वन्दना
पिपरालिया एम. कोम. की छात्रा बनी राजलिया (नागोर) की
कम उम्र की सरपंच | वन्दना पिपरालिया ने राजलिया (नागोर) में पहुंचकर लोगों को चुनाव जीत जाने की सूचना दी तो लोग खुशी से नाचने लगे। उन्होंने गांव में लड्डू बांटे। इस अवसर पर कार्यकर्ताओं ने मिठाइयां बांटकर खुशी जाहिर वन्दना पिपरालिया
के सरपंच निर्वाचित होते ही राजलिया (नागोर) मे
खुशी की लहर दौड़ी
हमारे उद्देश्य: - मेघवाल समुदाय समृद्ध सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, मानसिक और सांस्कृतिक. मृत्यु भोज, शराब दुरुपयोग, बाल विवाह, बहुविवाह, दहेज, विदेशी शोषण, अत्याचार और समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अपराधों को रोकने के लिए और समाज के कमजोर लोगों का समर्थन की तरह प्रगति में बाधा कार्यों से छुटकारा पाने की कोशिश करेंगे :- नवरत्न मन्डुसिया
शनिवार, 27 जून 2015
शनिवार, 20 जून 2015
समाज , परिवार , (samaj)
व्यावहारिक रुप से समाज शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है । किन्तु वास्तविक रुप से समाज मानव समूह के अन्तर्गत व्यक्तियों के सम्बंधों की व्यवस्था का नाम है । समाज स्वयं एक संघ है संगठन है, औपचारिक सम्बंधों का योग है ।
समाज के प्रमुख स्तम्भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्बंध पति और पत्नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्तानोत्पत्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्बंधों का एक लम्बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्बों के स्वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्व करता था । मध्य काल तक लगभग परिवार की यही व्यवस्था चलती रही । किन्तु योरोपीय सभ्यता ने जब हमारी संस्कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्नी तथा अविवाहित बच्चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्य कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्यात्मिक मूल्यों पर यह व्यवस्था आधारित थी उन मूल्यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्पत्ति के संरक्षण, वंश विस्तार तथा पिता के मरणोपरान्त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्यक समझा जाने लगा तथा सन्तान का होना भी अत्यावश्यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्यवस्था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का परम्परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। भारतीय संस्कृति इसके जननी, भगिनी, पत्नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्वजनों के निमित्त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी । किन्तु भारतीय संस्कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । प्रकृति ने नर और नारी में भिन्नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्य है और कठोर परिश्रम के पश्चात् विश्राम की आवश्यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्नी रुप से अति निकट का सम्बन्ध है । नर-नारी सम्बन्धों का सुन्दर रुप दाम्पत्य जीवन है । क्योंकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्न समुदायों तथा वर्गों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्ड हैं जो स्त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्त्री से उच्च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्त अंतिम धार्मिक कृत्य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्वपूर्ण स्थान न देना आदि । इन्हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं की िस्थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
यद्यपि वर्तमान में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव, परिवार नियोजन की धारणा तथा व्यक्तिवादी सोच के कारण नारी स्वभाव में कुछ विकृति आई है । पूर्वकाल में जहॉं नारियॉं अपने दूध से दूसरों के बच्चों का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्य समझती थीं वहॉं कभी यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि ममता, करुणा, स्नेह और दया की देवी कही जाने वाली नारी अपने ही बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी । किन्तु वर्तमान में यह स्पष्ट रुप से दृष्टिगत हो रहा है । स्त्रियों द्वारा बच्चों को अपना दूध न पिलाना एक समस्या बन गयी है और इसी प्रकार यह कहना कि नारी सर्पिणी बन जायेगी अपने ही बच्चे की हत्यारिन होगी असंभव था, किन्तु आज बढ़ती हुई भ्रूण हत्या इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यद्यपि इसके लिए पुरुष व चिकित्सक भी कम जिम्मेदार नहीं है । भारत सरकार ने कानून बनाकर भ्रूण-हत्या को कानूनी अपराध करार दिया है ।
