सोमवार, 27 जून 2011

ये सावन के मेघ


ये सावन के मेघ
Thursday, July 22, 2010


ललित कुमार द्वारा 16 अगस्त 2003 को लिखित

सावन के महीने में काले मेघ मन को जितने सुंदर लगते हैं उतना ही वे जग सुकून भी पहुँचाते हैं। कुछ हृदय, हालांकि, ऐसे भी होते हैं जिन्हें यह सुंदरता और सुकून पीड़ा ही देती है। और क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उन हृदयों में से एक इन मेघों का भी हो!

आप यह कविता सुन भी सकते हैं (इसके लिए शायद आपको फ़ॉयरफ़ॉक्स या गूगल क्रोम की ज़रूरत पड़े)

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जाने कहाँ से ये हैं आते, हृदय को मेरे रौंद मुस्काते
क्षितिज पार ओझल हो जाते, ये सावन के मेघ

जग में उजियारा होने पर भी, मेरे दुख के तम की भांति
श्याम दिनों दिन होते जाते, ये सावन के मेघ

कोई इन से भी बिछड़ गया है, बरस-बरस कर विरह जताते
जल नहीं आँसू बरसाते, ये सावन के मेघ

संदेश प्रेम का जग को दे कर, सबके दिलों का मेल कराते
मन मसोस पर खुद रह जाते, ये सावन के मेघ

सुंदर बदली जो मिली गत वर्ष, नयन उसी को ढूंढे जाते
जीवन उसी को खोज बिताते, ये सावन के मेघ

पा जांए उस प्रियतमा बदली को, यही सोच कर ये हैं छाते
किंतु नहीं निशानी कोई पाते, ये सावन के मेघ

चपला देती भंयकर पीड़ा, उड़ा ले जाती घोर समीरा
लौट वहीं पर फिर से आते, ये सावन के मेघ
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3

मेघ आए ’



प्रस्तुत कविता में कवि ने मेघों के आने की तुलना सजकर आए प्रवासी अतिथि (दामाद) से की है। ग्रामीण संस्कॄति में दामाद के आने पर उल्लास का जो वातावरण बनता है, मेघों के आने का सजीव वर्णन करते हुए कवि ने उसी उल्लास को दिखाया है। कवि कहता है कि लम्बे अरसे के इंतज़ार के बाद जब मेघ रूपी मेहमान आता है तो चारों – ओर खुशी का माहौल छा जाता है। हवा उड़ने लगती है मानो वह मेहमान के आने का संदेश देने के लिए भाग रही हो। लोग उत्सुकतावश दरवाजे-खिड़कियों से झाँकने लगते हैं। पेड़ रूपी गाँव के युवक गरदन उचकाए देखने लगते हैं और अल्हड जवान लड़्कियाँ घूँघट सरकाके तिरछी नज़रों से देखते हैं। बूढ़ा पीपल झुक जाता है अर्थात वह मेहमान की आवभगत करता है। उअसकी पत्नी उलाहने भरे स्वर में कहती है कि बहुत दिनों बाद उसकी याद आई जो चले आए। घर का सदस्य पानी का लोटा रख जाता है। अब क्षितिज पर बादल गहरे होते दिखाई दे रहे हैं । अब बारिश न होने का भ्रम टूट चुका है। बहुत दिनों के बिछुड़े पति-पत्नी के मिलन से खुशी के आँसू निकलने लगते हैं अर्थात प्रबल वेग के साथ बारिश होने लगती है। चारों-ओर उल्लास का वातावरण छा जाता है।

