेगनेंसी के दौरान लगने वाले खर्चे का कुछ हिस्सा देना होगा. अगर वो ऐसा नहीं करता है तो  उसके खिलाफ सरकारी रोज़गार संघटना में शिकायत कराई जा सकती है. इस शिकायत से कंपनी बंद हो सकती है या कंपनी को जुर्माना भरना पड़ सकता है.
5. पुलिस अफसर आपकी शिकायत लिखने से मना नहीं कर सकता*-
आईपीसी के सेक्शन 166ए के अनुसार कोई भी पुलिस अधिकारी आपकी कोई भी शिकायत दर्ज करने से इंकार नही कर सकता. अगर वो ऐसा करता है तो उसके खिलाफ वरिष्ठ पुलिस दफ्तर में शिकायत दर्ज कराई जा सकती है. अगर वो पुलिस अफसर दोषी पाया जाता है तो उसे कम से कम 6 महीने से लेकर 1  साल तक की जेल हो सकती है या फिर उसे अपनी नौकरी गवानी पड़ सकती है.
इन रोचक फैक्ट्स को हमने आपके लिए ढूंढ निकाला है.
ये वो रोचक फैक्ट्स है, जो हमारे देश के कानून के अंतर्गत आते तो है पर हम इनसे अंजान है. हमारी कोशिश होगी कि हम आगे भी ऐसी बहोत सी रोचक बाते आपके समक्ष रखे, जो आपके जीवन में उपयोगी हो।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

वंशावली बाबा मेघवंशी रामदेव जी महाराज और सायर मेघवाल


बाबा रामदेव जी महाराज  मेघवाल है और इन तथ्यों से साबित होता है ॥ बाबा रामदेव जी महाराज  सायर मेघवाल  के ही पुत्र थे ॥ और बाबा रामदेव जी महाराज और सायर जी मेघवाल की वॅशावली जो निम्न है ॥

जाँभा (जयपाल) से --चन्दहल
चन्दहल जी से = बिगहङ जी
बिगहङ जी से = भोजराज जी
भोजराज जी के दौ पुत्रो का नाम
(1) सायर जी (2) अङसी जी
--------------------------
सायर जी के पुत्र रामदेव जी थे
(ठाकुर अजमाल के आदेशानुसार सायर जी ने अपनै पुत्र रामदेव
को बिरम के पालणे मे सुलाया था - जिन्हे लोग "अजमल घर
अवतारी" के रुप मे जानते है )
------------------------
अङसी जी के दौ सन्तान थी ।
(1) पुत्री "डालीबाई"
(2) पुत्र "मुन्जा जी "
नोट( डाली ओर मुँजा जी के माता पिता का देहान्त हो जाने के
कारण - डाली ओर मुँजा जी को सायर जी ने "पुत्र 'पुत्री के रुप
मे स्वीकार कर गोद लिया था - ओर सायर जी ने
ही उनका पालन पोसन किया था )-
--------------------------
डालीबाई ने शायर जी के सानिध्य मे ही भक्ति साधना की थी ।
ओर रामदेव जी से पुर्व समाधि ले ली थी ।
जिसकी समाधि पर भाई मुँजाजी के परिवार वॅशज पीढीदर
पीढी सेवा करते आयै है ..जिनके टिकायत परिवार
की वॅशावली निम्नानुसार है
-------------------------
सायर जी के बाद
मुन्जा जी से मोडा जी
मोडा जी से। डुँगर जी
डुँगर जी से। बीजल जी
बीजल जी से माला जी
माला जी से खीमा जी
खीमा जी से धन्ना जी
धन्ना जी से नॅगा जी
नॅगा जी से माना जी
माना जी से नाथा जी
नाथा जी से केशरा जी
केशरा जी से भूरा जी
भुरा जी से भीखा जी
भीखा जी से हरजी
हरजी से मुकना जी
मुकना जी से पुनम जी
पुनम जी से उत्तमचन्द जी
वर्तमान मे उत्तमचन्द जी का परिवार टिकायत है
स्वामी जी ने स्पष्ट कहा था
कि - बाबा रामदेव मेघवाल थे ।
इसिलिये -
(1) "बाबे रा रिखिया" केवल मेघवाल है ।- तॅवरो को क्यो नही ?
(2) बाबा का जम्मा जागरण आज भी केवल मेघवालो से
ही जगाया जाता है - ओर उन्ही को जम्मे मे प्रथम भोजन
कराया जाता है जिसे "रिखिया जीमावणा" कहा जाता है ।
तॅवरो को क्यो नही ?
(3) मारवाङ मे प्राचीन ओखाणे प्रचलित है कि -"रामदेव जी नै
मिलिया सो मेघ ही मेघ (मेघो रा देव रामदेव)
क्यो कहा गया ?
तॅवरो के विषय मे ऐसै ओखाणे क्यो नही कहै गये ?
(5) बिना माता पिता के कोई पालणे मे कैसे प्रकट हो सकता है ?
-बाबा को जिस कृष्ण व राम का अवतार बताकर "अजमल घर
अवतारी" बताया जाता है - वो राम ओर कृष्ण भी जन्म लेकर
आये थे - प्रकट नही हो पाये - तो रामदेव जी कैसे प्रकट
हो गये ?
(6) जो पालणा रामदेवरा मे लोगो को बताकर कहा जाता है
कि इसमे रामदेव जी प्रकट हुऐ थे - उस पालणे की वैज्ञानिक
तकनिक (कार्बन विधि) .से जाच करवानी चाहिये । कि वह 600
साल पुराना है या नही !
जिस पर विरोधिगण चुप थे ।
(7) अगर रामदेव जी तुवर राजपुत थे तो तुवरो की बही मे रामदेव
जी का नाम क्यो नही ? - इस पर तुवरो ने एक बही पेश की कोर्ट
मे - मगर कोर्ट ने वह बही पुरानी ओर प्रमाणिक नही मानी -
क्यो कि वह 600 साल पुरानी नही थी ।
(8) पुँगलगढ के पङियार रामदेव जी से नफरत क्यो करते थे ?
(10) बाबा रामदेव के समकालीन किसी भी चारण भाट कवि ने
उनकी महिमा वर्णन क्यो नही की ?
(11) रामदेव जी पर लिखै गये सभी इतिहास मे उनकी अवतार
तिथि ओर स्थान आदी समुचे इतिहास मे इतना मतभेद क्यो ?
(12) रामदेव जी की तुरनुमा समाधि पर उर्दू मे आयत लिखी हुई
है - ओर उनकी समाधि पर पहले दरगाह थी - जिस पर विक्म
सवत 14वी शताब्दी से 19वी शताब्दी तक किसी राव राजा ने
कोई मन्दिर निर्माण क्यो नही करवाया ?
(13) बाबा रामदेव ने मात्र 33 वर्ष की अल्पायु मे
ही समाधि क्यो ली ?- ओर समाधि को हरबुजी को परचा बताकर
क्यो तोङा गया ?
(14) बाबा की समाधि के आसपास कंई तुरनुमा (कब्र)
समाधिया पुजवाई जा रही है - वो समाधिया किसकी है - अगर वह
तुवर राजपूतो की समाधिया (शमसाण) है तो फिर वै
सभी मुसलमानों के कब्रिस्तान की तरह क्यो है ?
(15) विक्रम सॅवत 14वी से करीब 17वी शताब्दी तक 300
साल के अन्तराल मे कोई भी उची जाति वर्ण का स्वर्ण भक्त
कवि की अवतारवादी कथा वाणी वारता क्यो नही ?
ऐसै कॅई सैकङो विचारणिय
प्रशनो की झङी लगा दी थी स्वामी रामप्रकाशाचार्य
जी महाराज ने - जिनके उत्तर विपक्षीगण नही दे पाये ।
तब कोर्ट ने तुवरो को नोटीस पेश किया कि इन सवालो का जवाब
दे --
तब विरोधि गणो ने अपना केस वापस ले लिया - क्यो कि उन्है
पता था , कि अगर हमने पुख्ता प्रमाण सहित जवाब पेस
नही किये तो - कोर्ट का फैसला मेघवालो के पक्ष मे होगा ।
तब स्वामी जी की लिखी पुस्तको को मेले मे जबरन बिक्री से
रोका गया - तब स्वामी जी ने अपनी तरफ से कोर्ट मे अपील
की थी - कि विरोधिगण हमारै सवालो का जवाब दे -
अन्यथा हमारी पुस्तकों को बिकने से ना रोका जाये ।
तब विरोधिगण स्वामी जी को कंई गुमनाम धमकिया पेश करने लगै
-
तभी देवस्थान विभाग ने बाबा रामदेव जी महाराज को मेघवंशी बताया

मेघवाल समाज की बेटी निर्मला मेघवाल बनी बेस्ट राष्ट्रीय शिक्षक


राजकीय जमुना देवी पांडेय बालिका सीसै स्कूल पाटन नीमकाथाना  की प्रधानाचार्य निर्मला देवी मेघवाल को शिक्षक दिवस पर दिल्ली में राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार दिया जाएगा। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी निर्मला देवी को राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान के रूप में प्रशस्ति पत्र, 50 हजार नकद सिल्वर मैडल देंगे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 3 से 5 सितंबर तक दिल्ली में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए निर्मला देवी को आमंत्रित किया गया है। उनको यह पुरस्कार श्रेष्ठ बोर्ड परीक्षा परिणाम, गाइडिंग के क्षेत्र में राज्यस्तरीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेष योगदान, पुरस्कारों समाजसेवा के लिए दिया जा रहा है श्रीमती निर्मला जी मेघवाल नीमकाथाना
अनुसुचित जाति राजस्थान की पहली महिला है जिनका चयन
नैशनल टीचर आवार्ड
के लिए हुआ है
जो हमारे समाज और राजस्थान के अनुसुचित जाति/जनजाति वर्ग के लिए बहुत खुशी की बात है  निर्मला मेघवाल
राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान लेकर लौटने पर स्वागत  किया गया। और  टैक्सी स्टैंड से उन्हें जुलूस के रूप में लाया गया। व्यापारिक सामाजिक संगठनों से जुड़े लोगों ने उनका जगह-जगह स्वागत किया। गाड़ी में निर्मला देवी के साथ उनके पति प्रधानाचार्य बनवारीलाल वर्मा परिवार के लोग थे। निर्मला देवी को शिक्षक दिवस पर दिल्ली में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने शिक्षक सम्मान से नवाजा। उनका डॉ. अंबेडकर मानव कल्याण संस्थान, डॉ. अंबेडकर रक्तदान सेवा समिति, हनुमान सेवा समिति के पदाधिकारियों सदस्यों के अलावा कई संगठनों ने स्वागत किया। जुलूस स्वागत कार्यक्रम में पूर्व विधायक फूलचंद गुर्जर, पूर्व कॉलेज शिक्षा आयुक्त प्रो. केआर सिलोलिया, कांग्रेस नेता सुरेश मोदी, भाजपा नेता प्रमोदसिंह बाजौर, सतीश शर्मा, जेपी लोढ़ा, बीडी वर्मा, संस्थान अध्यक्ष शंकरलाल बलाई, एनएसयूआई प्रदेश महासचिव रोशन मुंडोतिया, चांदमल मेघवंशी, पूर्व अभिभाषक संघ अध्यक्ष देवेंद्र चौधरी आदि थे तथा

इस अवसर पर सूरेरा ग्राम मे भी निर्मला मेघवाल को नेशनल अवार्ड मिलने पर गाजे बाजे के साथ खुशियाँ मनाई और इस अवसर पर नागौर के जिला परिषद सदस्य पूरन मल मेघवाल समाज सेवी सुरेश मेघवाल घरवाणी और अगला कदम एन. जी. ओ के संस्थापक. नाथू लाल जी वर्मा देवली और विधुतकार भँवर लाल मन्डुसिया सुरेरा और दांतारामगढ़ के युवा नेता जितेंद्र राम चंद्र मेघवाल आदि ने टिव्टर के माध्यम से शुभकामनाएँ दी ॥

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

गुजरात मे पैदा हुए समाज के वीर मेधमाया ने अछुतो के अधिकारो के लिए अपने जान का बलिदान दिया था,


वीर मेघमाया : एक विर महापुरुष*
एक विर महापुरुष के बारे में बताना चाहता हूँ। महापुरुष का नाम है- विर मेघमाया। भारत के मूलनिवासी लोगों को यह महापुरुष के बारे में जानकारी नही होगी, क्योंकि इसका सही इतिहास छिपाया गया है। हमारे महापुरुष का इतिहास ज्यादातर लोग जानते ही नहीं है और हमारे लोग जानने की कोशिश भी नही करते है। मैं जितना जानता हूँ, इतना जरूर बता रहा हूँ। विर मेघमाया गुजरात राज्य के धोलका तहेसील के रनोडा गाँव में 12 मी सदी में जन्मा हुआ था, तब गुजरात का पाटनगर पाटन था।12 मी सदी में पाटन राज्य का राजा सिध्धराज सोलंकी था। उस समय पर अछूतों उपर भयानक, दर्दनाक, अत्याचार राजा सिध्धराज सोलंकी की तरह से किया जा रहा था। तब विर मेघमाया ने ठान लिया था कि, अछूतों पर हो रही भयंकर गुलामी में से आझाद करके रहूंगा, चाहे मेरा प्राण क्यूँ चला न जाय। मेघमाया ने उनका मिशन चालू किया। एक-एक अछूत का समजाने का, जागृत करने का अभियान चालू किया। उस समय अछूतों को आगे कूलडी और पीछे झाडू रखना पडता था और सिर्फ रात के समय में ही बहार निकलना था। दिन में अगर अछूत की पडछाइ भी पड गयी तो मृत्युदंड की सजा की जाती थी। ऐसे समय में विर मेघमाया ने अछूतों के साथ हो रहे भयंकर अन्याय के खिलाफ अछूतों को जागृत करता रहा। यह बात राजा के ब्राह्मण सेनापति के कान में आई। ब्राह्मण सेनापति ने विर मेघमाया का पूरा इतिहास जान लिया और राजा सिध्धराज सोलंकी को अछूत विर मेघमाया के बारे में पूरा माहितगार किया। तब राजा ने कहा क्या किया जाय अछूत को, ब्राह्मण सेनापति बडा होशियार था। उस समय पाटन राज्य में लगातार तिन साल से बारिश नही हो रही थी। पूरा पाटन पानी सेे तरस रहा था। तब ब्राह्मण सेनापति ने विर मेघमाया को जान से मारने का प्लान बनाया और राजा सिध्धराज को बताया कि, हमारी प्रजा पानी की तरस से मर रही हैं। हम विर मेघमाया को पाटन की वाव (एक तरह का कूआ) मे बलि चढा दे और प्रजा को बताया जाय कि वाव में बतीस लक्षणों वाला पुरुष का भोग किया जाय तो जरूर चमत्कार से पानी प्रगट होगा। तब प्लान बना के राजा ने ऐलान कर दिया कि बत्रीस लक्षणों का पुरूष की तलाश की जाय, तब ब्राह्मण सेनापति ने विर मेघमाया का नाम बताया और सिध्धराज ने स्वीकार भी कर लिया। यह पूरी जानकारी विर मेघमाया को बताइ गइ। विर मेघमाया पूरा प्लान समज गया था। पर वो भी राजा के हूकम के आगे लाचार थे। विर मेघमाया ने भी नक्की कर लिया कि, मरते-मरते मेरी समाज का भी भला करता जाऊं। विर मेघमाया की बलि का दिन नक्की हो गया। विर मेघमाया को पानी की वाव उतारा गया, तब विर मेघमाया ने राजा को मरने से पहले कूछ वचन मागा गया। एक मेरी समाज के लोगों को आगे कूलडी और पिछे झाडू को नाबूद किया जाय। दूसरा सवणॅ लोग मकान बनाते तब मकान के मोभ अछूत के द्वारा रखा जाए। राजा ने सारी बात मान्य रखी और सेनापति को हूकम दिया। सेनापति ने धारदार तलवार उठाइ और जोर से एक ही झटके में विर मेघमाया का धड गरदन से अलग कर दिया। मेरे प्यारे दोस्तों जरा सोचिए विर मेघमाया का प्राण कैसे गया होगा। गुजरात राज्य में पहला अछूत विर मेघमाया शहीद हो गया। फिर भी हमारे पढे लिखे लोगों को विर मेघमाया की शहादत याद नहीं आ रही है और जो लोग अछूतों को कायम अछूत ही रहे ऐसे प्रयास करने में जो लोग मर गये उनको अपना शहीद मानकर शहादत को याद करके बडे जोर से शोक मनाते हैं।
दोस्तो, मैं बडे दुखसे कहता हूँ कि अगर हमारी समाज में विर मेघमाया, ज्योतिबा फूले, डाॅ.बाबासाहब आंबेडकर जैसे महापुरुषों की देन की ही वजह से ही हम लोग सूख चेन से जि रहे हैं। अगर हमारी समाज मे महापुरुष पैदा नही होते तो न जाने कैसा हाल होता समाज का।

सोमवार, 11 जुलाई 2016

21वर्षीय जिला प्रमुख अर्पणा रोलन (मेघवाल ) का जीवन परिचय और कॉलेज लाइफ और चुनौतियां