व्यक्तिवादी सोच एवं फिल्म संसार ने तो वर्तमान में सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है । स्मरणीय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी फिल्म निर्माता पर मुकद्मा चलाया गया । किन्तु आज फिल्मों में ही नहीं बल्कि चौराहों पर लगे पोस्टर में भारतीय नारियों को अर्द्धनग्न ही नहीं बल्कि अति नग्न तस्वीरें देखी जा सकती है । यदि समाज के इस परिवर्तन पर ध्यान न दिया गया इसे नियंत्रित करने का प्रयास न किया गया तो भविष्य में भारतीय नारी का आदर्श क्या होगा, कहना कठिन है ।
दाम्पत्य जीवन का फल संतान उत्पत्ति है । पहले भी लिखा जा चुका है कि नियोजित परिवार की धारणा के बावजूद भी कोई व्यक्ति पुत्रहीन होना पसंद नहीं करता । आज के बच्चे ही कल के स्त्री और पुरुष है । बाल्यावस्था में जो संस्कार बनते हैं वही बड़े होने पर प्रकट होते हैं । मॉं की गोद को बच्चे की पहली पाठशाला कहा गया है । प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययनों से पता चलता है कि मॉं अपने बच्चे को लोरियों और कहानियों के माध्यम से वीर गाथायें और सत्पुरुषों की कहानियां सुनाती थी, जिससे उनके अन्दर वीरता एवं सच्चाई के भाव पैदा होते थे और बड़े होकर वीर और सच्चे बालक के रुप में धरा को सुशोभित करते थे । कक्षा-3 की पुस्तक में सच्चा बालक नामक शीर्षक में यह पढ़ा था कि हजरत अब्दुल कादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैहे को उनकी मॉं ने सच्चाई का पाठ पढ़ाया था और यात्रा पर जाते समय यह समझाया था कि बेटा कभी झूठ मत बोलना । मॉं की इस नसीहत का बच्चे अब्दुल कादिर पर इतना गहरा असर था कि रास्ते में डाकुओं द्वारा काफिले का सारा माल लूटे जाने के पश्चात् जब उनसे उनके माल के बारे में पूछा गया तो उन्होंने सदरी में मॉं द्वारा छिपाकर रखी गई चालीस अशर्फियों को निकाल कर दिखा दिया, जबकि डाकू उन अशर्फियों को ढूंढने में असमर्थ थे । यह देखकर डाकुओं के सरदार ने आश्चर्य से पूछा ऐ लड़के । तुमने अपने छिपे हुए माल का पता हमें क्यों बता दिया, जबकि तुमको यह पता है कि हम डाकू हैं । बच्चे ने जवाब दिया कि चलते समय मेरी मॉं ने मुझसे कहा था, बेटा कभी झूठ मत बोलना तो मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ बच्चे की इस सच्चाई का डाकुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होने काफिले का लूटा हुआ सारा माल वापस कर दिया तथा हमेशा के लिए डकैती का परित्याग कर दिया
भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के सम्यक संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक आधार पर चार सूत्रीय व्यवस्था की योजना की थी । जिसके अनुसार मानव को 100 वर्ष का मानकर चार स्वाभाविक अवस्थाओं में विभक्त किया गया था, जिसके प्रथम 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) विद्या अध्ययन हेतु रखा गया था । बालक परिवार की पाठशाला छोड़ कर गुरु की पाठशाला में प्रवेश करता था । गुरु गाँव अथवा शहर के वातावरण से पृथक जगंल के शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में छात्र को विद्या अध्ययन कराते थे और अध्ययनोपरांत छात्र चरित्रवान, सुशील, सहनशील, धैर्यवान एवं आज्ञापालक बनकर अपने घर वापस लौटते थे यधपि शिक्षा का यह रूप बहुत सीमित था । समाज का हर व्यक्ति शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था आगे चलकर यह व्यवस्था समाप्त हो गयी और वर्तमान में समाज के हर व्यक्ति को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में परिवार के बाद दूसरी महत्वपूर्ण संस्था विद्यालय है । अधिकांश देशों में प्राथमिक स्तर तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गयी है । चूँकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । चूंकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । विद्यालय बालक को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला तथा भूगोल की जानकारी प्रदान करते है । कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान व्यक्ति को किन्हीं खास विषयों का विशिष्ट ज्ञान प्रदान करते हैं । वे व्यक्ति को इस योग्य बनाते है कि वे अपनी जीविका उपार्जित कर सकें और समाज का एक उपयोगी अंग बन सके । वर्तमान में शिक्षा संस्थाओं की बहुतायत है और इस संस्था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र, छात्राओं की भीड़ है । बालक, बालिकाएं समान रुप से तकनीकी एवं गैर-तकनीकी हर क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । किन्तु आज की सह-शिक्षा ने पाश्चात्य देशों की तरह हमारे देश में निरंकुश समाज को जन्म दिया है । जिसके परिणामस्वरुप युवक और युवतियों के आचार-विचार में काफी परिवर्तन आया है । आचरणहीनता, अशिष्टता तथा मर्यादा का निर्वाह न करना आम बात बन गयी है । शिक्षा संस्थाओं और शिक्षकों की बहुतायत होने के बावजूद भी समाज नैतिक पतन की और जा रहा है । इसके पीछे जो कारण प्रतीत होता है वह यह है कि शिक्षा का उद्देश्य लिखने-पढ़ने के