बरसो मेघ




बरसो मेघ और जल बरसो इतना बरसो तुम,
जितने में मौसम लहराए उतना बरसो तुम,

बरसो प्यारे धान-पान में बरसों आँगन में,
फूला नहीं समाये सावन मन के दर्पण में

खेतों में सारस का जोड़ा उतरा नहीं अभी,
वीर बहूटी का भी डोला गुजरा नहीं अभी,

पानी में माटी में कोई तलवा नहीं सड़ा,
और साल की तरह न अब तक धानी रंग चढ़ा,

मेरी तरह मेघ क्या तुम भी टूटे हारे हो,
इतने अच्छे मौसम में भी एक किनारे हो,

मौसम से मेरे कुल का संबंध पुराना है,
मरा नहीं हैं राग, प्राण में बारह आना है,

इतना करना मेरा बारह आना बना रहे,
अम्मा की पूजा में ताल मखाना बना रहे,

देह न उघडे महँगाई में लाज बचानी है,
छूट न जाये दुख में सुख की प्रथा पुरानी है,

सोच रहा परदेसी कितनी लम्बी दूरी है,
तीज के मुँह पर बार बार बौछार ज़रूरी है,

काश! आज यह आर-पार की दूरी भर जाती,
छू जाती हरियाली सूनी घाटी भर जाती,

जोड़ा ताल नहाने कब तक उत्सव आएँगे,
गाएँगे भागवत रास के स्वांग रचाएँगे,

मेरे भीतर भी ऐसा विश्वास जगाओ ना
छम छम और छमाछम बादल राग सुनाओ ना

जाति भेद का मूल कारण और मेघ (Cause of Caste differentiation and Megh)



Posted by Bhushan at 13:19
जाति भेद का मूल कारण
इस संसार में जो भी जीव-जन्तु हैं, कई रूप, रंग, वर्ण रखते हैं. उनके समूह को ही जाति कहा गया है. जल, थल, आकाश के जीव अपनी-अपनी जातियाँ रखते हैं. पशु-पक्षियों और जल में रहने वाले मच्छ, कच्छ, व्हेल मछली जैसी जातियाँ पाई जाती हैं. मनुष्य जाति में अनेक जातियाँ बन गई हैं. अलग-अलग देश और प्रांत होने के कारण, कर्म, भाषा, वेशभूषा के कारण कई जातियाँ बन गईं जिनकी गणना सरकार का काम है. अलग-अलग और नाना जातियाँ बनने का मूल कारण यह है कि ये जितने रंग, रूप और शरीर वाले जीव हैं, ये स्थूल तत्त्वों से बने हैं. इनके मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, विचार, भाव सूक्ष्म तत्त्वों से बने हैं. इनकी आत्माएँ कारण तत्त्वों से बनी हैं और प्रत्येक जीव जन्तु में ये जो पाँच तत्त्व हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश. इनका अनुपात एक जैसा नहीं होता. सबका अलग-अलग है. किसी में वायु तत्त्व और किसी में आकाश तत्त्व अधिक है. इन्हीं के अनुसार हमारे गुण, कर्म, स्वभाव अलग-अलग होते हैं. गुण तीन हैं. सतोगुण, रजो गुण और तमोगुण. किसी के अन्दर आत्मिक शक्ति, किसी में मानसिक शक्ति, किसी में शारीरिक शक्ति अधिक होती है. इसी तरह कर्म भी कई प्रकार के होते हैं. अच्छे, बुरे, चोर, डाकू, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार भी किसी में अधिक, किसी में कम. किसी में प्रेम और सहानुभूति कम है किसी में अधिक. इस वक़्त संसार में कई देश चाहते हैं कि हम दूसरों पर विजय पा लें. तरह-तरह के ख़तरनाक हथियार बन रहे हैं. इन सब चीजों का यही मूल कारण है. यह प्राकृतिक भेद है. कहा जाता है कि जो जैसा बना है वैसा करने पर मजबूर है. जिस महापुरुष का शरीर, मन और आत्मा इन तत्त्वों से इस प्रकार बने हैं, जो समता या सन्तुलित रूप में हैं, उस महापुरुष को संत कहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर वासना उठती है और उसी वासना (कॉस्मिक रेज़) से सकारात्मक व नकारात्मक शक्तियाँ पैदा होती हैं जो स्थूल पदार्थों की रचना करती रहती हैं. वासना एक जैसी नहीं होती. इसलिए भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग उत्पन्न हो जाते हैं और नाना जातियाँ बन जाती हैं.
अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या इसका कोई उपाय हो सकता है कि संसार में (पशु, पक्षी, और मच्छ, कच्छ को छोड़ दें) मनुष्य जाति में प्रेमभाव पैदा हो जाए और सब एक-दूसरे की धार्मिक, सामाजिक, जातीय और घरेलू भावनाओं का सत्कार करते हुए आप भी सुखपूर्वक जीएँ और दूसरों को सुखपूर्वक जीने दें. मेरी आत्मा कहती है कि हाँ, इसका हल है और वह है मेघ जाति को समझना कि यह जाति कब और कैसे और किस लिए बनी, जिसको मैं इस लेख में विस्तारपूर्वक वर्णन करने का यत्न अपनी योग्यता अनुसार करूँगा. दावा कोई नहीं.