मेघवाल समाज की बेटियाँ दिन प्रतिदिन हमारे समाज का नाम रोशन करने के लिये काफी प्रयासरत है और पूरे प्रांत मे सबसे कम उम्र की फायन आर्ट्स की छात्रा अब सीकर जिले की जिला प्रमुख है ही  और आगे जाकर जिला प्रमुख से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी बनेगी  जिले ने महज 21 वर्ष की अपर्णा
रोलन पर भरोसा जताया है। रोलन को जिला प्रमुख चुना गया है।
भाजपा की रोलन को उम्र के लिहाज से प्रदेश
की सबसे कम उम्र का जिला प्रमुख बनने का गौरव
प्राप्त हुआ है।
फिलहाल राजस्थान विश्वविद्यालय में मास्टर ऑफ फाइन आर्ट
की पढ़ाई कर रहीं अपर्णा ने कहा कि
उन्होंने कभी सोचा भी था कि
छोटी उम्र में बड़ी जिम्मेदारी
मिलेगी।
जिला प्रमुख पद के लिए शनिवार को हुए मतदान में रोलन को 23
तथा कांग्रेस के भंवरलाल वर्मा को 11 मत मिले हैं। माकपा के चार
सदस्यों व एक निर्दलीय ने मतदान में भाग
नहीं लिया।
मैं जन्म से ही भाग्यशाली: अपर्णा
सीकर। राजस्थान विवि के मास्टर ऑफ फाइन ऑर्ट में
पेंटिंग को कॅरियर बनाने की इच्छा रखने वाली
छात्रा अपर्णा ने एक माह पहले तक यह नहीं सोचा
था कि उसे राजनीति के पायदान पर इतने ऊंचे मुकाम पर
पहुंचने का मौका मिलेगा।
जिले की पहली नागरिक का अधिकार लेने
वाली जिला प्रमुख अपर्णा रोलण ने पत्रिका से विशेष
बातचीत में बताया कि वह जन्म से ही
भाग्यशाली रही है। गांव में
बेटी पैदा होने पर प्राय: कुआं पूजन व अन्य
कार्यक्रम नहीं किया जाता है, लेकिन परिवार के लोगों ने
बेटे-बेटी में भेद नहीं कर बड़ा आयोजन
किया।
पेंटिंग के साथ फोटोग्राफी में कॅरियर बनाने
की चाहत रखने वाली अपर्णा ने बताया कि
वर्ष 2012 में राजस्थान स्तर पर वाइल्ड लाइफ पर हुई
फोटोग्राफी प्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला
था। अपर्णा ने बातचीत में बताया कि
राजनीति में आने की कभी
नहीं सोची थी।
जिला परिषद के चुनाव की टिकट मिलने पर
भी महज सदस्य बनने तक की बात
थी, बाद में अचानक एेसा हुआ कि जिला प्रमुख के लिए
नाम चल पड़ा और मुकाम हासिल हो गया। जिला प्रमुख को लेकर
अपनी आगे की कोई बड़ी
कार्ययोजना की वे बात नहीं
करती है।
बल्कि एक गंभीर छात्रा की तरह पढ़ाई को
पूरा करने को प्राथमिकता देती हैं। हालांकि पढ़ाई के साथ
वे जिला प्रमुख की जिम्मेदारी निभाकर लोगों
के सामने बड़ा उदाहरण पेश करने की चाहत
रखती हैं। अपर्णा का मानना है कि युवाओं को मौका
मिलेगा तभी देश में बदलाव आएगा।
बचपन बीता गांव में
अपर्णा देश में भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी समस्या
मानती हैं। उनका कहना है कि भ्रष्टाचार से लडऩे के
लिए हर एक को आगे आना होगा। उनका कहना है कि बचपन में
गांव की गलियों में जो देखा वह अब शहर
की चकाचौंध में मिटता जा रहा है। एेसे में हर व्यक्ति
को गांव के जीवन का अनुभव जरूर करना चाहिए।
जिला प्रमुख की राह में यह चुनौतियां
सीकर। गांवों की सरकार की
प्रमुख के सामने चुनौतियों की कतार है। गांवों से लेकर
दिल्ली तक भाजपा की कड़ी से
कड़ी जुडऩे के कारण लोगों को उम्मीद
भी बहुत भी है। जिला प्रमुख
की पहली चुनौती दो
महीने बाद गर्मियों के मौसम में गांव-ढाणियों के लोगों तक
पूरी पेयजल सप्लाई पहुंचाने की
रहेगी।
इसके अलावा सफाई, रोशनी, वित्तीय
प्रबंधन सहित अन्य समस्याएं भी कम
नहीं है। गांवों की सरकार की
चुनौतियों से रूबरू कराती पत्रिका की खास
रिपोर्ट।
पेयजल
जिले में पेयजल बड़ी समस्या है। हर वर्ष गर्मियों के
सीजन में 300 से अधिक टैंकर सप्लाई कराने पड़ते
है। कन्टेजेन्सी प्लान भी तैयार किया जाता
है। लेकिन इसकी हकीकत
किसी से छिपी हुई नहीं है।
अब भाजपा की जिला प्रमुख की
पहली चुनौती पेयजल ही है।
अभी से तैयारी शुरू करने पर
ही दो माह बाद बढऩे वाली पेयजल
की खपत को पूरा किया जा सकता है।
सफाई व रोशनी
ग्राम पंचायतों के पास सफाई कार्य के लिए ज्यादा बजट
नहीं है। एक्सपर्ट का कहना है कि ग्राम पंचायत
निजी आय बढ़ाकर सफाई व्यवस्था में सुधार ला
सकती है। इसके अलावा पिछले कार्यकाल में गलत
तरीके से लगी सौलर लाइटों पर सवाल खड़े
हुए थे। एेसे में आमराय से रोशनी के इंतजाम करना
चुनौती है।
वित्तीय प्रबंधन
वित्तीय प्रबंधन: कांग्रेस के कार्यकाल में जिला
परिषद में वित्तिय प्रबंधन औसत दर्ज का रहा। अब भाजपा को
इसमें और सुधार करने की आवश्यकता है। कई
योजनाओं में हर वर्ष बजट लैप्स हो जाता है।
इसके लिए जिला परिषद सदस्य व पंचायत समितियों के प्रधानों से
जिला प्रमुख को तालमेल भी बनाने की
आवश्यकता है, ताकि जहां आवश्यकता हो बजट दिया जा सके।
सड़क
ज्यादातर ग्राम पंचायत सड़कों से जुड़ गई हैं। लेकिन अब
बड़ी समस्या इनकी मरम्मत
की है। नीमकाथाना व पाटन सहित अन्य
इलाकों की सड़क काफी खराब हालात में है।
सार्वजनिक निर्माण विभाग सड़कों की हालत
ठीक नहीं करा पा रहा है। एेसे में जिला
परिषद को रोटेशन से सड़कों की मरम्मत के लिए प्लान
तैयार करना होगा।

रविवार, 10 जुलाई 2016

अड़कसर गाँव का युवा बना राजस्थान का दलित मसीहा आइये विस्तार से जाने भगवानाराम कादिया मेघवाल नन्दनी रुप रेखा

दोस्तो भगवाना राम कादिया मेघवाल एक 30 साल का मेघवाल समाज का युवा
चेहरा है ! इसका जन्म अड़कसर  नागौर मे हुवा है इन्होने
ग्रेजुtएशन  करने के बाद इन्होने
अपना जीवन समाज मे सम्पर्प्रीत कर
दिया है ! और समाज एकता पर अपना खूब योगदान दिया है इस युवा
ने आजतक कभी हार नही
मानी है और हमेशा अन्याय का सामना किया है यह
युवा नागौर जिले मे जिला अनुसूचित जाति के महामंत्री भी रह चुके है !  और नावा
तहसील मे दलित संघठन का अध्यक्ष
भी है ! और इस युवा ने  डान्गावास दलित हत्याकांड मे
एम.एल.ए से लेकर राष्ट्पति तक को ज्ञापन दिया था दोस्तो भगवाना राम  मेघवाल एक शांत व्यवहार वाला युवा है ऐसे युवा यदि इस
धरती पर रहेंगे तो समाज का कोई भी कुछ
नही बिगाड़ सकेगा और  भगवाना राम  मेघवाल का सामाजिक क्रियाओं  के रूप में प्रसिद्ध  हैं. वे सरपंच में चुनाव जीतकर नागौर ही नही बल्कि पूरे राजस्थान मे भी दलितों के मशीहा बने है वे राजस्थान मे अनेक संघठनों के रुप मेंजुड़े हैं.उनका मुक़ाबला आजाद हिंदुस्तान मे जो लोग अन्याय करते ह उसके विरुद्ध है और मेघवाल का मुक़ाबला कड़ा है.लेकिन एक बात मेघवाल के पक्ष में जाती है और वो है लोगो का उनसे लगाव. नागौर और राजस्थान के लोग उन्हें व्यक्तिगत रुप से पसंद करते हैं और अर्थव्यवस्था संभालने के उनके तौर तरीक़ों को लेकर उन्हें आज भी पूरे मे से पूरे अंक देते हैं.यदि वो अपने समर्थकों को एक बारफिर अपने साथ जुटा पाते हैं, और उन -लोगो कोअपनी ओर खींच पाते हैं क्यों की मेघवाल जब एक बार किसी से मिल जाते ह तॊ वो बन्दा  मेघवाल का हो जाता हदोस्तो जब तक आजाद हिंदुस्तान मे भगवाना राम  मेघवाल जेसे पूत इसधरती पर रहेंगे तॊ किसी की अन्याय करने की हिम्मत नही होगी दोस्तो जब मे भगवाना राम जी मेघवाल से मिला तॊ मुझे लगा की भगवाना राम  मेघवाल समाज की खातिर ही नही बल्की पूरे देश की खातिर समाज हेतु संघर्ष कर रहे है मेघवाल कॉलेज करने के बाद राजनीति के बारे मे सोचा तॊ वो राजनीति मे प्रवेश कर लिया दोस्तो इस युवा का राजनीति के साथ साथ समाजिक संघटनों से भी ह नयी सोच नयी बुलंदी के मसीहा के रुप मे जाने जाते है ! भगवाना राम मेघवाल:   दोस्तो मे आपको एक छोटे से कस्बे के रहने वाले भगवाना राम मेघवाल के जीवन के बारे मे बताने जा रहा हूँ मेरे समाज बंधुओं आपको एक साधारण परिवार मे जन्मे श्री भगवाना राम मेघवाल एक साधारण जीवन व्यापन करने वाले मेघवाल समाज के सपूत ने नयी सोच नयी बुलंदियों के सहारे समाज हित मे काम कर  रहे है ! भगवान जी मेघवाल सरपंच भी रह चुके है यह राजस्थान प्रांत के नागौर जिले के एक छोटे से कस्बे अड़कसर  मे जन्मे ह और शिक्षा बी.ए है ! और तीस साल के भगवाना राम जी कभी भी विपरीत परिस्तिथियों मे कभी भी हार नही मानी है मेघवाल वर्तमान समय मे जिला महामंत्री भाजपा युवा मोर्चा अनुसूचित जाति के है ! और इन्होने समाज मे होने वाले दलितों के पर अत्याचार को को भी रोका है दोस्तो  मेघवाल का जब मेने मेघवाल समाज के  ब्लॉग पर प्रकाशित किया  तॊ उसका भी बड़ा योगदान  समाज मे मिला ! क्यों की इसी कारण भगवाना राम  मेघवाल समाज को लेकर आगे बढ़ता है दोस्तो मेने मेघवाल समाज के www.mandusiya.blogspot.com पर भगवाना राम  मेघवाल की जीवनी समाजिक कार्यों के बारे मे तथ्यों को शेयर किया ह

बुधवार, 6 जुलाई 2016

अर्जुन मेघवाल सोशियल किंग इंडिया

*कभी थे टेलीफोन ऑपरेटर, अब मोदी ने शामिल किया कैबिनेट में-अर्जुन मेघवाल को और मेघवाल को अब तक बेस्ट सांसद रत्न से दो बार नवाजा जा चुका है  अर्जुन मेघवाल चुरू जिले के जिला कलेक्टर भी रहे चुके है ! आयीये अर्जुन मेघवाल के जीवन से लेके साईकल तक का सफर के बारे मे विस्तार से देखे

_नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में मंगलवार को हुए विस्तार में 19 नए मंत्रियों को शामिल किया गया है। राजस्थान के बीकानेर से सांसद अर्जुन राम मेघवाल को भी मोदी कैबिनेट में जगह मिली है। सांसद मेघवाल कभी टेलीफोन ऑपरेटर हुआ करते थे। अपनी कड़ी मेहनत और दूरदर्शिता के कारण मेघवाल आज केंद्रीय मंत्री बन गए हैं। सांसद बनने से पहले मेघवाल की पहचान एक बेहतरीन प्रशासनिक अधिकारी के रूप में थी। मेघवाल दो बार सांसद और रिटायर्ड आईएएस अधिकारी रह चुके हैं। प्रशासनिक सेवा में सिलेक्ट होने से पहले मेघवाल बीएसएनएल में टेलिफोन ऑपरेटर के तौर पर काम करते थे जो बाद में कड़ी मेहनत से 1982 में आरएएस और फिर आईएएस बने।_

_राजस्थान में बड़े दलित नेता माने जाते हैं मेघवालसांसद अर्जुन मेघवाल राजस्थान में बड़े दलित नेता माने जाते हैं। पिछले वर्ष दूसरे बजट सत्र के पहले दिन से उन्होंने अपने आवास विंडसर रोड से संसद भवन तक का सफर साइकिल से शुरू किया था। तब से वे साइकिल से ही संसद आने-जाने को लेकर सुर्खियों में रहे हैं। मेघवाल 2002 में पहली बार बीकानेर के सांसद बने थे। राजस्थान में मेघवाल के साथ ही दलित समाज का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुड बुक में तो शामिल हैं ही साथ ही पर्यावरण को बचाने के लिए अपनी मुहिम को लेकर भी खासे चर्चित हैं।_

_मिल चुका है सांसद महारत्न पुरस्कारमेघवाल संसद में अपने बेहतरीन काम के लिए जाने जाते हैं। मेघवाल समय-समय पर राजस्थान के मुद्दों के केंद्र सरकार और संसद में उठाते रहे हैं। इन मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाने और उन पर काम करने में माहिर मेघवाल इसीलिए देशभर के सांसदों के बीच खासे चर्चा में रहते हैं। बेहतरीन कार्यों के लिए उन्हें हाल ही चेन्नई के आईआईटी सभागार में सांसद महारत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया।_

_मोदी की नसीहत पर अपनाई साइकिलउल्लेखनीय है कि पहली बार साइकिल से संसद पहुंचने पर मेघवाल ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पर्यावरण कांफ्रेंस में सभी सांसदों को सप्ताह में एक दिन साइकिल से संसद आने का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री के आह्वान पर वे अब रोजाना ही सत्र के दौरान साइकिल से आएंगे। इसके अलावा अपने संसदीय क्षेत्र बीकानेर में भी वे साइकिल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करेंगे।,_

श्री माया मेघवाल की कथा

श्री माया मेघऋषि जी कथा यह कथा मे आपको संयोजित कर रहा हूँ मेघवाल समाज के बंधुओं हमारे समाज मे आज भी बहूत ऐसी कथायें है जो समाज मे संयोजित है ! मे नवरत्न मन्डुसिया आपको माता माया की कथा को संयोजित करके आपके सामने पेश कर रहा हूँ
मायाजी मेघऋषि जी मेघवाल समाज के महान संत हुए है| वे पाटन मेँ एक कुटिया मेँ रहते तथा भगवान का सिमरन करते थे| उस समय पाटन का राजा सिद्धराज सोलंकी था| एक बार राजा ने जनहितार्थ तालाब खुदवाना प्रारंभ किया| जसमा नाम की एक स्त्री वहाँ काम पर आती थी| वह बहुत ही सुंदर थी इसलिए राजा उस पर मोहित हो गया तथा उसको अपनी पटराणी बनाने का ख्वाब देखने लगा| एक दिन राजा ने जसमा का पीछा कर उसे रोका| राजा जसमा से बोला कि मैँ तुमको अपनी पटराणी बनाना चाहता हूँ| जसमा तो एक सती तथा धार्मिक स्त्री थी इसलिए वह राजा की अभद्र बात सहन नही कर सकी|उसने राजा को शाप देते हुए कहा कि आपने जो जनहितार्थ तालाब खुदवाया है उसमे कभी बुँद भी पानी नही ठहरेगा तथा खारा ही होगा| और देखते ही देखते जसमा अपने प्राण देने लगी | यह देखकर राजा बहुत ही घबराया तथा उसके चरणोँ मेँ गिर पडा| राजा क्षमा याचना करते हुए बोला आप मेरी माता समान हो मुझसे अनजाने मेँ यह पाप हो गया| आप मुझ पापी को क्षमा कर शाप वापस ले लिजिए| जसमा ने कहा कि तीर कमान से तथा शब्द जुबान से निकले हुए वापस नही होता| राजा फिर बोला आप कुछ न कुछ उपाय बताइए अन्यथा यह तालाब किसी अर्थ का नही रहेगा| जसमा ने अंतिम साँसे लेते हुए कहा कि यदि कोई बत्तीस लक्षणोँ वाला व्यक्ति इस तालाब मेँ काया होमेगा तो ही इस शाप से मुक्ति मिल सकती है| और जसमा प्राणमुक्त हो गई| राजा को अब चिँता होने लगी कि आखिर बत्तीस लक्षणोँ वाले व्यक्ति को कहाँ ढुँढने जाएँ| उसने काशी से विद्वान बुलवाया और कहा कि आप शास्त्रोँ का अध्ययन कर ऐसे व्यक्ति का नाम बताओ| विद्वान बोले राजन आप के राज्य मेँ केवल दो ही ऐसे व्यक्ति है| राजा ने पुछा कौन कौन| विद्वान बोले कि एक तो आप स्वयं तथा दूसरे मायाजी मेघवाल जिनकी नगर से बाहर कुटिया मेँ हरि का सिमरन करते है| राजा ने अपने सैनिको को बुलाया और कहा कि जाओ और मायाजी को दरबार मेँ हाजिर करो| सैनिक मायाजी को प्रणाम कर बोले महाराज आप हमारे साथ दरबार मेँ चलेँ राजाजी ने बुलाया| मायाजी दरबार मेँ पहुँचे तथा राजा के सामने हाथ जोडकर खडे हो गए| राजा ने भी मायाजी को प्रणाम किया और उनको दरबार मेँ प्रयोजन बताया| राजा ने कहा केवल हम दोनो पर बात अटकी है| राजा ने कहा कि या तो आप काया होमे तो आप का बडा उपकार होगा अन्यथा मुझे ही यह काम करना पडेगा|मायाजी बोले मै काया होमने को तैयार हूँ| दूसरे दिन नगरवासी गांजो बाजो के साथ पालकी मेँ बिठाकर मायाजी को तालाब पर ले गए| मायाजी ने सभी नगरवासियोँ को अंतिम प्रणाम किया| फिर मायाजी ने अग्नि देवता का आहवान किया| कुछ ही क्षणोँ मेँ स्वतं ही अग्निकुँण्ड बना तथा अग्नि प्रज्वलित होने लगी| मायाजी ने सिमरन कर कुँण्ड मेँ पाँव धरे और देखते ही देखते पूर्ण रुप से अग्निकुँण्ड मेँ समा गए| कुछ देर बाद तालाब मीठे पानी से लबालब भर गया| राजा व नगरवासी मेँ खुशी की लहर दौड गई| इस प्रकार मायाजी ने जनहितार्थ अपने प्राणोँ की आहुति देकर तालाब का जल मीठा किया| मेघवँश सदैव मायाजी का ऋणी रहेगा जिनके बलिदान से समाज को पारंपरिक रीति रिवाजोँ से मुक्ति दिलाई| श्री माया मेघऋषि जी के चरणोँ मेँ शत शत नमन अभिवंदन