योग्य बन जाना और शिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन का साधन प्राप्त कर लेना है । हमारी आज की शिक्षा में कहीं भी इस बात पर बल नहीं दिया गया है कि शिक्षा के माध्यम से चरित्र का निर्माण हो और मर्यादा का पालन किया जायेगा । आज का एक डाक्टर समाज का शिक्षित और संभ्रांत व्यक्ति है । क्या यह डाक्टर अपने भौतिक सुख के लिए अथवा भौतिक सुख को प्राइज़ करने के लिए अपनी कई पत्नियों, एक के बाद दूसरी को जहर का इंजेक्शन लगाकर मौत के घाट उतार सकता है क्या उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च अधिकारी पति-पत्नियों की आपसी आचरणहीनता एक दूसरे को आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकती है इस प्रकार की अनेकों खबरें समाचार पत्रों के माध्यम से आज के शिक्षित समाज की प्राप्त होती रहती है । जो आज के शिक्षित समाज के लिए एक अभिशाप है ।
परिवार और शिक्षण संस्थाओं के बाद व्यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का इलाका सबसे अधिक महत्व रखता है । पड़ोसी अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते है । उनके व्यवसाय धार्मिक विश्वास और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है, किन्तु पड़ोसी होने के कारण कुछ सम्मिलित जिम्मेदारियां होती है । जैसे पड़ोस में रहने वाले सभी लोगों का कल्याण इस बात में है कि गली-मुहल्ला साफ-सुथरा रहे, सभी लोग यह चाहेगें कि पड़ोस में शान्ति पूर्ण वातावरण रहे, सभी यह चाहेगें कि उनके बच्चे बुरी आदतों का शिकार न बनें और पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्वस्थ्य वातावरण बना रहे । अच्छे पड़ोसी के लिये यह आवश्यक है कि वह पास-पड़ोस को साफ-सुथरा रखें, पड़ोसियों के दु:ख दर्द में शामिल हो, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखें, चोरों और अजनबी लोगों पर नजर रखें, बच्चों को कुसंग से बचायें आदि ।
जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है समाजिक क्षेत्र का विस्तार होता चला जाता है । कई परिवारों से गॉंव, कस्बे शहर बनते हैं, तत्पश्चात् देश और सम्पूर्ण विश्व । पड़ोस से तात्पर्य सिर्फ घर से घर ही नहीं बल्कि गॉंव का पड़ोसी गॉंव, शहर का पड़ोसी शहर, देश का पड़ोसी देश इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व बनता है । हमारी संस्कृति तो वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव से परिपूर्ण है । सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना गया है और सबके ही सुख और कल्याण की कामना की गयी है ।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत् ।।
समाज के प्रमुख स्तम्भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्बंध पति और पत्नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्तानोत्पत्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्बंधों का एक लम्बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्बों के स्वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्व करता था । मध्य काल तक लगभग परिवार की यही व्यवस्था चलती रही । किन्तु योरोपीय सभ्यता ने जब हमारी संस्कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्नी तथा अविवाहित बच्चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्य कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्यात्मिक मूल्यों पर यह व्यवस्था आधारित थी उन मूल्यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्पत्ति के संरक्षण, वंश विस्तार तथा पिता के मरणोपरान्त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्यक समझा जाने लगा तथा सन्तान का होना भी अत्यावश्यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्यवस्था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का परम्परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। भारतीय संस्कृति इसके जननी, भगिनी, पत्नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्वजनों के निमित्त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी । किन्तु भारतीय संस्कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । प्रकृति ने नर और नारी में भिन्नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्य है और कठोर परिश्रम के पश्चात् विश्राम की आवश्यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्नी रुप से अति निकट का सम्बन्ध है । नर-नारी सम्बन्धों का सुन्दर रुप दाम्पत्य जीवन है । क्योंकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्न समुदायों तथा वर्गों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्ड हैं जो स्त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्त्री से उच्च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्त अंतिम धार्मिक कृत्य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्वपूर्ण स्थान न देना आदि । इन्हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं की िस्थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