मेघ जाति
आप इस लेख को अब तक पढ़ने से समझ गए होंगे कि जातियों के नाम कहीं देश, कहीं प्रान्त, कहीं आश्रम, कहीं वेशभूषा, कहीं भाषा और कहीं रंग से हैं. जैसे आजकल दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को लेकर गोरे और काले रंग के लोगों की जाति वालों में लड़ाई झगड़े हो रहे हैं. अभिप्राय यह है कि जातियों के नाम किसी न किसी कारणवश रखे गए और कोई नाम देना पड़ा. अब सोचना यह है कि मेघ जाति का मेघ नाम क्यों रखा गया? क्या यह कर्म पर या किसी और कारण से रखा गया? मनुष्य द्वारा बनाई गई भाषा के अनुसार मेघ एक गायन विद्या का राग भी है, जिसे मेघ राग कहते हैं. मेघ बादल को भी कहते हैं. जिससे वर्षा होती है और पृथ्वी पर अन्न, वनस्पतियाँ, वृक्ष, फल, फूल पैदा होते हैं. नदी नाले बनते हैं. जब सूखा पड़ता है, अन्न का अभाव हो जाता है तो धरती पर रहने वाले बड़ी उत्सुकता से मेघों की तरफ देखते हैं कि कब वो अपना जल बरसाएँ. जब मेघ आकाश में आते हैं और गरजते हैं तो लोग खुश हो जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि जल्दी वर्षा हो जाए. जब वर्षा होती है तो उसकी गर्जना भी होती है. योगी लोग जब योग अभ्यास करते हैं वो योग अभ्यास चाहे किसी प्रकार का भी हो उन्हें अपने अन्दर मेघ की गर्जना सुनाई देती है. उस जगह को त्रिकुटी का स्थान कहते हैं. गायत्री मंत्र के अनुसार यही सावित्री का स्थान हैः-
ओं भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इसका अर्थ यह है कि जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे जो सूरज का प्रकाश है उसको नमस्कार करते हैं. वही हमारी बुद्धियों का प्रेरक है. उस स्थान पर लाल रंग का सूरज दिखाई देता है और मेघ की गर्जना जैसा शब्द सुनाई देता है. सुनने वाले आनन्द मगन हो जाते हैं क्योंकि वो सूक्ष्म सृष्टि के आकाश में सूक्ष्म मेघों की सूक्ष्म गर्जना होती है सुनने से मन एकत्रित हो जाता है. यह गर्जना हमारे मस्तिष्क में या सिर में सुनाई देती है. तीसरे, हर एक आदमी हर वस्तु को ध्यानपूर्वक देख कर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है कि यह कैसे और किन-किन तत्त्वों से बनी है. जिस तरह हिमालय पर बर्फ होती है ऊपर जाने पर या वहाँ रहने वालों को बर्फ का ज्ञान होता है, उससे लाभ उठाते हैं. बर्फ पिघल कर, पानी की शक्ल में बह कर, नीचे आकर भूमि में सिंचाई के काम आती है. इसी तरह मेघालय हमारे भारत देश का प्रांत है जो बहुत ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ है. वहाँ के रहने वाले लोगों को मेघ का ज्ञान होता है, वहाँ मेघ छाए रहते हैं, गरजते हैं, वर्षा करते हैं इत्यादि. इसी के नाम पर मेघालय उसका नाम है. सम्भव है वहाँ के वासी भी मेघ के नाम से पुकारे जाते हों.
तो मेघ शब्द क्यों और कैसे बना, जितना हो सका लिख दिया. प्राचीन काल से हिन्दू जाति में यह नाम बहुत लोकप्रिय है. अपने नाम ‘मेघ’ रखा करते थे. अब भी मेघ नाम के कई आदमी मिले. रामायण काल में भी यह नाम प्रचलित था. रावण उच्च कोटि के ब्राह्मण थे, उन्होंने अपने लड़के का नाम मेघनाद रखा. उन्होंने अपने लड़के को बजाए मेघ के मेघनाद का संस्कार दिया. वो बहुत ऊंचे स्वर से बोलता था. जब लंका पर वानर और रीछों ने आक्रमण किया तो मेघनाद गरजे और रीछों और वानरों को मूर्छित कर दिया. पूरा हाल आप राम चरित मानस से पढ़ लें. नाद का अभिप्राय यह भी है कि ऊँचे स्वर से बोलकर या कड़क कर हम दूसरों को परास्त कर सकते हैं जैसे मेघ जब कड़क कर गर्जन करते हैं तो हृदय में कम्पन पैदा होता है, घबराहट आ जाती है. कई सन्तों ने मेघों के बारे में लिखा है. इनकी आवश्यकता और प्रधानता दर्शाई हैः-
सुमरिन कर ले मेरे मना, तेरी बीती उमर हरिनाम बिना।
देह नैन बिन, रैन चन्द्र बिन, धरती मेघ बिना ।
जैसे तरुवर फल बिन होना, वैसा जन हरिनाम बिना।
कूप नीर बिन, धेनु क्षीर बिन, मन्दिर दीप बिना।
जैसे पंडित वेद विहीना, वैसा जन हरिनाम बिना ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, छोड़ विरोध तुम संशय गुमाना।
नानक कहे सुनों भगवंता, इस जग में नहीं कोऊ अपना ।।
इन शब्दों में गुरु नानक देव जी ने मेघ की महिमा गाई है. धरती मेघ के बिना ऐसे ही है जैसे हमारा जीवन हरिनाम बिना निष्फल और अकारथ हो जाता है. इसमें और भी उदाहरण दिए हैं ताकि मेघ की महानता का पता लग सके. कबीर सहिब का भी कथन हैः-
तरुवर, सरवर, सन्तजन, चौथे बरसे मेंह।
परमारथ के कारणे, चारों धारें देह ।।
साध बड़े परमारथी, घन ज्यों बरसे आय,
तपन बुझावे और की, अपना पौरुष लाय ।।