रविवार, 3 जुलाई 2016

————- कानून—————– अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण)अधिनियम, 1989 एवं नियम, 1995 के नियम 12 (4) के अन्तर्गत देय राहत

——————- कानून—————–
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार
निवारण)अधिनियम, 1989 एवं नियम, 1995 के नियम
12 (4) के अन्तर्गत देय राहत
राजस्थान सरकार के पत्रांक एक 11(67)/ आर एण्ड
पी/ सकवि/4377 दिनांक 11.06.03 द्वारा
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण )
नियम 1995 के प्रावधानों को यथावत लागू कर दिया गया
है ।
अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम
1989 के अंतर्गत आने वाले अत्याचारों से
पीड़ित व्यक्तियों को नियम 1995
की धारा 11 एवं धारा 12(4) के अन्तर्गत्
राहत देने का प्रावधान किया गया है। समस्त जिला
कलक्टरों को आदेशित किया गया है कि वे इन नियमों के
अन्तर्गत् आने वाले अत्याचारों के सभी
प्रकरणों में राहत राशि प्रदान किए जाने की
व्यवथा करेंगे ।
(अ) अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण)
अधिनियम 1995 की धारा 11 के अन्तर्गत
अत्याचार पीड़ित व्यक्तियों, उनके आश्रितों
एवं गवाहों को आने जाने हेतु यात्रा व्यय, पोषण
व्यय तथा आहार व्यय दिए जाने के निम्न प्रावधान
है-
1. परिवहन हेतु भाड़ा अथवा खर्चा संबंधित व्यक्तियों
के निवास से संबंधित न्यायालय/कार्यालय तक जाने के लिए
साधारण श्रेणी के रेल अथवा बस किराए के
बराबर होगा, जो संबंधित न्यायालय/कार्यालय द्वारा
उपस्थिति सत्यापन किए जाने पर देय होगा ।
2. भरण पोषण भत्ता राज्य की तत्समय लागू
न्यूनतम मजदूरी दर के बराबर प्रतिदिन के
आधार पर उपस्थिति सत्यापन हाने पर दिया जाएगा तथा
3. आहार व्यय हेतु भी उपस्थिति का
सत्यापन होने पर 25/- रूपये प्रतिदिन की
दर से भत्ता दिया जाएगा।
(ब) अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण)
अधिनियम 1995 की धारा 12 (4) के
अन्तर्गत अत्याचार पीड़ित व्यक्तियों और
उनके आश्रितों को निम्न प्रकार से राहत देय
होगी:-
क्र.सं. अपराधराहत राशि
1. अखाद्य या घृणाजनक पदार्थ पीना या
खाना (धारा 3(1) (1)/ क्षति पहुंचाना, अपमानित
करना या क्षुब्ध करना (धारा 3 (1) (2)/ अनादरसूचक
कार्य (धारा 3 (1) (3)) के तहत प्रत्येक
पीड़ित को अपराध के स्वरूप और
गंभीरता को देखते हुए 25000 रू.या
उससे अधिक और पीड़ित व्यक्ति द्वारा
अपमान, क्षति तथा मानहानि सहने के अनुपात में
भी होगा। दिया जाने वाला भुगतान
निम्नलिखित होगाः-
(1) 25 प्रतिशत जब आरोप-पत्र न्यायालय को भेजा
जाए।
(2) 75 प्रतिशत जब निचले न्यायालयों द्वारा दोष सिद्ध
ठहराया जाए।
2. सदोष भूमि अभिभोग में लेना या उस पर कृषि करना
आदि (धारा 3 (1) (4))/भूमि परिसर या जल से संबंधित
(धारा 3(1) (5)) के तहतअपराध के स्वरूव और
गंभीरता को देखते हुए कम से कम
25000 रू. या उससे अधिक भूमि/परिसर/जल
की आपूर्ति जहां आवश्यक हो,
सरकारी खर्च कर पुनः वापस
की जाएगी। जब आरोप पत्र
न्यायालय को भेजा जाए पूरा भुगतान किया जाए।
3. बेगार या बलात्श्रम या बंधुआ मजदूरी
(धारा 3 (1) (6)) के तहतप्रत्येक
पीड़ित व्यक्ति को कम से कम 25000 रू./
प्रथम सूचना रिपोर्ट की स्टेज पर 25
प्रतिशत और 75 प्रतिशत निचले न्यायालय में दोष
सिद्ध होने पर।
4. मतदान के अधिकार के संबंध में (धारा 3 (1) (7))
के तहतप्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को
20000 रू. तक जो अपराध के स्वरूप और
गंभीरता पर निर्भर है।
5. मिथ्या, द्वेष पूर्ण या तंग करने वाली
विधिक कार्यवाही (धारा 3 (1) (8))/
मिथ्या या तुच्छ जानकारी (धारा 3 (1) (9))
के तहत25000 रू. या वास्तविक विधिक व्यय और
क्षति की प्रतिपूर्ति या अभियुक्त के
विचारण की समाप्ति के पश्चात् जो
भी कम हो।
6. अपमान, अभित्रास (धारा 3 (1) (10)) के
तहतअपराध के स्वरूप पर निर्भर करते हुए
प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को 25000 रू.
तक 25 प्रतिशत उस समय जब आरोप पत्र न्यायालय
को भेजा जाए और शेष दोष सिद्ध होने पर।
7. किसी महिला की लज्जा
भंग करना (धारा 3 (1) (11))/ महिला का लैंगिक
शोषण (धारा 3 (1) (12)) के तहतअपराध के
प्रत्येक पीड़ित को 100000 रू. । चिकित्सा
जांच के पश्चात् 50 प्रतिशत राशि का भुगतान किया जाये
तथा शेष 50 प्रतिशत विचारण की समाप्ति
पर किया जाए ।
8. पानी गन्दा करना (धारा 3 (1) (13)) के
तहत100000 रू. तक जब पानी को
गन्दा कर दिया जाए तो उसे साफ करने सहित या
सामान्य सुविधा को पुनः बहाल करने की
पूरी लागत। उस स्तर पर जिस पर जिला
प्रशासन द्वारा ठीक समझा जाए भुगतान
किया जाए।
9. मार्ग के रूढ़िजन्य अधिकार से वंचित करना (धारा 3
(1) (14)) के तहत100000 रू. तक या मार्ग के
अधिकार को पुनः बहाल करने की
पूरी लागत और जो नुकसान हुआ है,
यदि कोई हो, उसका पूरा प्रतिकार। 50 प्रतिशत जब
आरोप पत्र न्यायालय को भेजा जाए और 50 प्रतिशत
निचले न्यायालय में दोष सिद्ध होने पर।
10. किसी को निवास स्थान छोड़ने पर
मजबूर करना (धारा 3 (1) (15)) के तहतस्थल
बहाल करना। ठहराने का अधिकार और प्रत्येक
पीड़ित व्यक्ति को 25000 रू. का प्रतिकार
तथा सरकार के खर्च पर मकान का पुनर्निर्माण यदि
नष्ट किया गया हो। पूरी लागत का भुगतान
जब निचले न्यायालय में आरोप पत्र भेजा जाए।
11. मिथ्या साक्ष्य देना (धारा 3 (2) (1) और (2) )
के तहतकम से कम 100000 रू. या उठाए गए
नुकसान या हानि का पूरा प्रतिकार 50 प्रतिशत का
भुगतान जब आरोप पत्र न्यायालय में भेजा जाए और
50 प्रतिशत निचले न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध होने
पर।
12. भारतीय दंड संहिता के
अधीन 10 वर्ष या उससे अधिक
की अवधि के कारावास से
दंडनीय अपराध करना (धारा 3 (2)) के
तहतअपराध के स्वरूप और गम्भीरता
को देखते हुए प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति
को या उसके आश्रित को कम से कम 50000 रू. यदि
अनुसूची में विशिष्ट। अन्यथा प्रावधान किया
हुआ हो तो इस राशि में अन्तर होगा।
13. किसी लोकसेवक के हाथों
उत्पीड़न (धारा 3 (2) (7)) के
तहतउठाई गई हानि या नुकसान का पूरा प्रतिकार,
50 प्रतिशत का भुगतान जब आरोप पत्र न्यायालय में
भेजा जाए और 50 प्रतिशत का भुगतान जब निचले
न्यायालय में दोष सिद्ध हो जाए,
किया जाएगा ।
14. निर्योग्यता । सामाजिक न्याय और अधिकारिता
मंत्रालय भारत सरकार की समय-समय पर
यथा संशोधित अधिसूचना सं. 4.2.83, एच.डब्ल्यू- 3
तारीख 6.8.1986 में शारीरिक
और मानसिक निर्योग्यताओं का उल्लेख किया गया है।
अधिसूचना की एक प्रति अनुबन्ध-2 पर
है।
(क) 100 प्रतिशत असमर्थतता (1) परिवार का न
कमाने वाला सदस्य को
(2) परिवार का कमाने वाला सदस्य को
(ख) जहां असमर्थता
100 प्रतिशत से कम है।अपराध के प्रत्येक
पीड़ित को कम से कम 100000 रू., 50
प्रतिशत प्रथम सूचना रिपोर्ट पर और 25 प्रतिशत
आरोप पत्र पर और 25 प्रतिशत निचले न्यायालय
द्वारा दोष सिद्ध होने पर। अपराध के प्रत्येक
पीड़ित को कम से कम 200000 रू., 50
प्रतिशत प्रथम सूचना रिपोर्ट/चिकित्सा जांच पर भुगतान
किया जाए और 25 प्रतिशत जब आरोप पत्र न्यायालय
को भेजा जाए तथा 25 प्रतिशत निचले न्यायालय में दोष
सिद्ध होने पर।
उपर्युक्त क (1) और (2) में निर्धारित दरों को
उसी अनुपात में कम किया जाएगा, भुगतान
के चरण भी वही रहेंगे।
तथापि न कमाने वाले सदस्य को 15000 रू. से कम
नहीं और परिवार के कमाने वाले सदस्य
को 30000 रू. से कम नहीं होगा।
हत्या/ मृत्यु
(क) परिवार का न कमाने वाला सदस्य होने पर
(ख) परिवार का कमाने वाला सदस्य होने पर-
प्रत्येक मामले में कम से कम 100000 रू., 75
प्रतिशत पोस्टमार्टम के पश्चात् और 25 प्रतिशत
निचले न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध होने पर। प्रत्येक
मामले में कम से कम 200000 रू., 75 प्रतिशत का
भुगतान पोस्टमार्टम के पश्चात् और 25 प्रतिशत
निचले न्यायालय में दोष सिद्ध होने पर।

शनिवार, 11 जून 2016

नागौर के नावा के डेड्या का बास के पूरण मल मेघवाल की सच्चे जीवन की सच्ची कहानी

नवरत्न मन्डुसिया की कलम से // नागौर के सच्चे संघर्ष की कहानी, मे आपको राजस्थान प्रांत के नागौर जिले के एक छोटे से गाँव के ग्रेजुएट युवा पूरण मल मेघवाल की कहानी बताने जा रहा हूँ

 दोस्तो आप सब को पता ह की किसकी किस्मत कहाँ ह ये हमे पता नही चलती

कहा जाता है कि अगर इंसान में संघर्ष और कठिन मेहनत करने की क्षमता हो तो दुनिया में ऐसा कोई मुकाम नहीं है जिसे हासिल ना किया जा सके । कवि रामधारी सिंह दिनकर ने सही ही कहा है कि “मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है”। ये कथन नागौर  के रहने वाले पूरण मल मेघवाल  पे बिल्कुल सही बैठता है । सोना तपकर ही कुंदन बनता है और इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने अपना जीवन अभावों में गुजारा है वही लोग आगे चलकर सफलता को हासिल करते हैं ।

कोई भी माँ बाप कितने भी गरीब हों पर सबका सपना होता है कि उनका बच्चा खूब पढ़ाई करे । ऐसी ही एक बहुत गरीब परिवार की कहानी है और वो गरीब परिवार पूरण मल मेघवाल का है ! जो दिल को छूते हुए गहरे सन्देश छोड़ती है।

नागौर जिले के डेड्या का बास  के रहने वाले पूरण मल मेघवाल  ने  ग्रेजुएशन और आई टी आई  में भारत के सबसे कठिन ग्रेजुएशन और आई टी आई इंजीनियरिंग परीक्षा को पास किया जो अपने आप में एक अद्भुत उपलब्धि है । पूरण मल मेघवाल के पिता एक सामान्य जीवन चलाने वाले भारतीय नागरिक हैं और पूरण मल मेघवाल ने कभी सोचा भी नही था की वो नागौर के जिला परिषद सदस्य बन जायेंगे ,पूरण मल मेघवाल वर्तमान मे जिला परिषद सदस्य है ये सुनने में जरूर अजीब लगेगा लेकिन सत्य है और माँ घर में लोगों के फटे कपड़े सिलकर कुछ पैसे इकट्ठे करती हैं । परिवार की रोज की दैनिक आमदनी भी सामान्य  है

पूरण मल मेघवाल मेघवाल समाज की मीटिंग मे समाज बंधूओ से रूबरू होते हुवे 

पूरण मल मेघवाल मीडिया से वार्तालाप करते हुवे 

सामाजिक मीटिंग मे पूरण मल मेघवाल 


कई बार पूरण मल मेघवाल  अपने पिता की अनुपस्थिति में घर और खेत खलीयनो का काम खुद करता ह ! कभी कुछ पैसे कमाने के लिए खेत के कर्मचारियों के साथ काम भी करते है !। लेकिन पढ़ने की चाह पूरण मल मेघवाल  में शुरू से ही थी । वो रात भर जागकर पढाई करते  । घर में बिजली कनेक्शन नहीं था तो लालटेन जला कर ही रात को पढाई करनी पढ़ती थी ।

अच्छी पढाई के लिए ना कोचिंग के पैसे थे और ना ही किताबें खरीदने के फिर भी पूरण मल मेघवाल  जी जान से लगा रहता था । वो कभी हार ना मानने वाले लोगों में से था, अपने दोस्तों से पुरानी किताबें लेकर पढाई किया करता था । उसकी लगन के आगे आखिर किस्मत को झुकना ही पड़ा और पूरण  ने वो उपलब्धि हासिल की जिसका लाखों भारतीय छात्र सपना देखते हैं । आज पूरण मल मेघवाल नागौर के जिला परिषद सदस्य है !और राजस्थान  मे राजनीति के साथ साथ गरीबो की  सेवा  कर रहे हैं ।

तो मित्रों , सफलता कोई एक रात का खेल नहीं है जो पलक झपकते किस्मत बदल जाएगी , आपको कठिन मेहनत करनी होगी खुद को संघर्ष रूपी आग में तपाना होगा, फिर देखिये दुनिया आपके कदमों में झुक जाएगी :- नवरत्न मन्डुसिया की कलम से 

रविवार, 24 अप्रैल 2016

नागौर :-- समाज मे सामाजिक कुरुतीयो को रोकने का आह्नान

दोस्तो मेघवाल समाज मे दिन प्रतिदिन समाज मे भयंकर कुरुतीयो को मिटाने का संकल्प ले रहे ह राजस्थान प्रांत के नागौर जिले के खिंवसर के निकटव्र्ग्रारतीती निकटवर्मेती बीर्लोका ग्राम मे  भी मेघवाल समाज के लोगो ने सामाजिक कुरुतीयो को त्यागने का आह्नान किया है !
खींव सर बिरलोका ग्राम पंचायत क्षेत्र के
मेघवाल समाज के लोग अब किसी प्रकार का
नशा नहीं करेंगे और न ही किसी प्रकार के
आयोजन में नशे की मनुहार की जाएगी। यह
निर्णय गुरूवार को डॉ. भीमराव अम्बेडकर
जयन्ती पर आयोजित समारोह में समाज के
लोगों ने निर्णय लेकर शपथ ली है। सरपंच डिम्पल
हुड्डा एवं उप सरपंच प्रभु मेघवाल की अध्यक्षता
में आयोजित मेघवाल समाज की बैठक में निर्णय
लिया कि बिरलोका ग्राम पंचायत क्षेत्र का
मेघवाल समाज सम्पूर्ण नशे से मुक्त रहेगा। मृत्यु
भोज हो या विवाह किसी प्रकार के
कार्यक्रम में पूर्णतया नशाबंदी रहेगी। इस
दौरान समाज के अन्नाराम गोयल, गंगाराम
हालू, बिंजाराम हालू, देराजराम सोऊ,
सुखाराम हालू, ओमप्रकाश हालू, भगवानराम
हुड्डा, उगराराम हालू, श्रीराम सांदू,
सोनाराम चिनिया, प्रभु हरिजन सहित अनेक
लोगों ने शपथ दिलाई।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता इंजीनियर ज्ञानचंद मेघवार पाकिस्तान के पहले दलित हिंदू सीनेटर बन चुके हैं। अल्पसंख्यकों के लिए सीनेट में 4 सीटें आरक्षित हैं, मगर वे जनरल सीट पर जीते हैं।