यद्यपि वर्तमान में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव, परिवार नियोजन की धारणा तथा व्यक्तिवादी सोच के कारण नारी स्वभाव में कुछ विकृति आई है । पूर्वकाल में जहॉं नारियॉं अपने दूध से दूसरों के बच्चों का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्य समझती थीं वहॉं कभी यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि ममता, करुणा, स्नेह और दया की देवी कही जाने वाली नारी अपने ही बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी । किन्तु वर्तमान में यह स्पष्ट रुप से दृष्टिगत हो रहा है । स्त्रियों द्वारा बच्चों को अपना दूध न पिलाना एक समस्या बन गयी है और इसी प्रकार यह कहना कि नारी सर्पिणी बन जायेगी अपने ही बच्चे की हत्यारिन होगी असंभव था, किन्तु आज बढ़ती हुई भ्रूण हत्या इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यद्यपि इसके लिए पुरुष व चिकित्सक भी कम जिम्मेदार नहीं है । भारत सरकार ने कानून बनाकर भ्रूण-हत्या को कानूनी अपराध करार दिया है ।
व्यक्तिवादी सोच एवं फिल्म संसार ने तो वर्तमान में सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है । स्मरणीय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी फिल्म निर्माता पर मुकद्मा चलाया गया । किन्तु आज फिल्मों में ही नहीं बल्कि चौराहों पर लगे पोस्टर में भारतीय नारियों को अर्द्धनग्न ही नहीं बल्कि अति नग्न तस्वीरें देखी जा सकती है । यदि समाज के इस परिवर्तन पर ध्यान न दिया गया इसे नियंत्रित करने का प्रयास न किया गया तो भविष्य में भारतीय नारी का आदर्श क्या होगा, कहना कठिन है ।
दाम्पत्य जीवन का फल संतान उत्पत्ति है । पहले भी लिखा जा चुका है कि नियोजित परिवार की धारणा के बावजूद भी कोई व्यक्ति पुत्रहीन होना पसंद नहीं करता । आज के बच्चे ही कल के स्त्री और पुरुष है । बाल्यावस्था में जो संस्कार बनते हैं वही बड़े होने पर प्रकट होते हैं । मॉं की गोद को बच्चे की पहली पाठशाला कहा गया है । प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययनों से पता चलता है कि मॉं अपने बच्चे को लोरियों और कहानियों के माध्यम से वीर गाथायें और सत्पुरुषों की कहानियां सुनाती थी, जिससे उनके अन्दर वीरता एवं सच्चाई के भाव पैदा होते थे और बड़े होकर वीर और सच्चे बालक के रुप में धरा को सुशोभित करते थे । कक्षा-3 की पुस्तक में सच्चा बालक नामक शीर्षक में यह पढ़ा था कि हजरत अब्दुल कादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैहे को उनकी मॉं ने सच्चाई का पाठ पढ़ाया था और यात्रा पर जाते समय यह समझाया था कि बेटा कभी झूठ मत बोलना । मॉं की इस नसीहत का बच्चे अब्दुल कादिर पर इतना गहरा असर था कि रास्ते में डाकुओं द्वारा काफिले का सारा माल लूटे जाने के पश्चात् जब उनसे उनके माल के बारे में पूछा गया तो उन्होंने सदरी में मॉं द्वारा छिपाकर रखी गई चालीस अशर्फियों को निकाल कर दिखा दिया, जबकि डाकू उन अशर्फियों को ढूंढने में असमर्थ थे । यह देखकर डाकुओं के सरदार ने आश्चर्य से पूछा ऐ लड़के । तुमने अपने छिपे हुए माल का पता हमें क्यों बता दिया, जबकि तुमको यह पता है कि हम डाकू हैं । बच्चे ने जवाब दिया कि चलते समय मेरी मॉं ने मुझसे कहा था, बेटा कभी झूठ मत बोलना तो मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ बच्चे की इस सच्चाई का डाकुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होने काफिले का लूटा हुआ सारा माल वापस कर दिया तथा हमेशा के लिए डकैती का परित्याग कर दिया
भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के सम्यक संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक आधार पर चार सूत्रीय व्यवस्था की योजना की थी । जिसके अनुसार मानव को 100 वर्ष का मानकर चार स्वाभाविक अवस्थाओं में विभक्त किया गया था, जिसके प्रथम 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) विद्या अध्ययन हेतु रखा गया था । बालक परिवार की पाठशाला छोड़ कर गुरु की पाठशाला में प्रवेश करता था । गुरु गाँव अथवा शहर के वातावरण से पृथक जगंल के शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में छात्र को विद्या अध्ययन कराते थे और अध्ययनोपरांत छात्र चरित्रवान, सुशील, सहनशील, धैर्यवान एवं आज्ञापालक बनकर अपने घर वापस लौटते थे यधपि शिक्षा का यह रूप बहुत सीमित था । समाज का हर व्यक्ति शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था आगे चलकर यह व्यवस्था समाप्त हो गयी और वर्तमान में समाज के हर व्यक्ति को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में परिवार के बाद दूसरी महत्वपूर्ण संस्था विद्यालय है । अधिकांश