मेघ जाति का नामकरण संस्कार
प्राचीन काल में मनुष्य जाति के कुछ लोग जम्मू प्रदेश में ऊँचे पहाड़ी भागों में निवास करते थे. उस समय दूसरे गाँव या दूसरे पहाड़ी प्रदेश के लोगों से मिलना नहीं होता था. जहाँ जिसका जन्म हो गया, उसने वहीं रहकर आयु व्यतीत कर दी. हमने आपनी आयु में देखा है, लोग पैदल चलते थे, दूर जाने के कोई साधन नहीं थे. बच्चों को पढ़ाया भी नहीं जाता था. कोई स्कूल नहीं थे. रिश्ते नाते छह-सात मील के अन्दर हो जाते थे, जहाँ पैदल चलने की सुविधा होती थी. उस समय जो लोग ऊँचे पहाड़ी प्रदेशों में थे, उनको भी वहीं पर ज्ञान हो जाता था. दूर की बातें नहीं जानते थे. इन ऊँचे पहाड़ी इलाकों में मेघ छाए रहते थे और बरसते रहते थे. वहाँ के वासियों के जीवन मेघों का संस्कार ग्रहण करते थे. उनको केवल यही समझ होती थी कि ये मेघ कैसे और किन-किन तत्त्वों के मेल से बनकर आकाश में आ जाते हैं और इनके काम से क्या-क्या लाभ होते हैं और क्या-क्या हानि होती है. जैसी वासी वैसी घासी. मेघों के संस्कार उन लोगों के हृदय और अन्तःकरण में घर कर जाते थे. जो मेघों का स्वभाव, परोपकार का भाव, ठंडक, आप भी ठंडे रहना और दूसरों को भी ठंडक पहुँचाना, उन लोगों की वैसी ही रहनी हो जाती थी क्योंकि दूसरे लोग जो उनके सम्पर्क में आ जाते थे उनको शांति, खुशी, ठंडक मिलती थी. इसलिए वो उन ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर मेघ के नाम से पुकारे जाते थे. यह नाम किसी व्यवसाय या कर्म के ख्याल से नहीं है. यह मेघ नाम मेघों से लिया गया और वहाँ के वासियों को भी मेघ कहा गया. ज्यों-ज्यों उनकी संतान की वृद्धि होती गई, वे नीचे आकर अपनी जीवन की यात्रा चलाने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की ज़रूरत के अधीन कई प्रकार के काम करने लगे. किसी ने खेती, किसी ने कपड़ा, किसी ने मज़दूरी, और वो अब नक्शा ही बदल गया. अब इस जाति के लोग धीरे-धीरे उन्नति कर रहे हैं. पुराने काम काज छोड़ कर समय के मुताबिक नए-नए काम कर रहे हैं और मालिक की दया से और भी उन्नति करेंगे, क्योंकि इनको मेघों से ऊँचा संस्कार मिला. ऊपर जो कुछ लिखा है उससे यही सिद्ध होता है कि समय-समय पर हर जाति के लोग अपना काम भी बदल लेते हैं. मेघ जाति का यह नाम प्राकृतिक है, स्वाभाविक ही पड़ा. यह किसी विशेष कार्य से संबंध नहीं रखता.