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता इंजीनियर
ज्ञानचंद मेघवार पाकिस्तान के पहले दलित हिंदू
सीनेटर बन चुके हैं। अल्पसंख्यकों के लिए सीनेट में 4
सीटें आरक्षित हैं, मगर वे जनरल सीट पर जीते हैं।
भाषा ज्स्कञान  से विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि इसमें
भारत के लिए यह एक विशेष संदेश है- कि कोटा की
बजाय राजनीति मेरिट पर ही होनी चाहिए। वे
कहते हैं, पाकिस्तान में दलितों की स्थिति भारत से
बेहतर है। यहां जो कुल चार फीसदी हिंदू हैं उनमें 80%
आबादी दलितों की हैं। यहां भी अांबेडकर जयंती
उतने ही उल्लास से मनाई जाती है जितनी कि
भारत में क्योंकि सब जानते हैं अांबेडकर का दलितों
के उत्थान में कितना योगदान है।
इंजीनियर ज्ञानचंद का सीनेट चुनाव जीतना
लोगों को किसी करिश्मे से कम नहीं लगा। पूर्व
मुख्यमंत्री अर्बब गुलाम रहीम के धुर विरोधी
ज्ञानचंद ने बताया रहीम ने मुझे जाम सादिक
आंदोलन के वक्त गिरफ्तार करवाया था। छोटे
परिवार से होते हुए मैं कभी राजनीति में आने के बारे
में सोच भी नहीं सकता था। मगर अर्बब साहब का
लाख-लाख शुक्रिया। उन्हीं की वजह से आज मैं
राजनीति का हिस्सा बन गया हूं। ज्ञानचंद के
पिता और दो बड़े भाई प्राइमरी स्कूल में शिक्षक रहे
हैंं। थारपरकार जिले के डिप्लो क्षेत्र के ज्ञानचंद ने
अपनी शिक्षा सिंध एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी
टैंडोजैम से 1990 में पूरी की। पीपीपी पार्टी से
इनका नाता करीब दो दशक पुराना है। ज्ञानचंद
कहते हैं पाकिस्तान में सिर्फ पाकिस्तान पीपुल
पार्टी (पीपीपी) ही उदारवादी है। ऐसी पार्टी
जो लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए अल्पसंख्यकों
और दलितों की बराबरी के लिए काम कर रही है।
पीपीपी के कार्यकाल के दौरान यह ध्यान रखा
गया था कि सरकारी नौकरियों में दलितों के लिए
4 फीसदी आरक्षण हो। ग्यानचंद 1993 में
अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित सीट से स्वतंत्र
उम्मीदवार के तौर पर प्रांतीय सभा के अध्यक्ष चुने
गए।

रविवार, 17 अप्रैल 2016

नारी का समान सबसे बड़ा धर्म :- नवरत्न मन्डुसिया


नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों
की रक्षा करना हमारे देश की सदियों
पुरानी संस्कृति है । यह एक विडम्बना
ही है कि भारतीय समाज में नारी की
स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है ।
एक तरफ तो उसे शक्ति के रूप में
प्रतिष्ठित किया गया है तो दूसरी ओर
उसे ‘बेचारी अबला’ भी कहा जाता है ।
इन दोनों ही अतिवादी धारणाओं ने
नारी के स्वतन्त्र बिकास में बाधा
पहुंचाई है ।
प्राचीनकाल से ही नारी को इन्सान
के रूप में देखने के प्रयास सम्भवत: कम ही
हुये हैं । पुरुष के बराबर स्थान एवं
अधिकारों की मांग ने भी उसे
अत्यधिक छला है । अत: वह आज तक
‘मानवी’ का स्थान प्राप्त करने से भी
वंचित रही है ।
चिन्तनात्मक विकास:
सदियों से ही भारतीय समाज में नारी
की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा
है । नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में
अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी,
इन्दिरा गाँधी हो, सरोजनी नायडू हो

किन्तु फिर भी वह सदियों से ही क्रूर
समाज के अत्याचारों एवं शोषण का
शिकार होती आई हैं । उसके हितों की
रक्षा करने के लिए एवं समानता तथा
न्याय दिलाने के लिए संविधान में
आरक्षण की व्यवस्था की गई है ।
महिला विकास के लिए आज विश्व भर
में ‘महिला दिवस’ मनाये जा रहे हैं । संसद
में 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की
जा रही है ।
इतना सब होने पर भी वह प्रतिदिन
अत्याचारों एवं शोषण का शिकार हो
रही है । मानवीय क्रूरता एवं हिंसा से
ग्रसित है । यद्यपि वह शिक्षित है, हर
क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है
तथापि आवश्यकता इस बात की है कि
उसे वास्तव में सामाजिक, आर्थिक एवं
राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाये ।
समाज का चहुँमुखी वास्तविक विकास
तभी सम्भव होगा ।
उपसंहार:
स्पष्ट है कि भारत में शताब्दियों की
पराधीनता के कारण महिलाएं अभी तक
समाज में पूरी तरह वह स्थान प्राप्त नहीं
कर सकी हैं जो उन्हें मिलना चाहिए और
जहाँ दहेज की वजह से कितनी ही बहू-
बेटियों को जान से हाथ धोने पड़ते हैं
तथा बलात्कार आदि की घटनाएं भी
होती रहती हैं, वही हमारी सभ्यता और
सांस्कृतिक परम्पराओं और शिक्षा के
प्रसार तथा नित्यप्रति बद रही
जागरूकता के कारण भारत की नारी
आज भी दुनिया की महिलाओं से आगे है
और पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा
मिलाकर देश और समाज की प्रगति में
अपना हिस्सा डाल रही है ।
सदियों से समय की धार पर चलती हुई
नारी अनेक विडम्बनाओं और
विसंगतियों के बीच जीती रही है ।
पूज्जा, भोग्या, सहचरी, सहधर्मिणी,
माँ, बहन एवं अर्धांगिनी इन सभी रूपों में
उसका शोषित और दमित स्वरूप । वैदिक
काल में अपनी विद्वत्ता के लिए
सम्मान पाने वाली नारी मुगलकाल में
रनिवासों की शोभा बनकर रह गई ।
लेकिन उसके संघर्षों से, उसकी योग्यता
से बन्धनों की कड़ियां चरमरा गई ।
उसकी क्षमताओं को पुरुष प्रधान समाज
रोक नहीं पाया । उसने स्वतन्त्रता
संग्राम सरीखे आन्दोलनों में कमर कसकर
भाग लिया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के
पश्चात् संविधान में बराबरी का दर्जा
पाया । राम राज्य से लेकर अब तक एक
लम्बा संघर्षमय सफर किया है नारी ने ।
कई समाज सुधारकों, दोलनों और
संगठनों द्वारा उठाई आवाजों के
प्रयासों से यहां तक पहुंची है, नारी ।
जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से
कंधा मिलाकर चलने वाली नारी की
सामाजिक स्थिति में फिर भी
परिवर्तन ‘ना’ के बराबर हुआ है । घर बाहर
की दोहरी जिम्मेदारी निभाने वाली
महिलाओं से यह पुरुष प्रधान समाज
चाहता है कि वह अपने को पुरुषो के
सामने दूसरे दर्जे पर समझें ।
आज की संघर्षशील नारी इन परस्पर
विरोधी अपेक्षाओ को आसानी से
नहीं स्वीकारती । आज की नारी के
सामने जब सीता या गांधारी के
आदर्शो का उदाहरण दिया जाता है तब
वह इन चरित्रों के हर पहलू को ज्यों का
त्यों स्वीकारने में असमर्थ रहती है । देश,
काल, परिवेश और आवश्यकताओ का
व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व है, समाज
इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता

