शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

बलात्कार और समाज के साथ साथ हमारी सोच


बलात्कार और समाज और हमारी सोच
          लेखक नवरत्न मन्डुसिया (सुरेरा)
नवरत्न मन्डुसिया की कलम से //समाज मे बलात्कार जेसे संगीन अपराध बहूत ही खतरनाक किस्म के मामले होते है समाज मे ऐसे मामले बहूत ही शर्मनाक होते है जो कुछ भी हो रहा है, भयावह है। लग रहा है जैसे सती-युग लौट आया है। कब तक ये भयावहता देखती रहेगी वो बलात्कार की पीड़ीता और न्यूज़पेपर वाले और  चैनल खबर चला रहे हैं- की सरकार सदमें मे है और जल्द ही पीडिता को न्याय दीलायेगी और विपक्ष सरकार की जुबान खींचने मे लगी हुवी है तो सरकार न्याय दिलाने की सांत्ना डे रही है और बचाव करते हुवे कह रही है की हमारी सरकार और केन्द्र सरकारसदमें मे है लेकिन मे नवरत्न मन्डुसिया आपको बता देना चाहता हूँ की  सदमे में तो हम हैं। जिसके साथ बलात्कार होता है उसको पता रहता है की उसमे क्या बीत रही है क्या क्या वो समाज से ताने बाने सुन रही है इसलिए मेरे हिसाब से अब समाज मे जमीर नाम की कोई भी चीज़ हमारे समाज मे नही रही सबसे बड़ी बात तो यह की जो लोग रेप करते है वो ये भी नही देखते है की यदि हम समाज मे बलात्कार जेसे संगीन अपराध करेंगे तो क्या हमारा समाज कही पर बोलने लायक रहेगा लेकिन उनको पता है की समाज बोलने  लायक नही रहता है फ़िर भी समाज मे वे लोग बलात्कार करके औरतो की लड़कियों की जिंदगी खराब कर देते है अब मे समाज से पूछना चाहता हूँ की  स्त्री अब क्या करेगी, कैसे जिएगी, कैसे अपना मुंह सबको दिखाएगी वो लड़कियाँ केसे आगे बढ़ पायेगी ये है क्या हमारे भारत देश की संस्कृति अब तो ऐसा लग रहा हमारे देश मे संस्कृति नाम की कोई भी जगह नही है  ये कैसे सवाल हैं? लोग रो रहे हैं, दुखी हैं, और कह रहे हैं अब तन ढकने से क्या, बेचारी का जो था सो तो सब लुट गया। इज्जत सरेआम रौंद डाली गई। अब तो बेचारी तिल-तिल कर घुट-घुट कर मरेगी। यह सब क्या है। यह कैसी सहानुभूति है, जो बलात्कार का शिकार हुई स्त्री को स्वाभाविक जीवन जीता देखना गवारा नही करती। जिस लड़की या औरत के साथ बलात्कार होता है तो तो उसका परिवार उस दर्द को कभी भी भूल नही सकता केसे जियेंगे हम केसे केसे अपराध कर है ये हमारे समाज के लोग मेरे हिसाब से जो लोग बलात्कार करते है उनके ऊपर सरकार को गम्भीर क़दम उठाना चाहिये और आरोपियों को श्री आम फाँसी देनी चाहिये जब लड़कियों के साथ बलात्कार होता है तो सरकार उनको आर्थिक सहायता देती है और वही लड़कियाँ जब कॉलेज विद्यालय जाती है बाहर बेठे असामाजिक तत्व उनको बोलते है की ये देखो ये दस हजार वाली ये बीस हजार वाली मतलब की हमारे धर्म मे ऐसी नीच सोच वाले लोग बेठे है उनको पता जिस लड़कियों को वो बुरी नजर से देख रहे है उनके भी घर मे माँ बेटियाँ है
संसद में बैठी शक्तिशाली स्त्रियां नहीं जानतीं कि रोजाना सार्वजनिक वाहनों में सफर करना महिला के लिए कैसा अनुभव होता है? वे नही जानतीं कि सड़क पर चलना क्या होता है। एक सामान्य पुरुष साथी की तरह खुली हवा में सांस लेने, कभी-कभार फिल्म-पिकनिक की मौज-मस्ती के लिए स्त्री को मानसिक रूप से कितना तैयार होना पड़ता है