मेघ कैसे बनते हैं
इस धरती पर सूरज की गरमी से जब धरती में तपन पैदा हो जाती है तो स्वाभाविक ही वो ठंडक चाहती है और ठंडक जल में होती है. वह गर्मी समुद्र की तरफ स्वाभाविक ही जाती है और वहाँ की ठंडक गर्मी की तरफ जाने लग जाती है और इससे वायु की गति बन जाती है और वह चलने लग जाती है. हवा तेज़ होने पर अपने साथ जल को लाती है या वह अपने गर्भ में जल भर लेती है और उड़ कर धरती की तपन बुझाने के लिए उसका वेग बढ़ जाता है. मगर उन हवाओं में भरा जल तब तक धरती पर नहीं गिर सकता जब तक कि जाकर वो ऊँचे पर्वतों से न टकराएँ. उसका वेग बंद हो जाता है. आकाश में छा जाता है. जब यह दशा होती है कि अग्नि, वायु और जल इकट्‌ठे हो जाते हैं, इनकी सम्मिलित दशा को मेघ कहते हैं. मेघ केवल अग्नि नहीं है, केवल वायु नहीं, केवल जल नहीं, बल्कि इन सबके मेल से मेघ बनते हैं. जब ऊपर मेघ छाए रहते हैं, तो हवा को हम देख सकते हैं, अग्नि को भी देख सकते हैं, इन सबके मेल से जो मेघ बना था उसे भी देख सकते हैं. जब वर्षा खत्म हो गई, मेघ जल बरसा लेता है, तो न मेघ नज़र आता है, न वायु, न अग्नि. आकाश साफ़ हो जाता है. वो मेघ कहाँ गया? इसका वर्णन आगे किया जायेगा कि वे कहाँ गए. मेघ ने अपना वर्ण खोकर पृथ्वी की तपन बुझाई. पृथ्वी पर रहने वाले जीवों की आवश्यकताओं को पूरा किया और उनको सुखी बनाया. आकाश से वायु बनी, आकाश और वायु से अग्नि बनी, आकाश और वायु और अग्नि से जल बना, आकाश, वायु अग्नि और जल से पृथ्वी बनी. जब सृष्टि को प्रलय होती है तो पहले धरती जल में, फिर धरती और जल अग्नि में, धरती, जल और अग्नि वायु में, धरती, जल, अग्नि और वायु आकाश में सिमट जाते हैं. आकाश का गुण शब्द है, वायु का गुण स्पर्श है, अग्नि का गुण रूप है, जल का गुण रस है और पृथ्वी का गुण गंध है. इन्हीं गुणों को सूक्ष्म भूत भी कहते हैं. ये गुण ब्रह्म की चेतन शक्ति से बनते हैं. ब्रह्म प्रकाश को ही कहते हैं. ब्रह्म का काम है बढ़ना, जैसे प्रकाश फैलता है. वो प्रकाश या ब्रह्म शब्द से बनता है. यह सारी रचना शब्द और प्रकाश से बनती है. शब्द से ही प्रकाश और शब्द-प्रकाश से ही आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी बन जाते हैं. तो इस सृष्टि या त्रिलोकी के बनाने वाला शब्द है :-
‘शब्द ने रची त्रिलोकी सारी’
