गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

bharat ke sant mahatma (navratna mandusiya ko परिवार में ईश्वर भक्ति का माहौल मिला)


रविदास/Ravidas

संत कवि रविदास/ रैदास
का जन्म वाराणसी के पास एक गाँव में सन 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। रविवार के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम रविदास रखा गया।

बचपन से ही रविदास को परिवार में ईश्वर भक्ति का माहौल मिला जिससे उनकी रूचि प्रभु-भक्ति में और बढ़ गयी। किसी साधु-संत के आने की सूचना मिलते ही वे ख़ुशी से नाच उठते थे। संतों की सेवा को वह परम सौभाग्य समझते थे।  कुछ बड़ा होने पर उन्होंने अपना पैतृक कार्य अपना लिया। वह जूते बनाते, गांठते जाते और भजन करते रहते। जूते बनाकर वे जो कुछ भी कमाते उसका अधिकांश साधु-संतों की सेवा में लगा देते। यह देखकर उनके माता-पिता को चिंता होने लगी कि कहीं यह सन्यासी न बन जाये। अतः उन्होंने रविदास का विवाह कर दिया। भगवान की भक्ति में यह विवाह सहायक सिद्ध हुआ। अब रविदास को प्रभु-भक्ति के लिए एक और साथी मिल गया था। रविदास की प्रवृत्ति भक्ति की ओर निरंतर बढती रही। वह गृहस्थ होकर भी विरक्त संत बन गए।

रविदास साधु-संतों की सेवा में अधिक धन व्यय कर देते थे। कड़ी मेहनत से कमाए गए धन को इस तरह से उड़ा देना उनके माता-पिता को अच्छा नहीं लगता था। पिता द्वारा कई बार समझाने पर भी रविदास के इस स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया। अंततः उन्होंने रविदास और उनकी पत्नी को घर से अलग कर दिया। तब रविदास घर के पिछवाड़े एक वृक्ष के नीचे झोंपड़ी बनाकर परम वैष्णव भक्त का जीवन बिताने लगे। यह झोंपड़ी ही उनकी संपत्ति थी। उसमें उन्होंने भगवान राम की प्रतिमा प्रतिष्ठित कर रखी थी। वह प्रभु-भक्ति व साधु-सेवा भी करते रहे और अपना पैतृक काम करते हुए रोजी-रोटी भी कमाते रहे। वे जो कुछ कमाते उसी में संतोष कर लेते थे। कभी-कभी तो उन्हें पत्नी सहित भूखे पेट सोना पड़ जाता था।

रविदास परम संतोषी व्यक्ति थे और एक सच्चे संत की भांति प्रभु-भक्ति में लीन रहते थे। उनकी दृष्टि में सांसारिक सुख, धन आदि का कोई महत्त्व नहीं था। कहा जाता है कि एक बार एक साधु उनके घर आये। रविदास की साधु-सेवा और श्रद्धा-भक्ति देखकर वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने रविदास को पारसमणि देनी चाही, जो लोहे को छूते ही सोना बना देती है। रविदास ने पारसमणि लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उनके लिए राम से बड़ा कोई धन नहीं था। हारकर साधु पारसमणि को उनकी झोंपड़ी के छप्पर में खोंसकर चले गए। लगभग एक वर्ष बाद जब वह साधु वापस आये तो उन्हें पारसमणि यथास्थान रखी मिली। रविदास ने उसे छुआ तक नहीं था। रविदास की अनासक्ति देखकर वह आश्चर्यचकित रह गए। भक्तों का मानना है कि साधु के वेश में भगवान ही रविदास की परीक्षा लेने आये थे।

रविदास ने उस समय के प्रसिद्ध भक्त, दार्शनिक और गुरु स्वामी रामानंद से दीक्षा ली थी। गुरु रामानंद के सत्संग में उनके ज्ञानचक्षु पूरी तरह से खुल गए थे। वह अपना ज्ञान समस्त प्राणियों में बांटना चाहते थे। उन्होंने स्वयं लोगों को प्रवचन देना प्रारंभ कर दिया। उनके प्रवचनों में शास्त्रों की व्याख्या होती थी। वह आध्यात्मिक विषयों पर तर्कपूर्ण ज्ञान देते। प्रभावित होकर लोग उनके शिष्य बन जाते। वह सीधे-सरल पदों में गहरे भावों को भी बड़ी सरलता से प्रकट करते थे। धीरे-धीरे रविदास की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उनके अनुयायियों की संख्या भी बढ़ने लगी।

रविदास की वाणी अत्यंत सरल, सुबोध, उदार विचारों व भक्ति-भावना से पूर्ण थी। वह अत्यंत विनीत, राग-द्वेषहीन, खंडन-मंडन की प्रवृत्ति से परे रहने वाले संत बन चुके थे। लोग उनकी आचार-पद्धति और वेद-शास्त्र के अनुकूल वाणी का रसपान करने के लिए दूर-दूर से आते थे। आडम्बर से दूर वह वाणी जनमानस की शंकाओं को सहज ही दूर करती थी। रविदासजी के बारे में कुछ कथाएं भी प्रचलित हैं।