सीता के समय के और इस समय के
सामाजिक परिवेश में धरती-आसमान
का अंतर है । समाज सेविका श्रीमती
ज्योत्सना बत्रा का कहना है कि आज
के परिवेश मे सीता बनना बडा कठिन है
। सीता स्वय में एक फिलोसिफी थीं ।
उनका जन्म मानव-जाति को मानव-
मूल्यों को समझाने के लिए हुआ था ।
दूसरो के लिए आदर्श बनने के लिए
व्यक्ति को स्वयं बहुत त्याग करने पडते है
जैसे सीता ने किए । राम और सीता ने
जीवन को दूसरो के लिए ही जिया ।
राम जानते थे कि धोबी द्वारा किया
गया दोषारोपण गलत है, मिथ्या है ।
परंतु उन्होंने उसका प्रतिरोध न करके
प्रजा की संतुष्टि के लिए सीता का
त्याग कर दिया ।
राम की मर्यादा पर कोई आच न आए,
प्रजा उन पर उंगली न उठाए यह सोचकर
सीता ने पति द्वारा दिए गए बनवास
को स्वीकार किया और वाल्मीकि के
आश्रम में रहने लगी । अब न राम सरीखे
शासक हैं न वाल्मीकि समान गुरू । हम
सभी जानते हैं कि सीता के जीवन का
संपूर्ण आनंद पति में ही केद्रित था ।
पति की सहचरी बनी वह चित्रकूट की
कुटिया में भी राजभवन सा सुख पाती
थी । ‘मेरी कुटिया में राजभवन मन
माया’ सीता का यह कथन अपने पति
श्री राम के प्रति उनकी अगाध आस्था
को दर्शाता है । सीता अपना और राम
का जन्म-जन्म का नाता मानती थीं ।
आज भी भारतीय नारी पति के साथ
अपना जन्म-जन्म का नाता मानती है ।
युगदृष्टा, युगसृष्टा नारियों के चरित्र
हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं । हम उनके
चरित्र के मूल तत्वों का समावेश अपनी
जिंदगी मे कर सकते हैं । श्रीमती डॉक्टर
आशा शाहिद के अनुसार लगभग चौबीस
वर्षों से मैं अमरीका में रह रही हूँ । हमने
अपनी एक मात्र बेटी में भारतीय मूल के
संस्कार डाले हैं, उसे रामायण व सीता के
चरित्रों से अवगत कराया है ।
यों तो सीता धरती पुत्री थी ।
शिवजी के भारी भरकम धनुष को
सरकाकर उन्होंने अपनी शक्ति का
परिचय दिया था, पर अग्नि
परीक्षा…. ? आज के समय में अच्छी
शिक्षा पाना, अच्छी नौकरी पाना,
दफ्तरों की राजनीति का शिकार न
बनना, अपने घर और दफ्तर की
जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह निभाना ये
किसी अग्निपरीक्षा से कम है ?
हर हाल में पति का साथ देने को उत्सुक
सीता के चरित्र की यह विशेषता थी ।
डॉक्टर मनीषा देशपाण्डे के अनुसार
सीता का उदाहरण पतिव्रताओं में
सर्वोपरि है । इसमें सन्देह नहीं कि वह
कठिनाई के समय में पति का मनोबल
बढाने, विवाह के समय लिए गये वचनों
को निभाने उनकी सहचारी बन उनके
साथ वनों को गईं ।
जब मैं सीता के बारे में सोचती हूँ तो एक
बात मेरे दिमाग में आती है वह है हमारी
सामाजिक परिस्थितियों मे रामराज्य
से अब तक का बदलाव, उस समय की
नारी को पतिव्रता और कर्तव्य परायण
जरूर होना चाहिए था । सीता इन गुणो
पर खरी उतरती थीं । वह एक सुपर बूमैन
थी ।
फिर भी सीता की पहचान अपने पति व
बच्चों के कारण थी जैसे राम की पत्नी,
लवकुश की मां । उनकी पूरी जिंदगी
उनके परिवार के इर्द- ही सीमित रह गई,
वह समाज की अपेक्षाओं को पूरा
करती रही । सीता के चरित्र की । बातें
मैं पसंद करती हूँ जैसे पति को ‘सपोर्ट’
करना । वह दृढ चरित्र की महिला थी ।
आज नारी होने के नाते मैं महसूस करती हूँ
कि एक व्यक्ति के रूप में मेरी अपनी
पहचान होना गयी है । मैं सिर्फ एक
पत्नी, एक मां, एक बहन या बेटी के रोल
तक सीमित नहीं रहना चाहती । समाज
की सक्रिय सदस्य बनना चाहती हूँ ।
नैसर्गिक रूप से तो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के
पूरक हैं ही । जिस आधुनिक
लोकतात्रिक समाज मनुष्य अपने
व्यक्तित्व की नयी ऊचाइयां छू रहा है,
उसके निर्माण में भी स्त्री की भूमिका
दूसरे र्जे की नहीं मानी जा सकती ।
हमारे अपने देश में भी, जब से देश के
आधुनिक राष्ट्र में परिवर्तित की
प्रक्रिया आरंभ होती है, तभी से हम
स्त्रियों को सामाजिक, राजनीतिक
प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाते
पाते है ।
यह और बात है कि जब इन प्रक्रियाओ
को इतिहास या राष्ट्रीय
‘माइथालॉजी’ झा रूप दिया जाता है,
तब स्त्रियो को केवल ‘पुरुष की प्रेरणा’
के रूप में प्रस्तुत किया जाता है या फिर
अधिक से अधिक ऐसी वीरांगनाओं के
रूप में, जिन्हें परिस्थितियां पराक्रम के
लिए बाध्य कर देती हैं ।
सामाजिक-राजनीतिक विवेक और
इतिहास बोध पर भी स्त्री का कोई
दावा हो सकता है, यह आम तौर से
राष्ट्रीय वृत्तांतों में स्वीकार नहीं
किया जाता । भारत के पहले
स्वाधीनता-संग्राम 1857 के दो
उदाहरणों से यह बात समझी जा सकती
है महारानी लक्ष्मीबाई कुशल प्रशासक
और नेता थीं, लेकिन उनकी मुख्य छवि
हमारा राष्ट्रीय वृत्तांत एक युद्धरत
वीरांगना का ही बनाता हे ।
अवध की बेगम हजरतमहल के बारे में तो हम
सिवा इसके कुछ याद नहीं करते कि वह
भी 1857 के नेताओं में से एक थीं, जबकि
बेगम हजरतमहल वह व्यक्ति थीं, जिन्होंने
विक्टोरिया की ‘गदर’ के बाद जारी
की गयी घोषणा का प्रतिवाद
विद्रोही पक्ष की ओर से जारी किया
था ।
लक्ष्मीबाई हो या हजरतमहल,
मोतीबाई हों या अलकाजी-ये
स्त्रिया अपवाद नहीं थी, बल्कि उस
दौर की: सामान्य राजनीतिक चेतना
से ही इंनके व्यक्तित्व परिभाषित होते
थे । 1857-58 के दमन के बाद
राजनीतिक चेतंना का जो उभार
आया, उसका सामाजिक आधार नये
विकसित हो रहे मध्य वर्ग में था ।
इस उभार में, एक लंबे अरसे तक स्त्री की
स्थिति प्रतीकात्मक बनी रही । इस
बात को अच्छी तरह समझने की जरूरत है ।
जिस विद्रोह (1857) की जडें परंपरा में
थीं, उसमें स्त्री की साझेदारी लगभग
बराबरी की थी और जिस ‘विद्रोह’ का
सामाजिक आधार अंग्रेजीदा भद्रलोक
में था, उनमे स्त्री की हैसियत प प्रेरणा
और प्रतीक की थी ।
यह इस बात का एक और प्रमाण है कि
भारतीय समाज में प्रगति और जड़ता
का द्वंद परंपरा बनाम आधुनिकता के
द्वंद्व का पर्यायवाची नहीं है । परपरा
में निहित जड़ता, प्रगतिहीनता और
अमानवीयता के पहलू तो अपनी जगह है
ही, लेकिन आहदुनिकता में भी सब कुछ
गतिशील-प्रगतिशील हो, ऐसा नहीं है ।
उल्टे, हमारे समाज में आयी आधुनिकता
के सामाजिक आधार और उसके
बौद्धिक स्त्रोतों की बदौलत उस
आधुनिकता का दक्षिणपंथी,
प्रतिक्रियावादी पहलू उसके
प्रगतिशील पहलू से कहीं अधिक प्रचण्ड
है । जातिवाद विरोध के नाम पर सवर्ण
जातिवाद की बेशर्म वकालत हो या
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर
फासिस्ट मिजाज की चट्टानी
सवेदनहीनता-ऐसी तमाम समाज-तोडक
और पीछे देखूं प्रवृत्तियों का
सामाजिक आधार और बौद्धिक तेज
हमारे परम आधुनिक भद्रलोक द्वारा ही
सप्लाई किया जाता है ।
भारतीय आधुनिकता की उपरोक्त
तीखी आलोचना की तार्किक
परिणति यह नहीं है कि आप भारत
व्याकुलता के मरीज बनकर परंपरा का
अंधाधुंध महिमामण्डन करने लगें । पक्ष
और प्रतिपक्ष के रूप में परंपरा और
आधुनिकता को नहीं, बल्कि प्रगति और
जडता, मुक्ति और बंधन को देखना
चाहिए ।
तभी समाज में वह आलोचनात्मक विवेक
उत्पन्न होगा, जो हमारे व्यक्तिगत और
समाजगत कार्यकर्ताओं की नैतिक
कसौटी का काम कर सके । इस पृष्ठभूमि
के साथ हम यह कडवी सच्चाई याद करे
कि पारंपरिक हो या आधुनिक, संसार
की सभी सभ्यताएं स्त्री की दृष्टि से
ओछी प्रतीत होती हैं और पाखडी भी ।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ के दावेदार हों या
स्त्री को गुलामी से आजाद कर शरीके
हयात बनाने के दावेदार अपनी आत्मा में
झाक कर देखें तो समझ जाएंगे कि स्त्री
को ‘देवी’ बनाने के सभी प्रोजेक्ट असल
में उसे व्यक्तित्व से वंचित करने के
प्रोजेक्ट हैं ।
स्त्री की आत्म सजगता का आरंभ ही
इस देवी मार्का छल से मुक्त होकर
व्यक्तित्व तलाशने की बेचैनी से होता है
। किसी आत्म सजगता की कोशिशों
की रेखाएं आधुनिक सभ्यता में तो हैं ही,
पारंपरिक सभ्यताओं में भी हैं ।
ऐसी कोशिशों की तार्किक परिणति
होनी चाहिए, सामाजिक-
राजनीतिक सत्तातंत्र में स्त्री
व्यक्तित्व की बराबर की हैसियत एक
सहज, स्वाभाविक अधिकार के रूप में
किसी की कृपा के रूप में नहीं ।
आजादी के आंदोलन को जब गांधीजी
ने मध्यवर्ग के चंगुल से मुक्त कराके आम
जनता का आदोलन बनाया तो उन्होंने
उसमें स्त्रियों की हिस्सेदारी को भी
प्रतीकात्मक की बजाय वास्तविक
बनाने पर खास ध्यान दिया ।
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से लेकर
सिविल नाफरमानी तक के कार्यक्रमों
मे स्त्रियो की सक्रिय हिस्सेदारी
गांधीजी की नेतृत्व क्षमता और
दूरदर्शिता के साथ उनकी गहरी
सामाजिक अतर्दृष्टि को भी
प्रमाणित करती है । इस तरह की
हिस्सेदारी ने न केवल स्त्रियो के
व्यक्तित्व के सघर्ष को धार दी, बल्कि
स्वाधीनता आदोलन को राजनीतिक
क्षेत्र से बाहर ? लाकर सामाजिक,
सांस्कृतिक चुनौतियों से भी जोड
दिया ।
इस स्थिति का अपेक्षित नैतिक प्रभाव
होना तो यह चाहिए था कि बिना
किसी बाध्यकारी व्यवस्था के
स्त्रियों और समाज के दूसरे उत्पीडित
तबकों को उनकी वाजिव हैसियत
हासिल हो जाती । लेकिन चीजें अगर
सिर्फ नैतिक बल और हृदय परिवर्तन से
ही संभव होतीं तो राज्यसत्ता की,
किसी भी तरह के अनुशासन की या
आदोलन की जरूरत ही क्या थी ?
स्वयं गांधीजी की ही एक हिन्दू
राष्ट्रवादी द्वारा हत्या की जरूरत
क्या थी’ नैतिक प्रभाव को
व्यावहारिक बनाने के लिए भी शक्ति
जरूरी है और नैतिक प्रभाव को रोकने के
लिए भी कुछ लोग शक्ति का सहारा
लेते हैं-जैसे गोडसे ने लिया । इसीलिए
स्त्री के सबलीकरण और लैंगिक न्याय
की प्रक्रियाएं केवल सदाशयता के
भरोसे नहीं छोड़ी जा सकतीं ।
विद्यमान आधुनिक भारतीय समाज में
स्थितियों एवं परिस्थितियाँ
परिवर्तित हो चुकी हैं । प्राचीन से
मध्यकाल तक यद्यपि भारतीय नारी ने
समाज को सुदृढता प्रदान की किन्तु
फिर भी उस समय वह शोषण एव
अत्याचारों से मुक्त नहीं हुई थी । शायद
उसकी नियति ही यही है ।
आज हम नारी जागृति, नारी सम्मान
की बात करते हें । बडे अधिकारी,
नेतागण, अन्य सभी बुद्धिजीवी लोग
सभाओं, गोष्ठियों एवं मैचों पर नारी के
समान अधिकार, महिला उत्पीडन के
मुद्दों पर लच्छेदार भाषण झाडते हैं,
लेकिन इस पुरुष प्रधान समाज का नारी
के प्रति वास्तविक नजरिया कुछ और
ही होता है ।
हमारे देश में जहां महिला प्रधानमंत्री
रह चुकी हों, जहा की लड्कियां माउंट
एवरेस्ट पर विजय पा चुकी हो, वहां
महिला और पुरुष के बीच का
विरोधाभास और भी निंदनीय है । इस
देश में हमेशा स्त्री को मां, बहन या फिर
बेटी के रूप में देखा गया है, फिर भी
इतिहास गवाह हे कि पारम्परिक और
सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्रियों की
हमेशा उपेक्षा की गयी है ।
मानव समाज की सबसे पुरानी और सबसे
व्यापक गलतियों में से एक मुख्य गलती
यह है कि आज तक भारतीय नारी के
साथ समानता व न्याय का व्यवहार
नहीं हुआ है । भारतीय संविधान
निर्माताओ ने संविधान के विभिन्न
प्रावधानों के माध्यम से यह सुनिश्चित
करने का निश्चय किया कि सभी को
सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक
न्याय प्राप्त हो सके, ताकि प्रत्येक
भारतवासी को स्वतंत्रता के साथ-
साथ अवसर की समानता का आनन्द
भी मिल सके ।
इसलिए भारत के संविधान की
उद्देशिका, मूल अधिकारी तथा राज्य
के नीति निर्देशक तत्वो में ऐसे
प्रावधान किए गये जिसमें महिलाओं,
अल्पसख्यको और समाज के निर्बल वर्गों
को आगे आने का अवसर मिल सके, ताकि
वे भी देश की मुख्यधारा से जुड़ सकें ।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं
ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया तथा अनेक
यातनाएं एवं अत्याचार सहे थे । इसलिएं
संविधान निर्माताओं ने यह जरूरी
समझा कि राष्ट्र को मजबूत, संगठित
एवं प्रगतिशील बनाने के लिए
महिलाओ, युवतियों एवं बच्चों की
सुरक्षा, संरक्षण एवं उन्नति के लिए
विशेष व्यवस्था की जाए, ताकि उनका
पिछड़ापन समाप्त हो सके ।
सौभाग्यवश, राजनीतिक क्षेत्र में एक
व्यक्ति एक वोट के आधार पर समाज के
प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी जाति,
संप्रदाय, लिग अथवा धर्म से संबंधित
हो, को समानता का अवसर प्रदान
किया गया है । प्रजातत्र एवं गणतंत्र में
सरकार अथवा शासक बदलने में
वास्तविक शासक अर्थात् मतदाता का
कितना महत्व है यह समय-समय पर सरकारें
बदलकर प्रस्तुत किया गया है ।
महिलाओं को मताधिकार एवं सरकार में
भागीदारी का अधिकार अनेक देशों
विशेषकार इस्लामिक देशों की
महिलाओं से पहले प्राप्त ध्या । केवल
सामाजिक समानता के क्षेत्र में
महिलाओ और बालिकाओं को
आवश्यक, पर्याप्त एवं प्रभावी
समानता प्राप्त नहीं हो सकी है ।
दूसरी ओर महिलाओं के विरुद्ध
अत्युाचार एवं अपराधों में निरंतर वृद्धि
हो रही है, जोकि चिंता का विषय है ।
यह स्थिति तब और शोचनीय हो जाती
है जब संविधान के भाग तीन में
उल्लिखित मूल अधिकारों में यह स्पष्ट
व्यवस्था है कि समानता के अधिकार के
अंतर्गत भारतवर्ष में किसी व्यक्ति को
विधि के समक्ष संरक्षण से वंचित नहीं
करेगा ।
(अनुच्छेद- 14) तथा राज्य किसी
भारतीय नागरिक के विरुद्ध केवल लिंग
के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा
(अनुच्छेद- 15) । इसी अनुच्छेद के भाग 3 में
यह भी स्पष्ट किया गया है कि इस
अनुच्छेद की कोई बात राज्य को
स्त्रियो और बालकों के लिए कोई
विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी ।
आज जरूरत है नारी को समय की
मुख्यधारा से जोडने की । आज भी
नारी ममतामयी है त्यागमयी है । नारी
त्याग और साधना के बलबूते पर समाज के
प्रत्येक पहलू से जुड़ी है । वह पढी-लिखी
है । आत्मनिर्भर है, अपने अधिकारी एवं
कर्तव्यों के प्रति सचेत है, संघर्षरत है ।
यद्यपि नारी शिक्षा से आज
कामकाजी महिलाओं की संख्या मे
वृद्धि हुई है । हमारे समाज में उसकी
निःस्वार्थ सेवा हर क्षेत्र में है ।
तथापि वह नौकरी पेशा न होकर गृहणी
होते हुये भी घरेलू दायित्वों का
निर्वाह निष्ठापूर्वक करती है । किन्तु
फिर भी उन्हें अनेक समस्याओं का
सामना करना पड़ता है । कामकाजी
महिलाएँ तो दोहरे स्तर पर पारिवारिक
और सामाजिक शोषण की शिकार हैं ।
जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे
भारतीय नारी के भी कदम आगे बढ़ रहे हैं
। आज वह ‘देवी’ नहीं बनना चाहतीं, वह
सही और सच्चे अर्थों में अच्छा इंसान
बनना चाहती है । नैतिक मूल्यों और
मानवीय मूल्यों को नकारा नहीं जा
सकता । हमारे पारम्परिक चरित्र नैतिक
मूल्यों की धरोहर हैं ।
पौराणिक चरित्रों के आदर्श हमारी
जड़ें है । आज के संदर्भ में उपयुक्त लगने
वाले उनके गुणों को तथा शाश्वत
आदर्शो को हमें अपनाना चाहिए । आज
की जुझारू महिला का व्यक्तित्व
उसकी कार्यक्षमता में झलकता है और
आज की संघर्षशील नारी को एक नहीं
कई अग्निपरीक्षाएं देनी पडती हैं ।
सारी दुनिया में आज महिला दिवस
मनाये जा रहे हैं ।
संसद में उनके हितों की रक्षा हेतु 33
प्रतिशत आरक्षण की मांग की जा रही
है । इससे आधी दुनिया कही जाने वाली
महिलाओं की दशा में कोई परिवर्तन
आएगा, इसकी तो कोई संभावना नहीं
है मगर लोगों का ध्यान कुछ देर के लिए
इस ओर अवश्य जाएगा क्योंकि इस
अवसर पर पत्र- पत्रिकाओं में महिलाओं
की समस्याओं से सम्बन्धित कुछ लेख भी
छपेंगे और कुछ गोष्ठियों आदि के
आयोजन भी होंगे ।
अब समय आ गया है कि महिलाओं को
अधिकार देने तथा उन्हें लैंगिग भेदभाव से
मुक्ति दिलाने के मार्ग मे आने वाली
बाधाओं तथा अन्य खामियों पर भी
विचार किया जाए । इस बात को
समझा जाना चाहिए कि केवल साधनों
की उपलब्धि तथा महिलाओं की उन
तक पहुंच से ही वांछित लक्ष्यो की
प्राप्ति नहीं हो पाएगी बल्कि इस
सबके लिए जरूरी है कि लोगों की सोच
में एक व्यापक परिवर्तन लाया जाए ।
विशेषकर पुरुषो की सोच में परिवर्तन
की व्यापक रूप से आवश्यकता है । सोच में
यह परिवर्तन केवल सरकारी योजनाओं
तथा कानूनों से ही संभव नहीं हो
सकता है । इस मामलें में तो जनता की
व्यापक सहभागिता आवश्यक है । लोगों
में जन जागरूकता आवश्यक है ।
पुरुषों को भी इस बात के लिए मनाना
होगा कि वे अपने कुछ विशेषाधिकारों
को त्यागें जिससे महिलाओं को लाभ
प्राप्त हो सके । इस प्रक्रिया में गैर
सरकारी संगठनों को भी बड़े पैमाने पर
शामिल करना होगा । महिलाओ के
अधिकारो तथा उनकी स्थिति में
सुधार लाने के लिए संघर्ष मेंउ केवल
महिलाओं को ही लडाई नहीं लडनी है
बल्कि पुरुषों को भी इसमें अपना
योगदान करना होगा ।
विशेषज्ञों ने इस बात को पाया है कि
महिलाओं की पराश्रयता, उनका
शोषण तथा समाज की गतिविधियों में
उनकी सीमित सहभागिता का कारण
महिलाओं की अपनी अक्षमता अथवा
इस क्षेत्र में आगे न बढने देने का पुरुषों का
षडयंत्र नहीं है । हमारे देश में लैंगिक
भेदभाव की प्रणाली तथा उसके कारण
सामाजिक आचार-विचार ने ही
महिलाओं के प्रति एक दुराग्रहर्ष्टा
भावनाओ को बढावा दिया है ।
हमारा भारतीय समाज ऐसा है जिसमें
लडके को ही प्राथमिकता दी जाती है
। लडके को ही आगे वंश चलाने वाला
तथा परिवार की विरासत आदि का
उत्तराधिकारी माना जाता है । यह
देखा गया है कि इस प्रकार की
स्थितियों में पुरुषों की अपेक्षा
महिलाओं को दोयम समझा जाता है ।
इसलिए जरूरी है कि अगर हमें स्थितियो
में सुधार करना है तो हमें किसी भी ऐसे
विकास कार्यक्रम में पुरुषो तथा
महिलाओ को समान रूप से शामिल
करना होगा हमे काफी कुछ बदलाव
लाना होगा । उदाहरण के लिए हमें उन
कुछ परम्परागत तथा धार्मिक् रीति-
रिवाजी को बदलना होगा जोकि
महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले निचले
स्तर पर रखते हैं । शुरू से ही हम लडकियों
से यह अपेक्षा करते हैं कि वे घर-गृहस्थी
का काम सीखें जबटि लडकों से यह
अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार के
लिए रोजी-रोटी कमाने का हुनर सीखें

इसके परिणाम यह होता है कि जब कभी
लडकियों के ऊपर परिवार के भरण-पोषण
के लिए आजीविक् कमाने की
जिम्मेदारी आती है तो वह कामकाज
के लिए अपने आपको प्रशिक्षित नहीं
पाती है या पर्याप्त कौशल पाने मे
सक्षम नहीं होती हैं । इसका परिणाम
यह होता है कि रोजगार के क्षेत्रों में
शोषण का शिकार होती हैं ।
इसके अतिरिक्त हमारे समाज की अपनी
कुछ रीतियां हैं, जोकि महिलाओं के
प्रति भेदभाव को बढ़ाती हैं । इनमें दहेज
प्रथा, लड़के के जन्म पर समारोह तथा
लड़की के जन्म पर अप्रसन्नता व्यक्त
करना, पुरुष द्वारा ही सामाजिक एवं
धार्मिक कृत्य करना, पर्दा प्रथा,
गर्भस्थ शिशुओं का लिंग परीक्षण तथा
बालिका भूणों का गर्भपात, लडके के
लिए इलाज तथा अन्य उपचार आदि
नैतिकता व चरित्र के बारे मे महिलाओं
और पुरुषों के प्रति दोहरे मानदण्ड,
लड़कियों और महिलाओं के लिए अनेक
सामाजिक वर्जनाएं तथा पुरुषों के लिए
स्वच्छंदता आदि शामिल है ।
इसके अलावा महिलाओ से कई अन्य
क्षेत्रों मे भी भेदभाव होता है, भले ही
कानून इस प्रकार के भेदभाव को वर्जित
करता है । रोजगार व सम्पत्ति के
अधिकार में इस प्रकार का भेदभाव
स्पष्ट दिखाई देता है । जहां तक पैतृक
सम्पत्ति का मामला है पुरुष ही वहां
सम्पत्ति का वारिस व नियंत्रणकर्ता
होता है । इसी प्रकार रोजगार के क्षेत्र
में महिलाओं को समान अवसर दिए जाने
की बात कही जाती है लेकिन
वास्तविकता यह है कि वहां भी उनसे
भेदभाव होता है । ऐसे भी कई अवसर आते
हैं जबकि उनका कई तरीकों से शोषण
होता है ।
महिलाओं के हित में विधेयक लाना
तथा सरकार द्वारा उनके विकास के
लिए विभिन्न परियोजनाएं बनाने के
लिए प्रयास उचित हैं, लेकिन जिस बात
की सर्वाधिक आवश्यकता है वह यह है
कि इसे एक सामाजिक आदोलन बनाया
जाए । निःसंदेह सरकार इस बारे में एक
जागरूकता तो उत्पन्न कर सकती है
लेकिन इसके प्रति गतिशीलता की
भावना तो जनता के मध्य से ही उठनी
चाहिए ।
लेकिन इस बारे में दुख की बात यह है कि
कुछ नहीं हो रहा है । विडम्बना यह है
कि महिलाओं की स्थिति में सुधार के
लिए अतीत में जिस प्रकार के समाज
सुधार आदोलन हुए थे वैसे दोलन आज नहीं
हो रहे हे । सरकारी कार्यक्रम अभी तक
जनता को इस प्रकार के अभियानों में
प्रेरित करके नई पहल कराने में विफल रहें हैं
। समाज आप के प्रति निष्ठावान,
उत्साही लोगों व संगठनो को इस
दिशा में आगे बढ़ना होगा ।

