सोमवार, 15 जून 2015

डाली बाई मेघवंशी (dali bai meghwanshi)

मन्डुसिया लेखन //लोककथा  में भक्तिमती डाली का जन्म भी संदेह के घेरे में विकृत एवं संदिग्धावस्था में कथन करके हास्यास्पद बुद्वि के दिवाले पीटने की गाथा है कि त्रेतायुग यानि आठ लाख वर्ष पूर्व होने वाले ऋंगिऋषि के औरस से कलियुग में जाल (पीलवान) की डाली या मुस्लिम धर्मांतरण को श्री रामदेव द्वारा शुद्धिकरण करके सायर को सौंपने की चर्चा या जुमले में जाने से नेतलदे के इनकार करने के बाद डाली को साथ ले जाने की कल्पित एवं घृणित बड़ा धर्म की कथा को चर्चित लेखक करते रहते हैं, वस्तुस्थिति में मेघवंशी श्री सायर की धर्मपत्नी श्रीमती मगनीदेवी जयपाल की कोख से जन्मी श्री रामदेव से चार वर्ष छोटी बाल सती साध्वी भक्ति मती सिद्ध डालीबाई थी। दोनों भाई-बहिनों का अक्षुण्य प्रेम जीवन भर स्नेहिल भक्ति भाव ही रामदेव को रोक नहीं सका और अंतिम समय तक भ्रातृत्व स्नेह निभाया। रामदेवजी ने सायर मेघवाल के घर जाने आने में कोई हिचक नहीं रखी। संबंधी, रिश्तेदारों बीरमदेव या उनके घर इत्यादि सभी ने विरोध किया किंतु अजमलजी रोक नहीं सकें चंूकि वे अंतर्कथा को भली-भांति जानते थे। अजमलजी के घोषित, पोषित दत्तक पुत्र होने की हामी पर अलग-अलग जगहों से क्रमशः तीन विवाह हुए और सात पुत्र हुए। इन्होंने आजीवन मेघवंशी समाज से निरंतर/ संबंध बनाए रखे। यह गोपनीय लक्ष्यों का परमाधार है कि यत्र-तत्र अन्यान्य संबंधों का निर्वाह करते हुए भी श्री रामदेव का सतसंग/ जुम्मा/ जुमला का सार्थक समय या मैत्री के नाम मेघवंशी समाज से अटूट सामीप्य संबंध रखते रहे। इतिहास प्रमाणों के साथ लोक किंवदंतियों में कतिपय निम्न उदाहरण भी विचारणीय इतिहास बिंदुओं की पुष्टि करते है कि (1.) रामदेव को जो भी मिले वह रिखिया (2.) रामदेवजी का रिखिया (3.) पांच रिखियों से जुमा जगाना, इन कहावतों के अतिरिक्त प्राच्य काल में अद्यावधि पर्यंत जुमला था साधारण काल में कोई रामदेवजी के नाम से किए गए धूपेड़े पर अन्यान्य किसी तथा कथित सामंत/ सवर्ण व्यक्ति द्वारा घृत सिंचित करने पर भी ज्योति दीपन नहीं होती अपितु किसी बाल-वृद मेघवंश में जन्मे व्यक्ति के हाथ घृत पड़ते ही धूपेड़ा दीपित हो जाता देखा जा सकता है। मेघवंशी से घृणा करके रामदेव का जुम्मा जगाने पर वह सफल नहीं होता है। आज से चालीस वर्ष पहले अन्यान्य समाज में रामदेवजी की मान्यता नगण्य मात्र थी, वहां शताब्दियों पूर्व मेघवंशी जाति के लोग सोना-चांदी का चित्रित फूल गले में धारण करते, रामदेवजी की सौगंध (शपथ) सर्वोपरि विश्वसनीय साक्षी या साक्ष्य की मध्यस्थता मानी जाती रही है। प्रत्येक घर के एक कोने में छोटा सा देवल देवलिया बनाम पूजा मंदिर बनाकर सुबह-शाम नारियल, चिटकी या बतीसा धूपेड़ा खेते करते है और मेघवंशी जाति का इष्ट मानते हैं। समीक्षा - मेघवंश समाज के वंशप्रशंसक भट्टग्रंथ (बही) धारकराव (भाट) समाज के लोग भी तत्संबंधी सत्यक्षा उगलाने में अक्षम है कि ब्रह्माजी की मंूछ से आद्य महर्षि मेघ की उत्पति अवांतर मेघवंशी समाज का सृजन कथन करते हुए पोथी पढ़वाने पर प्रत्येकवंश पीढ़ी को ब्राह्मण-राजपूत इत्यादि अन्यान्य से निकास देते है। तब स्वयं उनके दिए कथन असत्य सिद्ध