देशों में प्राथमिक स्तर तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गयी है । चूँकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । चूंकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । विद्यालय बालक को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला तथा भूगोल की जानकारी प्रदान करते है । कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान व्यक्ति को किन्हीं खास विषयों का विशिष्ट ज्ञान प्रदान करते हैं । वे व्यक्ति को इस योग्य बनाते है कि वे अपनी जीविका उपार्जित कर सकें और समाज का एक उपयोगी अंग बन सके । वर्तमान में शिक्षा संस्थाओं की बहुतायत है और इस संस्था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र, छात्राओं की भीड़ है । बालक, बालिकाएं समान रुप से तकनीकी एवं गैर-तकनीकी हर क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । किन्तु आज की सह-शिक्षा ने पाश्चात्य देशों की तरह हमारे देश में निरंकुश समाज को जन्म दिया है । जिसके परिणामस्वरुप युवक और युवतियों के आचार-विचार में काफी परिवर्तन आया है । आचरणहीनता, अशिष्टता तथा मर्यादा का निर्वाह न करना आम बात बन गयी है । शिक्षा संस्थाओं और शिक्षकों की बहुतायत होने के बावजूद भी समाज नैतिक पतन की और जा रहा है । इसके पीछे जो कारण प्रतीत होता है वह यह है कि शिक्षा का उद्देश्य लिखने-पढ़ने के योग्य बन जाना और शिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन का साधन प्राप्त कर लेना है । हमारी आज की शिक्षा में कहीं भी इस बात पर बल नहीं दिया गया है कि शिक्षा के माध्यम से चरित्र का निर्माण हो और मर्यादा का पालन किया जायेगा । आज का एक डाक्टर समाज का शिक्षित और संभ्रांत व्यक्ति है । क्या यह डाक्टर अपने भौतिक सुख के लिए अथवा भौतिक सुख को प्राइज़ करने के लिए अपनी कई पत्नियों, एक के बाद दूसरी को जहर का इंजेक्शन लगाकर मौत के घाट उतार सकता है क्या उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च अधिकारी पति-पत्नियों की आपसी आचरणहीनता एक दूसरे को आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकती है इस प्रकार की अनेकों खबरें समाचार पत्रों के माध्यम से आज के शिक्षित समाज की प्राप्त होती रहती है । जो आज के शिक्षित समाज के लिए एक अभिशाप है ।
परिवार और शिक्षण संस्थाओं के बाद व्यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का इलाका सबसे अधिक महत्व रखता है । पड़ोसी अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते है । उनके व्यवसाय धार्मिक विश्वास और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है, किन्तु पड़ोसी होने के कारण कुछ सम्मिलित जिम्मेदारियां होती है । जैसे पड़ोस में रहने वाले सभी लोगों का कल्याण इस बात में है कि गली-मुहल्ला साफ-सुथरा रहे, सभी लोग यह चाहेगें कि पड़ोस में शान्ति पूर्ण वातावरण रहे, सभी यह चाहेगें कि उनके बच्चे बुरी आदतों का शिकार न बनें और पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्वस्थ्य वातावरण बना रहे । अच्छे पड़ोसी के लिये यह आवश्यक है कि वह पास-पड़ोस को साफ-सुथरा रखें, पड़ोसियों के दु:ख दर्द में शामिल हो, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखें, चोरों और अजनबी लोगों पर नजर रखें, बच्चों को कुसंग से बचायें आदि ।
जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है समाजिक क्षेत्र का विस्तार होता चला जाता है । कई परिवारों से गॉंव, कस्बे शहर बनते हैं, तत्पश्चात् देश और सम्पूर्ण विश्व । पड़ोस से तात्पर्य सिर्फ घर से घर ही नहीं बल्कि गॉंव का पड़ोसी गॉंव, शहर का पड़ोसी शहर, देश का पड़ोसी देश इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व बनता है । हमारी संस्कृति तो वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव से परिपूर्ण है । सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना गया है और सबके ही सुख और कल्याण की कामना की गयी है ।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत् ।।
नीली बलाई ने खोजी पत्रकारिता का इतिहास बदल दिया
एलिज़ाबेथ जेन कोकरेन उ़र्फ नीली बलाई को जब वर्ष 1887 में पिट्सबर्ग डिस्पैच अख़बार ने एक बार फिर उन्हें थिएटर और आर्ट्स की रिपोर्टिंग का काम सौंपा, तो उन्होंने यह फैसला कर लिया कि अब पिट्सबर्ग डिस्पैच में उनके दिन पूरे हो गए हैं. यहां से निकलने के बाद उन्होंने सीधे आधुनिक पत्रकारिता के पितामह कहे जाने वाले जोसफ पुलित्ज़र के अख़बार द न्यूयॉर्क वर्ल्ड का रुख किया. यह ऐसा क़दम था, जो उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकाल कर पत्रकारिता की शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाने वाला था. द न्यूयॉर्क वर्ल्ड में क़दम रखने के कुछ वर्ष बाद उन्हें अख़बार की तरफ से एक अंडरकवर रिपोर्टिंग की पेशकश की गई.