समाज मे महिलायें और तथ्य

जहाँ नारियों की पूजा होती ह वहाँ भगवान निवास करते है ! लेकिन ये सब उल्टा होता जा रहा है ! समाज मे नारियों की स्थिती दिन प्रतिदिन नाजुक होती जा रही है !
www.mandusiya.blogspot.comप्राचीन काल से आधुनिक काल यानि वर्तमान
समय तक भारत में स्त्रियों की स्थिति
परिवर्तनशील रही है| हमारा समाज प्राचीन काल
से आज तक पुरुष प्रधान ही रहा है | ऐसा नहीं है कि
स्त्रियों का शोषण सिर्फ पुरुष वर्ग ने ही किया,
पुरुष से ज्यादा तो एक स्त्री ने दूसरी स्त्री पर या
स्त्री ने खुद अपने ऊपर अत्याचार किया है| पुरुष की
उदंडता, उच्छृंखलता और अहम् के कारण या स्त्री की
अशिक्षा, विनम्रता और स्त्री सुलभ उदारता के
कारण उसे प्रताड़ित, अपमानित और उपेक्षित होना
पड़ा| पहले हम इतिहास में भारतीय स्त्रियों की
स्थिति पे नजर डाल लें फिर वर्तमान स्थिति का
आंकलन करेंगे| रायबर्न के अनुसार- “स्त्रियों ने ही
प्रथम सभ्यता की नींव डाली है और उन्होंने ही
जंगलों में मारे-मारे भटकते हुए पुरुषों को हाथ पकड़कर
अपने स्तर का जीवन प्रदान किया तथा घर में
बसाया|” भारत में सैद्धान्तिक रूप से स्त्रियों को
उच्च दर्जा दिया गया है, हिन्दू आदर्श के अनुसार
स्त्रियाँ अर्धांगिनी कही गयीं हैं| मातृत्व का आदर
भारतीय समाज की विशेषता है| संसार की ईश्वरीय
शक्ति दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती आदि नारी
शक्ति, धन, ज्ञान का प्रतीक मानी गयी हैं तभी
तो अपने देश को हम भारत माता कहकर अपनी
श्रद्धा प्रकट करते हैं| विभिन्न युगों में स्त्रियों की
स्थिति - वैदिक युग- वैदिक युग सभ्यता और संस्कृति
की दृष्टि से स्त्रियों की चरमोन्नती का काल था,
उसकी प्रतिभा, तपस्या और विद्वता सभी
विकासोन्मुख होने के साथ ही पुरुषों को परास्त
करने वाली थी| उस समय स्त्रियों की स्थिति उनके
आत्मविश्वास, शिक्षा, संपत्ति आदि के सम्बन्ध में
पुरुषों के समान थी| यज्ञों में भी उसे सर्वाधिकार
प्राप्त था| वैदिक युग में लड़कियों की गतिशीलता
पर कोई रोक नहीं थी और न ही मेल मिलाप पर| उस
युग में मैत्रेयी, गार्गी और अनुसूया नामक विदुषी
स्त्रियाँ शास्त्रार्थ में पारंगत थीं| ‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ उक्ति वैदिक काल के लिए
सत्य उक्ति थी| महाभारत के कथनानुसार वह घर घर
नहीं जिस घर में सुसंस्कृत, सुशिक्षित पत्नी न हो|
गृहिणी विहीन घर जंगल के समान माना जाता था
और उसे पति की तरह ही समानाधिकार प्राप्त थे|
वैदिक युग भारतीय समाज का स्वर्ण युग था| उत्तर
वैदिक युग- वैदिक युग में स्त्रियों की जो
स्थिति थी वह इस युग में कायम न रह सकी| उसकी
शक्ति, प्रतिभा व स्वतंत्रता के विकास पर
प्रतिबन्ध लगने लगे| धर्म सूत्र में बाल-विवाह का
निर्देश दिया गया जिससे स्त्रियों की शिक्षा में
बाधा पहुंची और उनकी स्वतंत्रता को तथाकथित
ज्ञानियों ने ऐसा कहकर उनकी शक्ति को सिमित
कर दिया कि- “पिता रक्षति कौमारे, भर्ता
रक्षति यौवने| पुत्रश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री
स्वातंत्रयमर्हति|| वो घर की चारदीवारी में कैद हो
गयीं, पढने-लिखने व वेदों का ज्ञान असंभव हो गया
और उनके लिए धार्मिक संस्कार में भाग लेने की
मनाही हो गयी| बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हो
गया और वैदिक युग की तुलना में उत्तर व दीर्घकाल
में उनकी स्थिति निम्न स्तर की होती गयी| स्मृति
युग- इस युग में स्त्रियों की स्थिति पहले से ज्यादा
बदतर हो गयी, कारण यह था कि बाल-विवाह तथा
बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन और बढ़ गया| इस युग में
विवाह की आयु घटाकर १२-१३ वर्ष कर दी गयी|
विवाह की आयु घटाने से शिक्षा न के बराबर हो
गयी, उनके समस्त अधिकारों का हनन हो गया| उन्हें
जो भी सम्मान इस युग में मिला वह सिर्फ माता के
रूप में न कि पत्नी के रूप में| स्त्रियों का परम कर्तव्य
पति जैसा भी हो उनकी सेवा करना था| विधवा
के पुनर्विवाह पर भी कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया
गया| मध्यकालीन युग- इस युग में मुग़ल साम्राज्य
होने से स्त्रियों की दशा और भी दयनीय हो गयी|
मनीषियों ने हिन्दू धर्म की रक्षा, स्त्रियों के
मातृत्व और रक्त की शुद्धता को बनाये रखने के लिए
स्त्रियों के सम्बन्ध में नियमों को कठोर बना
दिया| ऊँची जाति में शिक्षा समाप्त हो गयी और
पर्दा प्रथा का प्रचलन हो गया| विवाह की आयु
घटकर ८-९ वर्ष हो गयी| विधवाओं का पुनर्विवाह
पूरी तरह समाप्त हो गया और सती-प्रथा चरम
सीमा पर पहुँच गयी| इस युग में केवल स्त्रियों के
संपत्ति के सम्बन्ध में सुधार हुआ उन्हें भी पिता की
संपत्ति में उत्तराधिकार मिलने लगा| आधुनिक युग-
आधुनिक युग में स्त्रियों की दयनीय स्थिति समाज
सुधारकों तथा साहित्यकारों ने ध्यान दिया और
उनकी दशा सुधारने के प्रयास किये| जहाँ कवि
मैथिलीशरण गुप्त ने स्त्रियों की दशा की तरफ
समाज का ध्यान आकर्षित करने के लिए मर्मस्पर्शी
पंक्तियाँ लिखी कि- अबला जीवन हाय तेरी यही
कहानी| आँचल में है दूध और आँखों में पानी|| वहीँ
कवि जय शंकर प्रसाद ने स्त्रियों की महत्ता का
बोध समाज को अपनी इन पंक्तियों से कराया-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग, पग
तल में| पियूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर
समतल में|| साहित्यकारों ने स्त्री की ममता,
वात्सल्य, राष्ट्र के निर्माण में योगदान देने वाले
गुणों के महत्व को समाज को समझाया और उनकी
महत्ता के प्रति जागरूक किया| अनेक समाज
सुधारकों ने उनकी दशा सुधारने के लिए सकारात्मक
प्रयास किया| स्वामी दयानंद ने स्त्री-शिक्षा पर
बल दिया, बाल-विवाह के विरूद्ध आवाज उठाई|
राजा राम मोहन राय ने सती-प्रथा बंद कराने के
लिए संघर्ष किया| परिणामस्वरूप सन १९२९ में बाल
विवाह निरोधक अधिनियम द्वारा बाल विवाह
का कानूनी रूप से अंत कर दिया गया, अब कोई भी
माता-पिता लड़की का विवाह १८ वर्ष की आयु से
पहले नहीं कर सकता| १९६१ के दहेज़ विरोधी
अधिनियम द्वारा दहेज़ लेना व देना अपराध घोषित
कर दिया गया मगर व्यावहारिक रूप से कोई विशेष
सुधार नहीं हो पाया| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
स्त्री की स्थिति- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्त्री
की दशा में बदलाव आया| भारतीय संविधान के
अनुसार उसे पुरुष के समकक्ष अधिकार प्राप्त हुए|
स्त्री शिक्षा पर बल देने के लिए स्त्रियों के लिए
निःशुल्क शिक्षा एवं छात्रवृति की व्यवस्था हुई|
परिणामतः जल, थल व वायु कोई भी क्षेत्र स्त्री से
अछूता नहीं रहा| १९९५ के विशेष विवाह अधिनियम
ने स्त्रियों को धार्मिक व अन्य सभी प्रकार के
प्रतिबंधों से मुक्त होकर विवाह करने का अधिकार
दिया, अब बहुपत्नी विवाह गैर कानूनी माना गया|
स्त्रियों को भी विवाह विच्छेद का पूरा
अधिकार मिला और विधवा विवाह भी कानूनी
रूप से मान्य हुआ| पत्नी पति की दासी नहीं मित्र
मानी जाने लगी| उपर्युक्त सारी बातें इतिहास की
किताबों या बीते समय की बातें हैं और वर्तमान
समय में कितनी सही है और कितनी गलत ये इस बात
पर निर्भर है कि हम व्यवहारिक रूप से स्त्रियों के
अधिकारों और सम्मान की रक्षा की महत्ता को
समझें| सिर्फ क़ानून की किताबों और कानून के
रक्षक के हाथों की कठपुतली ही न बनकर रह जाएँ|
वर्तमान युग- वर्तमान युग या आज के समय की बात
करें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि स्त्रियों की
स्थिति पहले से अच्छी है, लगभग सभी देशों में स्त्री
ने पुनः अपनी शक्ति का लोहा मनवाया है| हम कह
सकते हैं कि आज का युग स्त्री-जागरण का युग है|
भारत के सर्वोच्च पद [राष्ट्रपति] को भी स्त्री ने
सुशोभित किया| ज्ञान, विज्ञानं, चिकित्सा,
शासन कार्य और यहाँ तक कि सैनिक बनकर देश की
रक्षा के लिए मोर्चों पर जाने का भी साहस करने
लगी है| स्त्री अपराजिता है और उसकी जीत में
पुरुषों का योगदान ठीक वैसे ही है जैसे एक पुरुष की
जीत में स्त्री का हाथ होता है| उसकी
स्थिति को सशक्त बनाने में पिता, भाई, पति और
पुत्र का हर कदम पर साथ मिला| स्त्रियों को
कानून का भी साथ मिला है मगर अभी भी पूरे देश
में स्त्रियों में वो जागरूकता नहीं आई है कि वो
कानून से मिले अधिकारों से अपने साथ हो रहे
अत्याचार, अन्याय और प्रताड़ना के खिलाफ
आवाज उठाये| ज्यादातर स्त्रियाँ अपने परिवार
और समाज के खिलाफ कदम उठाने का साहस ही
नहीं जुटा पातीं| आज भी स्त्रियों का एक बड़ा
वर्ग अपने कानूनी अधिकारों से भी अनभिज्ञ है
और जो वर्ग आवाज उठाने की हिम्मत करता है उन्हें
भी बहरे और अंधे कानून से उचित न्याय नहीं मिल
पाता| सबसे बड़ा सवाल उसके आत्मसम्मान की
सुरक्षा का है, आज भी स्त्री हर जगह असुरक्षित है|
जिस पुरुष ने अपनी माँ, बहन, बेटी और पत्नी को
आत्मनिर्भर बनने में साथ दिया क्या वो उसे समाज
में सम्मान से जीने का भरोसा दे पाया? सुबह घर से
काम पर निकलने वाली स्त्रियाँ शाम को सुरक्षित
घर कैसे लौटें, सबको ये डर सताता रहता है| क्या
कानून, पुलिस और हमारा समाज अपनी जिम्मेदारी
निभा पाया? क्या ऐसे समाज को हम अच्छा कहेंगे
जहाँ स्त्री को अपनी इज्जत की भीख मंगनी पड़े?
क्या रिश्तेदारों का साथ होना सुरक्षा की
गारंटी दे सकता है? क्या पुरुष पश्चमी सभ्यता नहीं
अपनाते? क्या आजादी सिर्फ पुरुषों को मिली है?
क्या स्वतन्त्र भारत में भी स्त्रियाँ परतंत्र बनी रहें?
सच तो ये है कि वर्तमान समय में स्त्रियों के
आत्मविश्वास और आत्मबल को हमारे समाज ने
तोडा है, हमारा शिक्षित समाज आज भी
स्त्रियों को सम्मान देने के सम्बन्ध में अशिक्षित
ही रह गया है| ये कहते हुए और भी दुःख होता है कि
स्त्री स्वयं भी इस स्तिथि के लिए दोषी हैं? वो
अपनी ही संतान से लिंग के आधार पर शुरू से ही भेद-
भाव करती आई हैं| बेटे और बेटी को एक जैसा
संस्कार नहीं दे पाई| अधिकतर स्त्रियों ने बेटों को
प्यार और आजादी ज्यादा दी उसी का परिणाम है
आज के समाज में स्त्रियों के लिए असुरक्षित
वातावरण| हमेशा से यही माना गया है कि
स्त्रियाँ शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर हैं पर मेरा
मन ये नहीं मानता जो स्त्री सृजन की शक्ति रखती
है वो कमजोर कैसे हो सकती है ज्यादातर हादसे का
शिकार होने की वजह उनका डर और दहशत से
कमजोर पड़ जाना ही होता है| एक छोटा बच्चा
भी अगर अपनी पूरी शक्ति लगाकर हाथ पैर मारता
है या शरीर कड़ा कर लेता है [जब बच्चा किसी बात
के लिए जिद करता है] तो किसी के लिए भी उसे
काबू में करना बहुत मुश्किल होता है| जब अकेली
लड़की और स्त्री के साथ अकेले दुष्कर्म करना आसान
नहीं रहा तब धोखे से उनके साथ दुष्कर्म होने लगे
किसी सॉफ्ट ड्रिंक में नशे की गोली डालकर या
फिर एक साथ कई दरिन्दे मिल कर दुराचार को
अंजाम देने लगे| आज सबसे जरुरी है कि हमारा समाज
अपनी सोंच को बदले जहाँ कानून सिर्फ पन्नों में धरे
रह जाते हैं या तो समय पर साथ नहीं देते, उचित
न्याय नहीं देते या समय पर न्याय नहीं देते तो हम
अपने आप का भरोसा करें स्वयं न्याय करें| अगर स्वयं
के घर में भी अपराधी या दुराचारी है तो उसे बचाएं
या छुपायें नहीं बल्कि कानून के हवाले करें| अपने
पास-पड़ोस और समाज में किसी को भी न्याय की
जरुरत हो अन्याय के विरुद्ध खड़े हो न्याय का साथ
दें| अपराधी को पनाह नहीं मिलेगी, उसे सजा
मिलेगी तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा
होगी| सजा भी सरेआम दिया जाये जिससे कोई
भी जुर्म करने की जुर्रत न करे| अपने घर के बेटे और
बेटियों को सही शिक्षा और संस्कार दें विशेष तौर
पर बेटों को स्त्रियों का सम्मान करना सिखाएं
उन्हें कभी भी ऐसी कोई शिक्षा न दे कि वह बेटा
है तो जैसे चाहे जी सकता है| बेटा और बेटी दोनों
को स्वतंत्रता और स्वछंदता का अंतर अच्छी तरह
समझाएं| उन्हें प्यार दें पर अनुशासन में भी रखें रिश्तों
की गरिमा के साथ ही उनसे ऐसा सबंध रखें कि वो
अपनी हर छोटी-बड़ी बात साझा करे| उचित
शिक्षा, प्यार और विश्वास की कमी ही किसी
को गलत राह पर ले जाती है| बेशक कानूनी दृष्टि से
स्त्रियों को पूर्ण समानता मिल चुकी है लेकिन
सिद्धांत और वास्तविकता में अभी भी बहुत अंतर है|
भारत के ग्रामीण स्त्रियों की स्थिति अभी भी
अच्छी नहीं कही जा सकती और वहीँ शहरों में की
कुछ स्त्रियाँ स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंद हो गई हैं|
सफलता का मार्ग अपने देश की सभ्यता और संस्कृति
की भेंट चढ़ा कर या पश्चमी सभ्यता का
अन्धानुकरण करके पाना किसी के भी हित में नहीं
न उनके स्वयं के और न आम स्त्रियों के बल्कि ऐसा
करके वो आम स्त्रियों की स्थिति को बदतर बना
रहीं हैं| अपने देश की मार्यादाओं को ध्यान में
रखकर प्रगतिशील होना ही हितकर है|
समाजशास्त्री अफलातून ने कहा है कि- “समाज में
नारी का स्थान व महत्व क्या है वही जो पुरुष का
है न कम और न अधिक| स्त्री और पुरुष दोनों एक रथ
के पहियों के सामान हैं यदि एक कमजोर या
घटिया हुआ तो समाज का रथ निर्विकार रूप से
आगे नहीं बढ़ सकता है| ये दोनों नभ में उड़ने वाले