हो जाते है कि इतना पुराना ब्रह्मा मंूछ पुत्र महर्षि से उत्पन्न होकर भी पूर्व का कोई इष्ट अवधारणा नियम न बताकर रामदेव को आराध्य बताकर भट्टग्रंथों की प्राच्यता पर संदेह उत्पन्न करता है। अद्यावधि इस समाज का भोलापन, सादगी, विश्वसनीयता, सत्यता बेदाग है, पूर्ण सेवाभाव स्वाभाविक अक्षुण्णता लिए रहता है। यह सब पूर्ण रामदेव जीवन संपर्ककाल इतिहास से जुड़े प्रभाव का प्रतिफल हो सकता है, चंूकि भयंकर विदेशी यवन काल शासन के सामंत राजाओं की विकृत नीतिकाल के अस्पृश्यता जैसे विषैले वातावरण को सर्प के पास रहती मणि की भांति सम्मान में सर्व सामंजस्य भाव को भेद रहित संत स्वभाव के खान-पान व्यवहार रखा हिंदू, मुस्लिम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इत्यादि सब के भाव सामान्य बर्ताव रखकर संसार के सामने अमिट उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज भी रूणेचा या अन्यत्र यत्र-तत्र सर्वत्र भारतवर्ष में प्रचारित रामदेव प्रसादी विवरण भेदभव रहित होता है। रामदेवजी द्वारा अद्यावधि मेघवंशी को अपनत्व से जोड़कर रखा जाता है ऋषि महर्षि वंशज समाज में सर्वाधिक संत, विद्वान ज्ञानी, गुणी, सिद्ध अनुभवशील, वाणीपुरूष, तपोनिष्ठ, भक्त या जीवित समाधि लेने वाले यहां हुए है जितने कि अन्यान्य किसी वर्ग विशेष में होने अति दुर्लभ है। रामदेवजी द्वारा वर्गभेद, जातिभेद की खाई दूर करने का अथक प्रयास कुछ यवन राज्य की कठोरता के तालमेल बैठाते अग्नि संस्कार की जगह धोर/ दफन, जुम्मा जगाने इत्यादि प्रक्रियाओं से उनकी क्रूरता, हठधर्मी पर अंकुश लगा, इससे सामाजिक क्षमता बढ़ी। अपनी सिद्धियों की शक्ति का प्रचार-प्रसार हिंदू-मुस्लिम आदि सभी वर्गों में समान रूप से देशा जाने लगा। तत्सगय में पीरों, सिद्धों संतों के साथ और राज्य शासकों व्यापारियों आदि को मानवता का संदेश देते रहे और वर्णभेद की अस्पृश्यता को दूर करके सामाजिक संगठन, अशिक्षित समाज के लोगों में साधारण संत संस्थानों द्वारा लौकिक/ पार लौकिक जागृति का ज्ञान बोध देते रहे, वह सर्वभावन मेघवंशियों में अद्यावधि परिपुष्ठ है। ऐसा देखा जा रहा है, यह गौरवता समाज को भान होनी चाहिए।
श्री रामदेवजी ने मेघवंशी समाज के लिए जो भी किया वो उस सामंती युग में एक मिसाल थी। लोग ताना देकर कहते है- ‘‘बाबे नंू मिलिया वो रिखिया’’, इस कहावता से पता चलता है कि रामदेवजी मेघवंशी समाज से ही घिरे रहते थे ताकि अपने भाईयों के सुख-दुख में हमेश साथ रहते थे। इसी प्रकारसामंती लोग उलाहना देकर कहते थे ‘‘बांभियों रे घरे बाबो तंदूरा, बजावे’’ इससे स्पष्ट होता कि श्री रामदेवजी ने अपनी लीला (भक्ति व शक्ति) मेघवंशियों के साथ ही रहकर प्रदर्शित की। रामदेवजी की समाधि के खोदने पर डाली बाई की निशानी आंटी-डोरा-कांगसी समाधि स्थल से निकलने पर रामदेवजी ने उसी स्थल को डाली बाई को समाधि की आज्ञा दी व स्वयं ने अन्य जगह समाधि ली।
यह एक विराट हृदयता का उदाहरण है। रामदेवजी ने अपने को मेघवंशियों की तरह समाधिस्त किया न कि चिता का वरण। आज आप पूरे भारत में लोकदेवता का कोमी एकता के प्रतीक के रूप में पूजे जाते है। करीब 575 वर्ष पहले उण्डू कश्मीर जिला बाड़मेर में अजमलजी के सेवक सायरजी मेघवंशी के घर रामदेवजी का जन्म हुआ। भविष्यवाणी के आधार पर अजमलजी ने भगवान का रूप समझ कर अपने घर में लालन-पालन के लिए सायरजी पर दबाव दे कर ले गए। उनका राजकुमार के रूप में लालन-पालन होने से सायरजी भी संतुष्ट हो गए तथा राजशाही वादे के कारण इस राज पर पर्दा डालने की सहमति सायरजी से ले ली गई।