द न्यूयॉर्क वर्ल्ड अखबार के एडिटर अपने अख़बार के नौजवान और ख़ूबसूरत रिपोर्टर नीली बलाई को एक बहुत ही खतरनाक और दिलचस्प मिशन के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे थे- हम तुम्हें वहां इसलिए नहीं भेज रहे हैं कि वहां जाकर कोई सनसनीखेज़
खुलासा करो. हां, तुम से यह आशा ज़रूर है कि चीज़ों को जिस तरह से देखो, वैसे ही लिख डालो. अगर बुरी हैं, तो बुरी और अच्छी हैं, तो अच्छी. नीली एडिटर की बात सुनकर मुस्कुराई थी. लेकिन तुम्हारी यह मानीखेज मुस्कराहट मुझे डरा रही है. एडिटर की बात सुनकर नीली ने जवाब में सिर्फ इतना कहा था-अब मैं बिल्कुल नहीं मुस्कुराउंगी. वह एडिटर के कमरे से भारी क़दमों से बहार निकल कर उस दिलचस्प और खतरनाक मिशन के लिए खुद को तैयार करने लगीं. हालांकि नीली को खुद पर भरोसा था, लेकिन मिशन के खतरों के मद्देनज़र उन्हें खुद को तैयार करने में काफी समय लग गया. यह मिशन था न्यूयॉर्क स्थित ब्लैकवेल आइलैंड पागलखाने की क्रियाकलापों की वास्तविक हालात को जनता के सामने लाने का. चूंकि यह पागलखाना एक द्वीप पर स्थित था, इसलिए आम लोगों की बात कौन करे, वहां इलाज करवा रहे मरीजों के रिश्तेदारों के लिए भी इस पर नज़र रख पाना नामुमकिन था. इसी वजह से इस काम को द न्यूयॉर्क वर्ल्ड अख़बार ने अपने हाथों में लेकर यहां की कार्यप्रणाली पर एक विस्तृत और वास्तविक रिपोर्ट प्रकाशित करने का फैसला किया. अख़बार के एडिटर के पास इस काम के लिए नीली बलाई से उपयुक्त कोई दूसरा पत्रकार नहीं मिला.
एलिज़ाबेथ जेन कोकरेन उ़र्फ नीली बलाई को जब वर्ष 1887 में पिट्सबर्ग डिस्पैच अख़बार ने एक बार फिर उन्हें थिएटर और आर्ट्स की रिपोर्टिंग का काम सौंपा, तो उन्होंने यह फैसला कर लिया कि अब पिट्सबर्ग डिस्पैच में उनके दिन पूरे हो गए हैं. यहां से निकलने के बाद उन्होंने सीधे आधुनिक पत्रकारिता के पितामह कहे जाने वाले जोसफ पुलित्ज़र के अख़बार द न्यूयॉर्क वर्ल्ड का रुख किया. यह ऐसा क़दम था, जो उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकाल कर पत्रकारिता की शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाने वाला था. द न्यूयॉर्क वर्ल्ड में क़दम रखने के कुछ वर्ष बाद उन्हें अख़बार की तरफ से एक अंडरकवर रिपोर्टिंग की पेशकश की गई. अख़बार के एडिटर नें इस रिपोर्टिंग से जुड़े खतरे को देखते हुए उन्हें इस मिशन पर जाने के लिए मन बनाने का पूरा समय दिया, क्योंकि नीली को ब्लैकवेल आइलैंड पागलखाने में एक पागल के रूप में दाखिल होना था, जिसमें मेडिकल जांच की प्रक्रिया से भी गुजरना शामिल था. काम बहुत ही खतरनाक और नाज़ुक था, क्योंकि एक गलत कदम पूरे मिशन को तहस-नहस कर देता.
जब नीली ने इस काम के लिए खुद को तैयार कर लिए, तब भी उनके मन में कई आशंकाएं थीं, जिन्हें वह दूर करना चाहती थीं. सबसे पहली आशंका यह कि वह पागल खाने कैसे पहुंचेंगीं. अगर पागल बन कर वहां पहुंच गईं, तो उन्हें वहां से निकालने के लिए कौन आएगा, कब आएगा? अख़बार के एडिटर ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह समय रहते उन्हें वहां से निकाल लाएंगे.
नीली ने कई रातों तक पागल दिखने का अभ्यास किया. जब वह खुद से आस्वस्थ हो गईं, तो उन्होंने कामकाजी महिलाओं के बोर्डिंग हाउस के रास्ते ब्लैकवेल आइलैंड पागल खाने में दाखिल होने का फैसला किया. बोर्डिंग हाउस में अपनी पहली ही रात को उन्होंने अपने बिस्तर में जाने से इंकार कर दिया. कहने लगीं कि यहां सभी पागल हैं और उन्हें उन सब से डर लग रहा है. फिर क्या था, दूसरे दिन ही पुलिस आ गई. नीली को अदालत में पेश किया गया. जज इस नतीजे पर पहुंचे कि उन्हें कोई नशीली दवा दी गई है. उसके बाद अदालत के आदेश पर उनकी जांच हुई. जांच के बाद एक के बाद एक कई डॉक्टरों ने उन्हें पागल घोषित कर दिया. मैं इस केस से नाउम्मीद हूं. मेरे हिसाब से मरीज़ को वहां होना चाहिए, जहां उसका पूरा ख्याल रखा जा सके, डॉक्टरों में से एक ने अपनी रिपोर्ट में कहा था. डॉक्टरी जांच में क्या हुआ, नीली को पता नहीं चला, क्योंकि मेडिकल को धोखा देने के लिए उन्होंने कुछ नशीली दवाइयां ले रखी थीं. एक अंजान पागल और रहस्यमयी लड़की का मामला अख़बारों की सुर्ख़ियों में भी छाया रहा, जो हताशापूर्ण लहजे में चीख रही थी-मैं कौन हूं, मुझे मालूम नहीं है. नीली का मकसद पूरा हो चूका था. वह अपने काम में लग चुकी थीं. उन्होंने ब्लैकवेल आइलैंड अस्पताल में देखा कि वहां का खाना घटिया था. पीने का पानी जानवरों के पीने के लिहाज़ से भी गन्दा था. खतरनाक मरीजों को एक साथ रस्सियों में बांध कर रखा गया था. मरीजों को लगातार सख्त सर्दी में बाहर बैठने पर मजबूर किया जा रहा था. अस्पताल में चारों तरफ चूहों का राज था. नहाने का पानी बर्फ बना हुआ था. नर्सें डाइनों की तरह थीं और बिना गाली के बात नहीं करती थीं. नीली लिखतीं हैं-मेरे दांत बज रहे थे. ठंड से मेरी हड्डियां चटक रहीं थीं. पूरे दिन के लिए मुझे तीन बाल्टी बर्फ की तरह ठंडा पानी दिया गया. कुल मिला कर यह जगह इंसानों के लिए नहीं थी.