एक ब्राह्मण रोज गंगा-स्नान करने के लिए जाता था। एक दिन रविदासजी ने उसे बिना दाम लिए जूते पहना दिए और निवेदन किया की गंगा को मेरी ओर से एक सुपारी अर्पित कर देना। ऐसा कहकर उन्होंने एक सुपारी ब्राह्मण को दे दी। ब्राह्मण ने यथाविधि गंगा की पूजा की और चलते समय उपेक्षापूर्वक रविदास की सुपारी दूर से ही गंगाजल में फेंक दी। अगले ही पल वह ठगा सा खड़ा रह गया। उसने देखा कि गंगाजी ने स्वयं हाथ बढाकर फेंकी गयी वह सुपारी ले ली। वह रविदास की सराहना करने लगे, जिसकी कृपा से उसने गंगाजी के साक्षात् दर्शन किये। ब्राह्मण के माध्यम से पूरी काशी में रविदास की भक्ति की प्रसिद्धि फ़ैल गयी। रविदासजी पर गंगाजी की साक्षात् कृपा थी। रविदासजी की सिद्धावस्था के बारे में प्रचलित है कि उन्होंने अपनी कठौती में ही गंगाजी के दर्शन कर लिए थे। कहा जाता है की एक बार रविदासजी भक्तों से घिरे सत्संग कर रहे थे। सामने कठौती में जल रखा हुआ था। रविदास और अन्य भक्तों ने देखा की गंगाजी स्वयं कठौती के जल में प्रकट होकर कंकण दे रही हैं। रविदास ने गंगाजी को प्रणाम कर उनकी कृपा के प्रतीक उस कंकण को स्वीकार कर लिया।

सिद्धावस्था पाने के बाद भी रविदासजी ने अपना पुश्तैनी काम नहीं छोड़ा। एक बार एक ब्राह्मण गंगा-स्नान को जा रहा था। रास्ते में उसकी जूती टूट गयी तो वह उसे ठीक करवाने के लिए रविदास जी के पास पहुंचा। ब्राह्मण ने उन्हें दमड़ी देते हुए गंगा नहाकर पुण्य प्राप्त करने को कहा। रविदास बोले, "भई, मन चंगा तो कठौती में गंगा। मैं तो अपनी कठौती में ही गंगाजी के दर्शन कर लिया करता हूँ। किन्तु आप यह दमड़ी मेरी ओर से गंगाजी को भेंट कर देना।"  ब्राह्मण ने रविदासजी की दमड़ी गंगाजी को भेंट की, जिसे गंगाजी ने स्वयं आकर स्वीकार किया और बदले में बहुमूल्य रत्न-जडित सोने का अलौकिक कंगन रविदास को भेंट करने को कहा। कंगन देखकर ब्राह्मण के मन में लालच आ गया। उसने वह कंगन एक बनिए को बेच दिया। धीरे-धीरे बातों-बातों में कंगन की ख्याति फैलते हुए राजा तक जा पहुंची। राजा ने वह कंगन मंगवाया और उसकी चमक देखकर स्तब्ध रह गया। उसने अपनी रानी को वह कंगन भेंट कर दिया। कंगन का आकर्षण देखकर वह राजा से दूसरा कंगन मंगाने के लिए हठ करने लगी। तब बनिए के द्वारा ब्राह्मण को दरबार में बुलाया गया। अपनी जान बचाने के लिए उसने सारी घटना राजा को सुना दी। फलतः रविदास को दरबार में बुलाया गया। राजा से सारी घटना सुनकर वह रानी के हठ पर विचार करने लगे। सहसा उन्होंने ध्यान किया और अपना हाथ कठौती में डाला। अगले ही क्षण उनके हाथ में ठीक वैसा ही कंगन था। कंगन पर रेत भी लगी थी, मानो अभी नदी से लाया गया हो। राजा सहित सभी उपस्थित लोग रविदासजी की भक्ति की प्रशंसा करने लगे। इस प्रकार रविदासजी की भक्ति और चमत्कारों का प्रताप दूसरे राज्यों में भी फ़ैल गया। लोग उन्हें अपने घर बुलाने लगे। रविदास जी उनके बीच जाकर धर्म का प्रचार करते।                                 

एक बार एक धनी व्यक्ति उनके सत्संग में शामिल हुआ। सत्संग की समाप्ति पर संतों ने भगवान के चरणों का अमृतपान किया। धनी व्यक्ति ने यद्यपि चरणामृत ले लिया, किन्तु वह चमार के घर का था, इसलिए आँख बचाकर उसे फेंक दिया। घर आकर उसने स्नान किया और नए कपडे पहने। चूंकी चरणामृत की कुछ बूँदें उसके कपड़ों पर गिर गयी थीं इसलिए उसने वे कपडे एक कोढी व्यक्ति को दे दिए। कुछ ही दिनों में वह धनी व्यक्ति कोढ़ का शिकार हो गया, जबकि कोढी व्यक्ति का रोग धीरे-धीरे दूर हो गया। यह देखकर धनी व्यक्ति पुनः चरणामृत लेने आया; किन्तु उसके मन में आदर व श्रद्धा का भाव न था। यह जानकर रविदास ने कहा कि अब तो पानी ही बचा है, चरणामृत नहीं।

संत रविदास भक्त कवि और राजयोगी थे। उनकी दृष्टि में कर्म ही धर्म था। उनके कई भजन व पद आज भी बड़ी श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। "प्रभु जी तुम चंदन हम पानी..." रविदास जी का ही भजन है।
Please send corrections to {navratnasurera@yahoo.com&mandusiya@gmail.com]    {Last updated June 15, 2010}

1 टिप्पणी:

gopal raju ने कहा…

आधा-अधूरा है पर अच्छा है - बधाई ।
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