आकाश का यही गुण अर्थात 'शब्द’ इन सब तत्त्वों में काम करता है. जो त्रिकुटी में मेघ की गर्जना सुनाई देती है, वो भी उसी शब्द के कारण है. मेघ नाम या मेघ राग या दुनिया के प्राणी जो भी बोल सकते हैं, वो आवाज़ उसी शब्द के कारण है. विज्ञानियों ने भी सिद्ध किया है कि यह सृष्टि आवाज़ और प्रकाश से बनी है.
जिस व्यक्ति को इस शब्द का और ब्रह्म का और इस सारे काम का जो ऊपर लिखा है, पता लग जाता है, ज्ञान हो जाता है, अन्तःकरण में यह बात गहरी घर कर जाती है, उस व्यक्ति को इन्सान कहते हैं. इन्सानियत की इस दशा को प्राप्त करने के लिए या तो योग अभ्यास करके आकाश के गुण को जाना जाता है या जिस महापुरुष के शरीर, मन और आत्मा इन सब तत्त्वों की सम्मिलित संतुलित दशा से बने हैं, उसे संत भी कहा गया है, उसकी संगत से हम इन्सानियत को प्राप्त कर सकते हैं. जो इन्सान बन गया उसके लिए न कोई जाति, न कोई पाति और न कोई भेदभाव रह जाता है. उसके लिए सब एक हो जाते हैं. उसमें एकता आ जाती है. वो किसी भी धर्म-पंथ का नहीं रहता. उसके लिए इन्सानियत ही सब कुछ है. हम सब इन्सान हैं. मानव जाति एक है. तो वो शब्द और प्रकाश जिससे यह सृष्टि पैदा हुई, तरह-तरह के वर्ण बन गए, मेघ वर्ण भी उसी से बना है. जब इन्सान में मानवता आ जाती है तो उसके लक्षण संतों ने बहुत बताए हैं. परोपकार, सबको शांति, वाणी ठंडक देने वाली बन जाती है. धरती पर रहने वाले प्राणियों की तपन बुझ जाती है. इस विषय पर कबीर साहिब का एक शब्द है :-
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे।
एक नूर से सब जग उपज्या, कौन भले को मंदे।
सबसे पहले शब्द ने ही प्रकाश अर्थात ब्रह्म को उत्पन्न किया और शब्द ब्रह्म की चेतन शक्ति से ये पाँचों तत्त्व बन जाते हैं और वो चेतन शक्ति ही इन सब तत्त्वों में विद्यमान है, तभी यह तत्त्व रचना कर सकते हैं.
लोगा भरम न भूलो भाई,
खालिक, ख़लक, ख़लक में खालिक, पूर रहयौ सब ठाई।
भ्रम में आकर यह नहीं भूलना चाहिए कि वो स्रष्टा और सृष्टि उत्पन्न करने वाला और उत्पत्ति सब एक ही वस्तु है. वेदों में भी लिखा है :-
‘एको ब्रह्म द्वितीय नास्ति’
शास्त्रों में भी कहा है कि ब्रह्म एक चेतन शक्ति है, वो आप तो नज़र नहीं आती मगर उसके कारण यह दृश्यमान जगत बना है. इन सब में वही है. इस मेघ वर्ण का निर्माण भी उसी चेतन शक्ति से हुआ.
माटी एक अनेक भाँति कर साजी साजनहारे।
न कछु पोच माटी के भांडे, न कछु पोच कुम्हारे ।।