दस दिन ब्लैकवेल आइलैंड में गुजरने के बाद योजना के मुताबिक नीली को बाहर निकाल लिया गया. वहां से निकलने के बाद उन्होंने यहां गुज़ारे वक़्त की याद पहले उनके अख़बार में छपी. उसके बाद उसे किताबी शक्ल में टेन डेज इन ए मैड-हाउस के नाम से छपा गया. जहां यह रिपोर्ट अस्पताल के डॉक्टरों और स्टाफ को कठघरे में खड़ा किया, वहीं अधिकारियों ने इस उपेक्षित अस्पताल पर ध्यान देना शुरू किया. न्यूयॉर्क की ग्रैंड जूरी ने खुद अपना अलग जांच करवा कर यहां की हालत सुधारने के लिए अपने सुझाव रखे. सरकार ने देश के पागलखानों के लिए फंड में 8.5 लाख डॉलर का इजाफा किया और नीली ने खोजी पत्रकारिता के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया. इसके बाद नीली बलाई को दुनिया घूमने के लिए एक दूसरा असाइनमेंट मिला, जिसके बारे में उन्होंने अराउंड द वर्ल्ड इन एट डेज नामक किताब में लिखी है.
http://www.chauthiduniya.com/2015/04/itihas-badal-diya.html
द न्यूयॉर्क वर्ल्ड अखबार के एडिटर अपने अख़बार के नौजवान और ख़ूबसूरत रिपोर्टर नीली बलाई को एक बहुत ही खतरनाक और दिलचस्प मिशन के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे थे- हम तुम्हें वहां इसलिए नहीं भेज रहे हैं कि वहां जाकर कोई सनसनीखेज़
खुलासा करो. हां, तुम से यह आशा ज़रूर है कि चीज़ों को जिस तरह से देखो, वैसे ही लिख डालो. अगर बुरी हैं, तो बुरी और अच्छी हैं, तो अच्छी. नीली एडिटर की बात सुनकर मुस्कुराई थी. लेकिन तुम्हारी यह मानीखेज मुस्कराहट मुझे डरा रही है. एडिटर की बात सुनकर नीली ने जवाब में सिर्फ इतना कहा था-अब मैं बिल्कुल नहीं मुस्कुराउंगी. वह एडिटर के कमरे से भारी क़दमों से बहार निकल कर उस दिलचस्प और खतरनाक मिशन के लिए खुद को तैयार करने लगीं. हालांकि नीली को खुद पर भरोसा था, लेकिन मिशन के खतरों के मद्देनज़र उन्हें खुद को तैयार करने में काफी समय लग गया. यह मिशन था न्यूयॉर्क स्थित ब्लैकवेल आइलैंड पागलखाने की क्रियाकलापों की वास्तविक हालात को जनता के सामने लाने का. चूंकि यह पागलखाना एक द्वीप पर स्थित था, इसलिए आम लोगों की बात कौन करे, वहां इलाज करवा रहे मरीजों के रिश्तेदारों के लिए भी इस पर नज़र रख पाना नामुमकिन था. इसी वजह से इस काम को द न्यूयॉर्क वर्ल्ड अख़बार ने अपने हाथों में लेकर यहां की कार्यप्रणाली पर एक विस्तृत और वास्तविक रिपोर्ट प्रकाशित करने का फैसला किया. अख़बार के एडिटर के पास इस काम के लिए नीली बलाई से उपयुक्त कोई दूसरा पत्रकार नहीं मिला.