वे बचपन से ही धार्मिक संस्कारों व कुरीतियों के खिलाफ सामाजिक आवाज उठाने लगे। बचपन से ही सामाजिक बुराइयों, छुआछूत, ऊंच-नीच, जाति-प्रथा, असहाय रोगियों को अपना समर्थन देने लगे। सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए सतगुरू बालीनाथजी की शक्ति से उनके द्वारा बाल अवस्था में ही कई चमत्कार पर्चे मानवता की भलाई लिए उजागर हुए जिससे दुनिया उन्हें भगवान का रूप मानने लगी। रामदेवजी ने गुरू बालीनाथजी की शक्क्ति व आशीर्वाद लेकर तत्कालीन दानव भैरव वध का सपना साकार करके मनुष्यों में दुबारा चैन व अमन की मनोकामना पूर्ण की। उस समय सबसे उपेक्षित समझी जाने वाली मेघवंशी जाति जिसकी छाया से ही दूसरी तथाकथित सवर्ण जाति भेद करती थी, बाबा ने उन्हें गले लगाकर मंदिरों में प्रवेश के लिए जन-जन चेतना जागृत की और जाति-पांती, छुआछूत का जड़ से खत्म करने की प्रेरणा दी और मेघवंशियों को भगवान की मालाएं वितरित की और उन्हें आराधना व भक्ति की शिक्षा दी।
लोककथा के अनुसार बाबा रामदेव ने अपनी सगी छोटी बहन डाली बाई के साथ समाज सेवा के लिए एक अभियान चलाया था। गांव-गांव जाकर छुआछूत के विरूद्ध अपनी आवाज तेज करने लगे तथा धार्मिक जागृति फैलाने लगे व मेघवंशी घरों में जम्मा (जागरण) करने लगे। एक बार भक्त शिरोमणि धारू मेघवंशी के घर जोधपुर के राव मालदेव की राणी रूपादे जो कि रावजी के मना करने के पश्चात् भी इसी जागरण में शामिल हुई जिसका रावजी को पता चलने पर क्रोधित हो कर सबूत के तौर पर नाई औरत के साथ रूपादे की जूती मंगवाई। नाई औरत चमत्कार के कारण जूती नहीं ले जा सकी तो रावजी खुद महल के दरवाजे पर खड़े होकर राणी रूपादे का इंतजार करने लगे और पूजा की थाली के बारे में पूछने लगे इसमें क्या है राणी ने घबराते हुए झूठ ही कह दिया कि वह तो बाग में फूल लाने गई, रावजी को फूलों के साथ पूरा बाग नजर आया और राणी के कदमों में झुक गए व राणी को गुरू की तरह ही खुद के लिए एक समर्थ गुरू का हाथ अपने सिर पर रखवाने का अनुनय-विनय करने लगे जिसेराणी ने मेघवंशियों के घरों में धार्मिक व ऊंच-नीच के लिए चलाए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने लगे। मेघवंशियों को समाज में बराबर का स्थान दिलाने के लिए सवर्णों से उनको उपेक्षा मिली तथा कई समस्याएं पैदा हुई। कई जगह अपमानित तथा लड़ाई-झगड़ा भी करना पड़ा। फिर भी मेघवंशियों के लिए संघर्ष जारी रखते हुए मंदिरों में प्रवेश करवाया, तालाब, बावडि़यों तथा कुओं से पानी भरने से हाने वाली छुआछूत के विरूद्ध जगह- जगह एक अभियान के रूप में समानता दिलाने का प्रयास किया। बाबा रामदेवजी को 33 वर्ष की अल्प आयु में ही समाधि हेतु विवश होना पड़ा।



समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।

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नवरत्न मन्डुसिया

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