कुम्हार एक ही मिट्‌टी से कई प्रकार के बर्तन बना लेता है, है वो मिट्‌टी, मगर मिट्‌टी की शक़्लें बदल जाती हैं. मिट्‌टी कई नामों, रूपों में आ जाती है :-
सबमें सच्चा एको सोई, तिस का किया सब कुछ होई।
हुकम पछाने सो एको जाने बन्दा कहिये सोई ।।
सबमें वो शब्द ही काम कर रहा है उसी से सब कुछ बना है और वही सब कुछ करता है. जो उसको जान जाता है वही इन्सान है. हुक्म भी प्रकाश का ही नाम है क्योंकि परम तत्त्व से ही पहले शब्द पैदा होता है और शब्द से आगे फिर रचना शुरू हो जाती है इसी को हुक्म कहा गया है.
अल्लाह अलख नहीं जाई लखिया गुर गुड़ दीना मीठा।
कहि कबीर मेरी संका नासी सर्व निरंजन डीठा ।।
कबीर साहिब फरमाते हैं कि गुरु की दया से सब भ्रम और शंकाएँ समाप्त होते हैं और वो जो अलख था (शब्द को देखा नहीं जा सकता इसलिए उसे अलख कहा है), उसे कोई सत्गुरु ही लखा सकता है और फिर वो न नज़र आने वाला नजर आने लग जाता है.
आइये अब कुछ विख्यात शब्दकोषों के अनुसार मेघ शब्द का विचार करें.
हिन्दी शब्द सागर
1. मेघ--घनी भाप को कहते हैं जो आकाश में जाकर वर्षा करती है (भाप ठोस या तरल पदार्थ की वह अवस्था है जो उनके बहुत ताप पाने पर विलीन होने पर होती है--भौतिक शास्त्र)
2. मेघद्वार--आकाश
4. मेघनाथ--स्वर्ग का राजा इन्द्र
5. मेघवर्तक--प्रलय काल के मेघों में से एक मेघ का नाम
6. मेघश्याम--राम और कृष्ण को कहते हैं
7. मेघदूत--कालीदास महान कवि हुए हैं. उन्होंने अपने काव्य में मेघदूत का वर्णन किया है. इसमें कर्तव्यच्युति के कारण स्वामी के शाप से प्रिया वियुक्त एक विरही यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास मेघों द्वारा संदेश भेजा है.
हिन्दी पर्याय कोष
1. मेघ और जगजीवन दोनों एक ही अर्थ के दो शब्द हैं.
हिन्दी राष्ट्रभाषा कोष
1. जगजीवन--जगत का आधार, जगत का प्राण, ईश्वर, जल, मेघ.
यदि आप ध्यान से पढ़ें तो इन शब्द कोषों में मेघ का अर्थ जो लिखा गया है वो ईश्वर और नाना ईश्वरीय शक्तियों के मेल से रसायनिक प्रतिक्रिया होने पर जो हालतें या वस्तुएँ उत्पन्न होती है उनमें से एक को मेघ कहा गया है. इसलिए जो कुछ ऊपर लिखा गया है कि मेघ ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं और उसी में समा जाते हैं, ठीक है. इससे सिद्ध हुआ कि मेघ शब्द कोई बुरा नहीं है और इसी के नाम पर उन्हीं के संस्कारों को ग्रहण करते हुए मेघ जाति बनी.
इतिहास, भगत मुंशीराम, मेघमाला