पक्षी के दो डैनों के समान हैं यदि एक डैना छोटा
या अशक्त रहा तो पक्षी नभ में विचरण नहीं कर
सकता|- और सुधारानावाफड्डाप्राचीन काल से आधुनिक काल यानि वर्तमान
समय तक भारत में स्त्रियों की स्थिति
परिवर्तनशील रही है| हमारा समाज प्राचीन काल
से आज तक पुरुष प्रधान ही रहा है | ऐसा नहीं है कि
स्त्रियों का शोषण सिर्फ पुरुष वर्ग ने ही किया,
पुरुष से ज्यादा तो एक स्त्री ने दूसरी स्त्री पर या
स्त्री ने खुद अपने ऊपर अत्याचार किया है| पुरुष की
उदंडता, उच्छृंखलता और अहम् के कारण या स्त्री की
अशिक्षा, विनम्रता और स्त्री सुलभ उदारता के
कारण उसे प्रताड़ित, अपमानित और उपेक्षित होना
पड़ा| पहले हम इतिहास में भारतीय स्त्रियों की
स्थिति पे नजर डाल लें फिर वर्तमान स्थिति का
आंकलन करेंगे| रायबर्न के अनुसार- “स्त्रियों ने ही
प्रथम सभ्यता की नींव डाली है और उन्होंने ही
जंगलों में मारे-मारे भटकते हुए पुरुषों को हाथ पकड़कर
अपने स्तर का जीवन प्रदान किया तथा घर में
बसाया|” भारत में सैद्धान्तिक रूप से स्त्रियों को
उच्च दर्जा दिया गया है, हिन्दू आदर्श के अनुसार
स्त्रियाँ अर्धांगिनी कही गयीं हैं| मातृत्व का आदर
भारतीय समाज की विशेषता है| संसार की ईश्वरीय
शक्ति दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती आदि नारी
शक्ति, धन, ज्ञान का प्रतीक मानी गयी हैं तभी
तो अपने देश को हम भारत माता कहकर अपनी
श्रद्धा प्रकट करते हैं| विभिन्न युगों में स्त्रियों की
स्थिति - वैदिक युग- वैदिक युग सभ्यता और संस्कृति
की दृष्टि से स्त्रियों की चरमोन्नती का काल था,
उसकी प्रतिभा, तपस्या और विद्वता सभी
विकासोन्मुख होने के साथ ही पुरुषों को परास्त
करने वाली थी| उस समय स्त्रियों की स्थिति उनके
आत्मविश्वास, शिक्षा, संपत्ति आदि के सम्बन्ध में
पुरुषों के समान थी| यज्ञों में भी उसे सर्वाधिकार
प्राप्त था| वैदिक युग में लड़कियों की गतिशीलता
पर कोई रोक नहीं थी और न ही मेल मिलाप पर| उस
युग में मैत्रेयी, गार्गी और अनुसूया नामक विदुषी
स्त्रियाँ शास्त्रार्थ में पारंगत थीं| ‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ उक्ति वैदिक काल के लिए
सत्य उक्ति थी| महाभारत के कथनानुसार वह घर घर
नहीं जिस घर में सुसंस्कृत, सुशिक्षित पत्नी न हो|
गृहिणी विहीन घर जंगल के समान माना जाता था
और उसे पति की तरह ही समानाधिकार प्राप्त थे|
वैदिक युग भारतीय समाज का स्वर्ण युग था| उत्तर
वैदिक युग- वैदिक युग में स्त्रियों की जो
स्थिति थी वह इस युग में कायम न रह सकी| उसकी
शक्ति, प्रतिभा व स्वतंत्रता के विकास पर
प्रतिबन्ध लगने लगे| धर्म सूत्र में बाल-विवाह का
निर्देश दिया गया जिससे स्त्रियों की शिक्षा में
बाधा पहुंची और उनकी स्वतंत्रता को तथाकथित
ज्ञानियों ने ऐसा कहकर उनकी शक्ति को सिमित
कर दिया कि- “पिता रक्षति कौमारे, भर्ता
रक्षति यौवने| पुत्रश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री
स्वातंत्रयमर्हति|| वो घर की चारदीवारी में कैद हो
गयीं, पढने-लिखने व वेदों का ज्ञान असंभव हो गया
और उनके लिए धार्मिक संस्कार में भाग लेने की
मनाही हो गयी| बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हो
गया और वैदिक युग की तुलना में उत्तर व दीर्घकाल
में उनकी स्थिति निम्न स्तर की होती गयी| स्मृति
युग- इस युग में स्त्रियों की स्थिति पहले से ज्यादा
बदतर हो गयी, कारण यह था कि बाल-विवाह तथा
बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन और बढ़ गया| इस युग में
विवाह की आयु घटाकर १२-१३ वर्ष कर दी गयी|
विवाह की आयु घटाने से शिक्षा न के बराबर हो
गयी, उनके समस्त अधिकारों का हनन हो गया| उन्हें
जो भी सम्मान इस युग में मिला वह सिर्फ माता के
रूप में न कि पत्नी के रूप में| स्त्रियों का परम कर्तव्य
पति जैसा भी हो उनकी सेवा करना था| विधवा
के पुनर्विवाह पर भी कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया
गया| मध्यकालीन युग- इस युग में मुग़ल साम्राज्य
होने से स्त्रियों की दशा और भी दयनीय हो गयी|
मनीषियों ने हिन्दू धर्म की रक्षा, स्त्रियों के
मातृत्व और रक्त की शुद्धता को बनाये रखने के लिए
स्त्रियों के सम्बन्ध में नियमों को कठोर बना
दिया| ऊँची जाति में शिक्षा समाप्त हो गयी और
पर्दा प्रथा का प्रचलन हो गया| विवाह की आयु
घटकर ८-९ वर्ष हो गयी| विधवाओं का पुनर्विवाह
पूरी तरह समाप्त हो गया और सती-प्रथा चरम
सीमा पर पहुँच गयी| इस युग में केवल स्त्रियों के
संपत्ति के सम्बन्ध में सुधार हुआ उन्हें भी पिता की
संपत्ति में उत्तराधिकार मिलने लगा| आधुनिक युग-
आधुनिक युग में स्त्रियों की दयनीय स्थिति समाज
सुधारकों तथा साहित्यकारों ने ध्यान दिया और
उनकी दशा सुधारने के प्रयास किये| जहाँ कवि
मैथिलीशरण गुप्त ने स्त्रियों की दशा की तरफ
समाज का ध्यान आकर्षित करने के लिए मर्मस्पर्शी
पंक्तियाँ लिखी कि- अबला जीवन हाय तेरी यही
कहानी| आँचल में है दूध और आँखों में पानी|| वहीँ
कवि जय शंकर प्रसाद ने स्त्रियों की महत्ता का
बोध समाज को अपनी इन पंक्तियों से कराया-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग, पग
तल में| पियूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर
समतल में|| साहित्यकारों ने स्त्री की ममता,
वात्सल्य, राष्ट्र के निर्माण में योगदान देने वाले
गुणों के महत्व को समाज को समझाया और उनकी
महत्ता के प्रति जागरूक किया| अनेक समाज
सुधारकों ने उनकी दशा सुधारने के लिए सकारात्मक
प्रयास किया| स्वामी दयानंद ने स्त्री-शिक्षा पर
बल दिया, बाल-विवाह के विरूद्ध आवाज उठाई|
राजा राम मोहन राय ने सती-प्रथा बंद कराने के
लिए संघर्ष किया| परिणामस्वरूप सन १९२९ में बाल
विवाह निरोधक अधिनियम द्वारा बाल विवाह
का कानूनी रूप से अंत कर दिया गया, अब कोई भी
माता-पिता लड़की का विवाह १८ वर्ष की आयु से
पहले नहीं कर सकता| १९६१ के दहेज़ विरोधी
अधिनियम द्वारा दहेज़ लेना व देना अपराध घोषित
कर दिया गया मगर व्यावहारिक रूप से कोई विशेष
सुधार नहीं हो पाया| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
स्त्री की स्थिति- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्त्री
की दशा में बदलाव आया| भारतीय संविधान के
अनुसार उसे पुरुष के समकक्ष अधिकार प्राप्त हुए|
स्त्री शिक्षा पर बल देने के लिए स्त्रियों के लिए
निःशुल्क शिक्षा एवं छात्रवृति की व्यवस्था हुई|
परिणामतः जल, थल व वायु कोई भी क्षेत्र स्त्री से
अछूता नहीं रहा| १९९५ के विशेष विवाह अधिनियम
ने स्त्रियों को धार्मिक व अन्य सभी प्रकार के
प्रतिबंधों से मुक्त होकर विवाह करने का अधिकार
दिया, अब बहुपत्नी विवाह गैर कानूनी माना गया|
स्त्रियों को भी विवाह विच्छेद का पूरा
अधिकार मिला और विधवा विवाह भी कानूनी
रूप से मान्य हुआ| पत्नी पति की दासी नहीं मित्र
मानी जाने लगी| उपर्युक्त सारी बातें इतिहास की
किताबों या बीते समय की बातें हैं और वर्तमान
समय में कितनी सही है और कितनी गलत ये इस बात
पर निर्भर है कि हम व्यवहारिक रूप से स्त्रियों के
अधिकारों और सम्मान की रक्षा की महत्ता को
समझें| सिर्फ क़ानून की किताबों और कानून के
रक्षक के हाथों की कठपुतली ही न बनकर रह जाएँ|
वर्तमान युग- वर्तमान युग या आज के समय की बात
करें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि स्त्रियों की
स्थिति पहले से अच्छी है, लगभग सभी देशों में स्त्री
ने पुनः अपनी शक्ति का लोहा मनवाया है| हम कह
सकते हैं कि आज का युग स्त्री-जागरण का युग है|
भारत के सर्वोच्च पद [राष्ट्रपति] को भी स्त्री ने
सुशोभित किया| ज्ञान, विज्ञानं, चिकित्सा,
शासन कार्य और यहाँ तक कि सैनिक बनकर देश की
रक्षा के लिए मोर्चों पर जाने का भी साहस करने
लगी है| स्त्री अपराजिता है और उसकी जीत में
पुरुषों का योगदान ठीक वैसे ही है जैसे एक पुरुष की
जीत में स्त्री का हाथ होता है| उसकी
स्थिति को सशक्त बनाने में पिता, भाई, पति और
पुत्र का हर कदम पर साथ मिला| स्त्रियों को
कानून का भी साथ मिला है मगर अभी भी पूरे देश
में स्त्रियों में वो जागरूकता नहीं आई है कि वो
कानून से मिले अधिकारों से अपने साथ हो रहे
अत्याचार, अन्याय और प्रताड़ना के खिलाफ
आवाज उठाये| ज्यादातर स्त्रियाँ अपने परिवार
और समाज के खिलाफ कदम उठाने का साहस ही
नहीं जुटा पातीं| आज भी स्त्रियों का एक बड़ा
वर्ग अपने कानूनी अधिकारों से भी अनभिज्ञ है
और जो वर्ग आवाज उठाने की हिम्मत करता है उन्हें
भी बहरे और अंधे कानून से उचित न्याय नहीं मिल
पाता| सबसे बड़ा सवाल उसके आत्मसम्मान की
सुरक्षा का है, आज भी स्त्री हर जगह असुरक्षित है|
जिस पुरुष ने अपनी माँ, बहन, बेटी और पत्नी को
आत्मनिर्भर बनने में साथ दिया क्या वो उसे समाज
में सम्मान से जीने का भरोसा दे पाया? सुबह घर से
काम पर निकलने वाली स्त्रियाँ शाम को सुरक्षित
घर कैसे लौटें, सबको ये डर सताता रहता है| क्या
कानून, पुलिस और हमारा समाज अपनी जिम्मेदारी
निभा पाया? क्या ऐसे समाज को हम अच्छा कहेंगे
जहाँ स्त्री को अपनी इज्जत की भीख मंगनी पड़े?
क्या रिश्तेदारों का साथ होना सुरक्षा की
गारंटी दे सकता है? क्या पुरुष पश्चमी सभ्यता नहीं
अपनाते? क्या आजादी सिर्फ पुरुषों को मिली है?
क्या स्वतन्त्र भारत में भी स्त्रियाँ परतंत्र बनी रहें?
सच तो ये है कि वर्तमान समय में स्त्रियों के
आत्मविश्वास और आत्मबल को हमारे समाज ने
तोडा है, हमारा शिक्षित समाज आज भी
स्त्रियों को सम्मान देने के सम्बन्ध में अशिक्षित
ही रह गया है| ये कहते हुए और भी दुःख होता है कि
स्त्री स्वयं भी इस स्तिथि के लिए दोषी हैं? वो
अपनी ही संतान से लिंग के आधार पर शुरू से ही भेद-
भाव करती आई हैं| बेटे और बेटी को एक जैसा
संस्कार नहीं दे पाई| अधिकतर स्त्रियों ने बेटों को
प्यार और आजादी ज्यादा दी उसी का परिणाम है
आज के समाज में स्त्रियों के लिए असुरक्षित
वातावरण| हमेशा से यही माना गया है कि
स्त्रियाँ शारीरिक रूप से पुरुषों से कमजोर हैं पर मेरा
मन ये नहीं मानता जो स्त्री सृजन की शक्ति रखती
है वो कमजोर कैसे हो सकती है ज्यादातर हादसे का
शिकार होने की वजह उनका डर और दहशत से
कमजोर पड़ जाना ही होता है| एक छोटा बच्चा
भी अगर अपनी पूरी शक्ति लगाकर हाथ पैर मारता
है या शरीर कड़ा कर लेता है [जब बच्चा किसी बात
के लिए जिद करता है] तो किसी के लिए भी उसे
काबू में करना बहुत मुश्किल होता है| जब अकेली
लड़की और स्त्री के साथ अकेले दुष्कर्म करना आसान
नहीं रहा तब धोखे से उनके साथ दुष्कर्म होने लगे
किसी सॉफ्ट ड्रिंक में नशे की गोली डालकर या
फिर एक साथ कई दरिन्दे मिल कर दुराचार को
अंजाम देने लगे| आज सबसे जरुरी है कि हमारा समाज
अपनी सोंच को बदले जहाँ कानून सिर्फ पन्नों में धरे
रह जाते हैं या तो समय पर साथ नहीं देते, उचित
न्याय नहीं देते या समय पर न्याय नहीं देते तो हम
अपने आप का भरोसा करें स्वयं न्याय करें| अगर स्वयं
के घर में भी अपराधी या दुराचारी है तो उसे बचाएं
या छुपायें नहीं बल्कि कानून के हवाले करें| अपने
पास-पड़ोस और समाज में किसी को भी न्याय की
जरुरत हो अन्याय के विरुद्ध खड़े हो न्याय का साथ
दें| अपराधी को पनाह नहीं मिलेगी, उसे सजा
मिलेगी तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा
होगी| सजा भी सरेआम दिया जाये जिससे कोई
भी जुर्म करने की जुर्रत न करे| अपने घर के बेटे और
बेटियों को सही शिक्षा और संस्कार दें विशेष तौर
पर बेटों को स्त्रियों का सम्मान करना सिखाएं
उन्हें कभी भी ऐसी कोई शिक्षा न दे कि वह बेटा
है तो जैसे चाहे जी सकता है| बेटा और बेटी दोनों
को स्वतंत्रता और स्वछंदता का अंतर अच्छी तरह
समझाएं| उन्हें प्यार दें पर अनुशासन में भी रखें रिश्तों
की गरिमा के साथ ही उनसे ऐसा सबंध रखें कि वो
अपनी हर छोटी-बड़ी बात साझा करे| उचित
शिक्षा, प्यार और विश्वास की कमी ही किसी
को गलत राह पर ले जाती है| बेशक कानूनी दृष्टि से
स्त्रियों को पूर्ण समानता मिल चुकी है लेकिन
सिद्धांत और वास्तविकता में अभी भी बहुत अंतर है|
भारत के ग्रामीण स्त्रियों की स्थिति अभी भी
अच्छी नहीं कही जा सकती और वहीँ शहरों में की
कुछ स्त्रियाँ स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंद हो गई हैं|
सफलता का मार्ग अपने देश की सभ्यता और संस्कृति
की भेंट चढ़ा कर या पश्चमी सभ्यता का
अन्धानुकरण करके पाना किसी के भी हित में नहीं
न उनके स्वयं के और न आम स्त्रियों के बल्कि ऐसा
करके वो आम स्त्रियों की स्थिति को बदतर बना
रहीं हैं| अपने देश की मार्यादाओं को ध्यान में
रखकर प्रगतिशील होना ही हितकर है|
समाजशास्त्री अफलातून ने कहा है कि- “समाज में
नारी का स्थान व महत्व क्या है वही जो पुरुष का
है न कम और न अधिक| स्त्री और पुरुष दोनों एक रथ
के पहियों के सामान हैं यदि एक कमजोर या
घटिया हुआ तो समाज का रथ निर्विकार रूप से
आगे नहीं बढ़ सकता है| ये दोनों नभ में उड़ने वाले
पक्षी के दो डैनों के समान हैं यदि एक डैना छोटा
या अशक्त रहा तो पक्षी नभ में विचरण नहीं कर
सकता|” - सुरेरा धाम  जय भीमवासी 