जो महिलायें हो या पुरुष हो वे सिर्फ अपने स्वार्थ की को छोड़कर जिन जिन महिलाओ और लड़कियों के साथ अन्याय हुवा है उनको न्याय दिलाये वेसे  महिलाओं को विलाप करते देखना अजीब लगता है। जिनके पास सत्ता की ताकत है, कानून बनाने और उसे क्रियान्वित करने की क्षमता है, जिन्हें अपनी इस जिम्मेदारी को कब का पूरा कर देना चाहिए था उनकी आंखों में सिर्फ आंसू आ रहे हैं, वे सिर्फ मार्मिक भाषण दे रही हैं, वे नम आंखों से निहार रही हैं, वे आक्रोश प्रदर्शित कर रही हैं। अरे ये सारे काम तो संसद से बाहर बैठी महिलाएं भी कर रही हैं, फिर संसद की क्या जिम्मेदारी है आप ये जूठे ड्रामा मत करो आप अन्याय का साथ मत दो वरना एक दिन हमारा भारत देश ऐसे दलदल मे फँस जायेगा की किसी को समझ मे तक नही आयेगा और हमारा भारत देश वापिस गुलामी की जंजीरों मे जकड़ जायेगा
इस अपराध पर त्वरित कार्रवाई करवाने में सक्षम लोग कार्रवाई करवाने की जगह आंसू बहा रहे हैं, संवेदनशील भाषण कर रहे हैं। और धरने प्रदशन कर रहे है बड़ी बड़ी रेलियां निकाल रहे है महाआंदोलन कर रहे है लेकिन आम जनता के पास इनके अलावा कर भी तो क्याकर सकते है मुझे तो सोचते सोचते केवल आँसुओं के अलावा कूछ भी नज़र नही आता है कमाल है- संसद रो रही है, संसद सदमे में जा रही है। आपको याद होगा, हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री के कार्यकाल में तो इस लुटी इज्जत के लिए बाकायदा ‘बलात्कार बीमा योजना’ तक लाने पर चर्चा हुई थी। महिला संगठनों और बुद्धिजीवियों की कड़ी आलोचना के बाद उस शर्मनाक प्रस्ताव को वापस ले लिया गया। उस बहूत से लोगो ने इस प्रस्ताव का घोर विरोध किया था क्या अब बलात्कार पीडिता इस बीमे से जोड़े क्या केसे केसे लोग है हमारे समाज मे यदि उस बलात्कार बीमे की जगह कोई कठोर कानून बनता तो आज हमारे देश मे ये नौबत नही आती आज के ज़माने मे बेटियाँ कही पर बिल्ट सुरक्षित नही है
इस कांड पर गमगीन सिर्फ महिलाओं को दिखाया गया। तमाम चैनल महिला सांसदों के आंसू और भाषण दिखाते रहे। ज्यादातर पुरुष सांसद इस घटना पर मौन थे या चैनलों ने उन्हें दिखाना जरूरी नहीं समझा। यह भी अजीब है। महिला के साथ अपराध हो तो उस पर महिलाओं का ही नजरिया दिखाया जाएगा। क्यों भाई, पुरुषों का क्यों नहीं? क्या यह एक सामाजिक अपराध नहीं है? क्या इससे पुरुष प्रभावित नहीं होता? क्या ऐसे समाज में पुरुष निश्चिंत होकर सो सकता है?
क्या बलात्कार के लिए फांसी देने से बलात्कार रुक जाएगा, जैसी कि लगातार मांग बनाई जा रही है? बलात्कारी के शिश्नोच्छेद की मांग हो रही है। ऐसी मांग का क्या अर्थ है? फांसी दो-फांसी दो न्याय दो न्याय मुर्दाबाद मुर्दाबाद इन नारों से क्या समाज मे हो रहे रेप रुक जायेगा । कोई बुनियादी सवाल सुनने तक को तैयार नहीं है। फांसी की भूखी भीड़ को कुछ लाशें चाहिए ही चाहिए जिससे उसकी क्षुधा कुछ देर को शांत हो। फिर उन्माद का कोई और मुद््दा आ जाएगा। क्या मृत्युदंड से इन घटनाओं को काबू किया जा सकता है जब तक हमारी सोच बदलेगी तब ये बलात्कार जेसे अपराध रुकेंगे :- नवरत्न मन्डुसिया की कलम से



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