Mahabali, Maveli and Matriarchal Society - राजा महाबली और मातृप्रधान समाज


Mahabali, Maveli and Matriarchal Society - राजा महाबली और मातृप्रधान समाज
Posted by Bhushan at 14:05
इसका संदर्भ Maveli belongs to Meghvansh और ऐसे अन्य आलेखों से है. हाल ही में मुझे याद आया कि केरल में मातृप्रधान समाज है. इसी प्रकार उत्तर-पूर्व में भी मातृप्रधान समाज प्रचलित है. महाबली का राज्य दक्षिण और दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्रों में था. उसका बेटा बाण उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का गवर्नर था. क्या यह हैरानगी की बात नहीं है कि इन दोनों क्षेत्रों में आज भी मातृप्रधान समाज है? क्या राजा महाबली ने समाज में महिलाओं का महत्व समझते हुए यह प्रणाली लागू की थी या महाबली से भी पहले सिंधु घाटी सभ्यता में यह प्रणाली पहले से चल रही थी? क्या देश के अन्य हिस्सों से मातृप्रधान समाज को क्रमबद्ध तरीके से समाप्त किया गया? मैं यह भी महसूस करता हूँ कि इन क्षेत्रों में संपत्ति महिलाओं के नाम में होती है लेकिन वे पुरुषों पर इक्कीस नहीं पड़ती हैं. वंश का नाम माता के नाम से चलता है. इन क्षेत्रों की महिलाएँ अपने अधिकारों के बारे में और घर की चारदीवारी से बाहर के संसार को तनिक बेहतर जानती हैं.

यह सच है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासियों के इतिहास को इतना नष्ट और भ्रष्ट कर दिया गया है कि उसे पहचानना और उसका पुनर्निर्माण करना कठिन है. लेकिन संकेतों और चिह्नों को एकत्र करना संभव है और मानवीय अनुभव से कुछ-न-कुछ निकाला भी जा सकता है. भारत के कायस्थों ने आख़िर 200 वर्षों के संघर्ष के बाद अपना इतिहास ठीक करने में सफलता पाई है. ऐसा शिक्षा, संगठन और जागरूकता से संभव हो पाया. महर्षि शिवब्रतलाल (ये संतमत/राधास्वामी मत में जाना माना नाम हैं और सुना है कि इन्होंने भारत में दूसरी टाकी फिल्म बनाई थी जिसका नाम 'शाही लकड़हारा' था) और मुंशी प्रेमचंद कायस्थ थे. मेघवंशियों के लिए ऐसा कर पाना और भी कठिन होगा. परंतु यह करने लायक कार्य है.
Posted by Bhushan at 6:39 PM
Labels: Origins, राजा बली
2 comments:


आशीष/ ਆਸ਼ੀਸ਼ / ASHISH said...
ज्ञानवर्धक! आशीष -- प्रायश्चित
October 3, 2010 6:06 AM
डॉ० डंडा लखनवी said...
मैने राजा की कथा कई बार पढ़ी। वे करुणा सागर और दानशील थे। ऐसी कथा प्रचलित है कि उनसे तीन पग जमीन मांगी गई। पहले पग में धरती, दूसरे में आकाश तथा तीसरे में उनके शरीर को नापने की बात प्रचारित की गई है। भारत के मूल निवासियों के साथ अनेक बार छल हुए हैं। खोज का विषय है कि इन तीनों पगों मे नापने का क्रम क्या था? कहीं पह्ले पग में उनके शरीर को और शेष दो पगों मे उनके राज्य को नाप लिया गया हो ? फलत: उनके वंशज कालांतर में राजनैतिक आर्थिक रूप से कमजोर पड़ गए हो? इस समाज में पुन: प्राण फूकने की आवश्यकता है। सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
November 7, 2010 3:13 PM
Labels: Origins, राजा बली
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