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

भारत की आत्मा है हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता :- नवरत्न मन्डुसिया

हिन्दू मुस्लिम एकता पर एक तथ्य है ! क्यों की हमे हिन्दू मुस्लिम एकता को आगे बढ़ना और बढ़ाना है ! मे नवरत्न मन्डुसिया आपको एक एकता का पाठ आपको दिखा रहा हूँ

‘साझा संस्कृति’ का एक प्रमुख तत्व है- ‘हिंदू-
मुस्लिम सद्भाव’ तथा संस्कृति में हिंदू-मुस्लिम
संस्कृतियों का एक-दूसरे में घुल-मिल जाना
और इसी आत्मसातीकरण की दुहरी प्रक्रिया
में भारतीय संस्कृति की आत्मा का निर्माण
हुआ है। ‘साझा संस्कृति’ की अवधारणा का
यह केंद्रीय बिंदु है। ‘साझा संस्कृति’ का
मतलब ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ भर नहीं है बल्कि
इसे बृहत्तर अर्थों में ग्रहण किया जाना
चाहिए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, रहन-सहन,
खान-पान, ललितकलाएं आदि सभी में
‘साझा संस्कृति’ की परंपरा घुली-मिली है।
सांप्रदायिक विचारधारा साझा संस्कृति
का मुखर विरोध करती है, इसके पीछे मूल
मकसद है भारतीय संस्कृति की आत्मा की ही
हत्या कर देना।
भारतीय संस्कृति में से मुस्लिम अवदान या
इस्लाम के अवदान को निकाल देने का मतलब
है देश को सांस्कृतिक रूप से खत्म कर देना।
आधुनिक दौर में फासिज्म ही एक मात्र ऐसी
वियारधारा है जो संस्कृति को खत्म करती
है, बर्बरता को स्थापित करती है। यूरोप में
फासिस्ट विचारधारा को जैसा आधार एवं
अवसर संस्कृति पर प्रत्यक्ष हमला करने का
मिला था, अगर वैसा अवसर हमारे यहां
सांप्रदायिकता को मिल जाए तो वह उसी
भूमिका को अदा करेगी।
बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान मुस्लिम
विरोधी उन्माद को सबने देखा है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सांप्रदायिक
शक्तियों का चुनाव जीतकर सत्तारूढ़ हो
जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हिटलर भी
लोकतंत्र के वोटों से ही आया था। मूल बात
है सांप्रदायिक विचारधारा, यह
विचारधारा फासिज्म का भारतीय प्रतिरूप
है। इसे सांप्रदायिक दंगों, सांप्रदायिक दलों
मात्र में सीमित करके नहीं देखना चाहिए
बल्कि बृहत्तर विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य में
रखकर देखा जाना चाहिए।
सांप्रदायिक विचारधारा ने पिछले कुछ
वर्षों में अपना जनता से सीधे संवाद बनाया
है। जबकि, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा अभी
जनता में पूरी तरह पहुंची नहीं है। साझा
संस्कृति के खंडित हो जाने की जो लोग बात
करते हैं, वे संस्कृति को बहुत सीमित अर्थों में
ग्रहण करते हैं, जबकि साझा संस्कृति हमारी
सांस्कृतिक आत्मा में समा चुकी है। उसे
आसानी से नष्ट करना बेहद मुश्किल है। साझा
संस्कृति पर हमले की बृहत्तर योजना के तहत
ही मुसलमानों को देश से बाहर चले जाने की
बात उठाई गई है। इस्लाम धर्म एवं मुसलमानों
के अवदान को नकारा जा रहा है। अभी इस
अवदान को नकारा जा रहा है। कालांतर में
सांप्रदायिक विचारधारा देश में सत्तारूढ़
होने में सफल हो जाए तो वह उन सभी बहुमूल्य
तत्वों को चुन-चुनकर नष्ट भी करेगी, जिनका
किसी भी रूप में इस्लाम या मुसलमान से कोई
नाता रहा हो। क्या हम साझा संस्कृति में से
उन तत्वों को निकाल सकते हैं जिनके
निर्माण में मुसलमानों एवं इस्लाम धर्म की
निर्णायक एवं आविष्कारक की भूमिका रही
है। उन आविष्कारों को देश की विरासत से
निकालने का मतलब होगा, बर्बरता के युग में
लौटना दूसरी बात यह कि क्या साझा
संस्कृति के तत्व पूरी तरह खंडित हो गए हैं, या
नकारा हो गए हैं?
साझा संस्कृति के अनेक महत्वपूर्ण तत्व आज
भी जिंदा हैं और जब तक सभ्यता रहेगी तब
तक जिंदा रहेंगे। ये तत्व साझा संस्कृति की
धुरी हैं। वे तत्व क्या हैं-
1. सूफी संत परंपरा एवं सूफी साहित्य हमारी
साहित्यिक परंपरा का अभिन्न अंग हैं।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से लेकर मलिक
मुहम्मद जायसी तक सभी सूफी संतों एवं
कवियों की भारतीय संस्कृति में जुडे हैं और वे
घुल-मिल गए हैं। सूफी संतों-कवियों का
प्रेममार्गी साहित्य हमारी साझा संस्कृति
का स्फटिक है।
2. हिंदी साहित्य का पहला कवि अमीर
खुसरो हमारा साहित्यिक पूर्वज है और
साझा संस्कृति का जनक भी। अमीर खुसरो
को बहिष्कृत कर देंगे तो हम साहित्यिक
अनाथ हो जाएंगे ? हिंदी साहित्य के लिए
अमीर खुसरो वैसे ही आवश्यक है जैसे कि मनुष्य
के लिए वायु।
3. साझा संस्कृति में शामिल इस्लाम एवं
मुस्लिम अवदान को खारिज कर देंगे तो हमारे
पास बचेगा क्या? यह सच है कि भारत में
कागज एवं बारूद के आविष्कारक मुसलमान थे,
आज ये दोनों ही वस्तुएं देश की सुरक्षा एवं
ज्ञान के लिए आवश्यक हैं। क्या साझा
संस्कृति की सर्जना से कागज एवं बारूद को
बहिष्कृत किया जा सकता है? क्या आधुनिक
जीवन में यह संभव है?
4. मुसलमानों ने ही मीनाकारी एवं बीदरी
का काम शुरू किया। धातुओं पर कलई करके
चमक लाने के आविष्कारक वही थे। यह कला
ईरान से भारत आई। मुगल राजकुमारों ने ही
कपड़े पर कढ़ाई एवं जरी की असंख्य डिजाइनों
का आविष्कार किया। इत्रों की खोज की।
आज हम सबके जीवन में ये चीजें घुल-मिल गई हैं।
5. साझा संस्कृति के जनक अमीर खुसरो ने ही
कव्वाली, तराना का श्रीगणेश किया था।
जिलुफ, सरपदा, साजगीरी जैसे रागों को
जन्म दिया। अमीर खुसरो ने नायक गोपाल के
साथ मिलकर ही सितार एवं तबला का
आविष्कार किया। क्या सितार और तबला
को बहिष्कृत कर सकते हैं?
6. साझा संस्कृति हिंदू-मुसलमान का
शारीरिक सहमेल एवं एकता का मोर्चा मात्र
नहीं है बल्कि इससे बढ़कर है। वह एक
विचारधारात्मक शक्ति है। हिंदू-मुस्लिम
संस्कृति के सहमिलन के कारण ही अनेक अरबी
एवं फारसी राग भारतीय संस्कृति में घुल-मिल
गए हैं। वे साझा संस्कृति के ही अंग हैं। इनमें कुछ
हैं-जिलुक, नौरोज, जांगुला, इराक, यमन,
हुसैनी, जिला दरबारी, होज, खमाज ये सभी
जनता एवं राजा दोनों में ही लोकप्रिय रहे
हैं। भारतीय संगीत की ध्रुपद परंपरा
मरणोन्मुखथी पर मुगल दरबारों के संरक्षण के
कारण ही बच पाई जिसे कालांतर में तानसेन
ने चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया।
7. जौनपुर के सुल्तान हुसैन ने प्रसिद्ध राग
हुसैनी, कान्हडा और तोड़ी का आविष्कार
किया था। उसके दरबार में हिंदू और मुसलमान
दोनों समुदाय के विद्वान थे जिनमें-नायक
बख्श, बैजू (बावरा), पांडवी, लोहुंग, जुजूं, ढेंढी
और डालू के नाम प्रमुख हैं। अकबर के नवरत्नों में
तानसेन सर्वोपरि था।
8. जहांगीर के दरबार में चतरखा, पार्विजाद,
जहांगीर दाद, खुर्रम दाद, मक्कू, हमजान और
विलास खां (तानसेन का बेटा) प्रमुख थे,
जिनका संगीत की साझा परंपरा बनाने में
बड़ा योगदान है।
9. मोहम्मद शाह रंगीला ने नादिरशाह के
आक्रमण के बावजूद अदारंग, सदारंगा और
शोरी आदि के जरिए संगीत की परंपरा को
सुरक्षित रखा जिसमें सदारंगा ने ख्याल का
आविष्कार किया। हालांकि इसके साथ हुसैन
शाह सरकी को भी जोड़ा जाता है। शोरी
ने पंजाबी टप्पा को दरबारी राग में रूपांतरित
किया। इन सबके अलावा रेख्ता, कौल,
तराना, तख्त गजल, कलबना, मर्सिया और
सोज के भी गायक थे। वजीर खां ख्याली,
फिदा हुसैन सरोदिया, मुहम्मद अली खां
रूबाइया को क्या हम साझा संस्कृति से काट
सकते हैं? इससे भी बड़ी बात यह कि क्या
संस्कृति में संगीत आता है या नहीं? यदि हां
तो फिर संगीत परंपरा की उपेक्षा क्यों?
क्या यह हमारे संकीर्ण नजरिए का द्योतक
नहीं हैं?
10. मुस्लिम संगीतकारों ने कुछ प्रमुख वाद्य
यंत्रों का भी आविष्कार किया था। जिनमें
कुछ हैं-सारंगी, दिलरूबा, तौस, सितार, रूबाब,
सुरबीन, सुर सिंगार, तबला और अलगोजा।
मुसलमानों की मदद से ही शहनाई, उन्स (रोशन
चौकी) और नौबत (नगाड़ा) का आविष्कार
हुआ था। तारों को झंकृत करने वाली
मिजराब, मुस्लिम खोज का ही परिणाम है।
क्या संगीत की इतनी लंबी परंपरा एवं अवदान
को भारतीय संस्कृति और साझा संस्कृति से
निकालकर हम अपने समाज को बर्बरता के युग
में नहीं ले जाएंगे? संगीत हमारी साझा
संस्कृति का बहुमूल्य रत्न है, वह हमारे दिलों
को जोड़ता है हमें और ज्यादा मानवीय
बनाता है। संगीत की परंपरा में हिंदू मुसलमान
का और मुसलमान हिंदू का शिष्य बनता रहा
है और दोनों अपने गुरू को देवता की तरह
मान्यता देते रहे हैं।
11. ‘साझा संस्कृति’ का यह दायरा संगीत
तक ही नहीं है बल्कि चित्रकला एवं स्थापत्य
इसके प्रमुख रूप हैं। सांप्रदायिक विचारधारा
ने बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में साझा
संस्कृति की धरोहर ऐतिहासिक पुरातात्विक
निधि को ही अपना निशाना बनाया है और
इसी तरह की 3,000 मस्जिदें हैं जिनको
गिराकर वे मंदिर बनाना चाहते हैं। यूरोप में
फासिज्म ने सत्ता पर काबिज होने के बाद
संस्कृति को नष्ट किया था। सांप्रदायिक
शक्तियां जनता के नाम पर नीचे से दबाव
डालकर ऐसा कर रही हैं। यह अचानक नहीं है
कि वे मुगलकालीन स्थापत्य को नष्ट करना
चाहती हैं बल्कि यह सोची-समझी योजना
का हिस्सा है। इस बार स्थापत्य है, अगली
बार समूची संस्कृति होगी। अत: इस रणनीति
को विफल करना साझा संस्कृति के पक्षधरों
की सबसे बड़ी जरूरत है।
12. साझा संस्कृति के एक अन्य तत्व
चित्रकला को हम लोग अभी भी भूले नहीं है।
चित्रकला में मुगलशैली का अवदान बेमिसाल
है और गर्व की वस्तु है। मुगलदरबारों में यह
अमूमन होता था कि अगर मुस्लिम चित्रकार
ने खाका बनाया है तो हिंदू चित्रकार ने रंग
भरे हैं। अकबरनामा में आदम खां के प्राणदंड
वाले चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा, पर
रंग शंकर ने भरे थे। एक दूसरे चित्र का खाका
मिस्कीं ने खींचा रंग सरवन ने भरे, चेहरानामी
तीसरे चित्रकार ने किया और सूरतें माधो ने
बनाईं।
मुगल शैली का भारतीय चित्रकला पर प्रभुत्व
ढाई सौ साल रहा। इस बीच हजारों चित्र
बने। दरबारों में सैकड़ों चित्रकारों को
संरक्षण मिलता था। स्वयं अबुल फजल ने सौ
चित्रकारों का उल्लेख किया है जिनमें सत्रह
प्रधान चित्रकार थे, जिनके चित्रों पर
हस्ताक्षर मिलते हैं। 1600 ई. में तैयार की गई
हस्तलिपि वाकियाते बाबरी में 22
चित्रकारों के हस्ताक्षर हैं। महत्वपूर्ण बात
यह है कि इनमें हिंदू चित्रकार अधिक हैं। अबुल
फजल ने जिन 17 कलाकार-चित्रकारों का
जिक्र किया है, उनमें मात्र चार मुसलमान हैं
और तेरह हिंदू हैं। इसी तरह रज्मनामा के
हस्ताक्षरों में 21 नाम हिंदुओं के हैं, सात
मुसलमानों के हैं। मुगलशैली का राजपूत शैली
एवं दकनी शैली पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।
क्या आज हम मुगल शैली के प्रभाव को साझा
संस्कृति से बहिष्कृत कर सकते हैं? क्या
चित्रकला की परंपरा इस अवदान को भूल
सकती है? चित्रकला को मुगल शैली की बहुत
बड़ी संपदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी लूटकर ले
गए, पर कला इतिहास की पुस्तकों में इस
परंपरा का विस्तृत वर्णन मिलता है। बेहतर
होता कि भारत के शासक वह कलाकृतियां
किसी भी रूप में वापस लाने का प्रयास करते।
13. मुगलों के अवदान के कारण ही भारतीय
पहनावे में भारी परिवर्तन आया। यहां तक कि
शिवाजी और महाराणा प्रताप तक भव्य
मुगल पोशाकें पहनते थे। भारतीय पोशाक
अचकन और पजामा मुगलों की देन है। तुर्क,
पठान और मुगलों द्वारा प्रचलित जुराब और
मोजा, जोरा और जाया, कुर्त्ता और
कमीज,ऐचा, चोगा और मिर्जई भारतीय
वस्त्र परंपरा का अभिन्न अंग है।
14. भारतीय जीवन शैली में हिंदू वधू को
मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण उपहार है नथ।
आज नथ हिंदू औरत की सुंदरता का प्रतीक है।
इसके आविष्कारक मुसलमान ही थे। मुगलों ने
ही हिंदू दूल्हें के सिर पर सेहरा और मौर
बांधा। सबसे अद्भूत बात है ‘रोटी’ का
भारतीय शब्द-भंडार में समा जाना,
‘रोटी’ (फुलका या चपाती) शब्द तुर्की शब्द
‘रोती’ का सहजिया है। जिस पर रोटी सेंकते
हैं वह होता है ‘तवा’ यह भी मुगलों की ही देन
है। क्या ये सब ‘साझा संस्कृति’ में आज भी
बरकरार नहीं हैं? तब ‘कंपोजिट कल्चर’ के खत्म
हो जाने की बात बेबुनियाद है। वह कंपोजिट
कल्चर खत्म हुई है जिसे बुर्जुआजी नेताओं एवं
नेहरू ने विशेष रूप से उछाला था और यह
बुर्जुआजी की तात्कालिक रणनीति से
उपजी इकहरी धारणा थी।
15. उर्दू साहित्य की परंपरा एवं अवदान को
सभी जानते हैं जिसे मैं दोहराना नहीं
चाहता। सांप्रदायिक विचारधारा का
साझा संस्कृति पर किया गया वैचारिक
हमला वस्तुत: हमें संस्कृतिहीन एवं अमानवीय
दिशा में ले जाने की एक कोशिश भर है। इस
बार हमला स्थापत्य पर है, सन् 1977-78 के
वर्षों में इतिहास की पुस्तकों पर था।
विशेषकर उन पुस्तकों पर जो सांप्रदायिक
इतिहास लेखन के बजाय वैज्ञानिक
इतिहास लेखन पर बल देती थीं। साझा
संस्कृति को अगर कोई खतरा है तो
सांप्रदायिक विचारधारा और राज्य की
निष्क्रिय-कमजोर धर्मनिरपेक्षता से जिसका
सांप्रदायिक संगठन लाभ उठा रहे हैं।
बुर्जुआ विचारकों एवं दलों ने साझा संस्कृति
पर होने वाले हमलों को कानून एवं व्यवस्था
का मसला बना दिया है, वह इस हमले की
विचारधारा से टकराना नहीं चाहते और न
ही साझा संस्कृति का संवर्धन करना चाहते हैं
क्योंकि बुर्जुआ मूलरूप से संस्कृति का शत्रु
होता है और मासकल्चर का संवर्द्धक होता
है। क्लासिक रचनाओं और उस युग के अवदान
को वह नापसंद करता है। उनसे घृणा करता है,
इसलिए वह कभी भी साझा संस्कृति का
रक्षक भी नहीं हो सकता। विभिन्न
कलारूपों एवं उर्दू भाषा के प्रति उसका
विद्वेषभाव जग जाहिर है। अत: नेहरू की तर्ज
पर साझा संस्कृति न तो समझी जा सकती है,
न उसका संवर्धन संभव है। साझा संस्कृति की
शक्ति, सीमा एवं संभावनाएं मार्क्सीय
दृष्टि से ही समझी जा सकती हैं।

नवरत्न मन्डुसिया

खोरी गांव के मेघवाल समाज की शानदार पहल

  सीकर खोरी गांव में मेघवाल समाज की सामूहिक बैठक सीकर - (नवरत्न मंडूसिया) ग्राम खोरी डूंगर में आज मेघवाल परिषद सीकर के जिला अध्यक्ष रामचन्द्...