एलिज़ाबेथ जेन कोकरेन उ़र्फ नीली बलाई को जब वर्ष 1887 में पिट्सबर्ग डिस्पैच अख़बार ने एक बार फिर उन्हें थिएटर और आर्ट्स की रिपोर्टिंग का काम सौंपा, तो उन्होंने यह फैसला कर लिया कि अब पिट्सबर्ग डिस्पैच में उनके दिन पूरे हो गए हैं. यहां से निकलने के बाद उन्होंने सीधे आधुनिक पत्रकारिता के पितामह कहे जाने वाले जोसफ पुलित्ज़र के अख़बार द न्यूयॉर्क वर्ल्ड का रुख किया. यह ऐसा क़दम था, जो उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकाल कर पत्रकारिता की शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाने वाला था. द न्यूयॉर्क वर्ल्ड में क़दम रखने के कुछ वर्ष बाद उन्हें अख़बार की तरफ से एक अंडरकवर रिपोर्टिंग की पेशकश की गई. अख़बार के एडिटर नें इस रिपोर्टिंग से जुड़े खतरे को देखते हुए उन्हें इस मिशन पर जाने के लिए मन बनाने का पूरा समय दिया, क्योंकि नीली को ब्लैकवेल आइलैंड पागलखाने में एक पागल के रूप में दाखिल होना था, जिसमें मेडिकल जांच की प्रक्रिया से भी गुजरना शामिल था. काम बहुत ही खतरनाक और नाज़ुक था, क्योंकि एक गलत कदम पूरे मिशन को तहस-नहस कर देता.
जब नीली ने इस काम के लिए खुद को तैयार कर लिए, तब भी उनके मन में कई आशंकाएं थीं, जिन्हें वह दूर करना चाहती थीं. सबसे पहली आशंका यह कि वह पागल खाने कैसे पहुंचेंगीं. अगर पागल बन कर वहां पहुंच गईं, तो उन्हें वहां से निकालने के लिए कौन आएगा, कब आएगा? अख़बार के एडिटर ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह समय रहते उन्हें वहां से निकाल लाएंगे.
नीली ने कई रातों तक पागल दिखने का अभ्यास किया. जब वह खुद से आस्वस्थ हो गईं, तो उन्होंने कामकाजी महिलाओं के बोर्डिंग हाउस के रास्ते ब्लैकवेल आइलैंड पागल खाने में दाखिल होने का फैसला किया. बोर्डिंग हाउस में अपनी पहली ही रात को उन्होंने अपने बिस्तर में जाने से इंकार कर दिया. कहने लगीं कि यहां सभी पागल हैं और उन्हें उन सब से डर लग रहा है. फिर क्या था, दूसरे दिन ही पुलिस आ गई. नीली को अदालत में पेश किया गया. जज इस नतीजे पर पहुंचे कि उन्हें कोई नशीली दवा दी गई है. उसके बाद अदालत के आदेश पर उनकी जांच हुई. जांच के बाद एक के बाद एक कई डॉक्टरों ने उन्हें पागल घोषित कर दिया. मैं इस केस से नाउम्मीद हूं. मेरे हिसाब से मरीज़ को वहां होना चाहिए, जहां उसका पूरा ख्याल रखा जा सके, डॉक्टरों में से एक ने अपनी रिपोर्ट में कहा था. डॉक्टरी जांच में क्या हुआ, नीली को पता नहीं चला, क्योंकि मेडिकल को धोखा देने के लिए उन्होंने कुछ नशीली दवाइयां ले रखी थीं. एक अंजान पागल और रहस्यमयी लड़की का मामला अख़बारों की सुर्ख़ियों में भी छाया रहा, जो हताशापूर्ण लहजे में चीख रही थी-मैं कौन हूं, मुझे मालूम नहीं है. नीली का मकसद पूरा हो चूका था. वह अपने काम में लग चुकी थीं. उन्होंने ब्लैकवेल आइलैंड अस्पताल में देखा कि वहां का खाना घटिया था. पीने का पानी जानवरों के पीने के लिहाज़ से भी गन्दा था. खतरनाक मरीजों को एक साथ रस्सियों में बांध कर रखा गया था. मरीजों को लगातार सख्त सर्दी में बाहर बैठने पर मजबूर किया जा रहा था. अस्पताल में चारों तरफ चूहों का राज था. नहाने का पानी बर्फ बना हुआ था. नर्सें डाइनों की तरह थीं और बिना गाली के बात नहीं करती थीं. नीली लिखतीं हैं-मेरे दांत बज रहे थे. ठंड से मेरी हड्डियां चटक रहीं थीं. पूरे दिन के लिए मुझे तीन बाल्टी बर्फ की तरह ठंडा पानी दिया गया. कुल मिला कर यह जगह इंसानों के लिए नहीं थी.
दस दिन ब्लैकवेल आइलैंड में गुजरने के बाद योजना के मुताबिक नीली को बाहर निकाल लिया गया. वहां से निकलने के बाद उन्होंने यहां गुज़ारे वक़्त की याद पहले उनके अख़बार में छपी. उसके बाद उसे किताबी शक्ल में टेन डेज इन ए मैड-हाउस के नाम से छपा गया. जहां यह रिपोर्ट अस्पताल के डॉक्टरों और स्टाफ को कठघरे में खड़ा किया, वहीं अधिकारियों ने इस उपेक्षित अस्पताल पर ध्यान देना शुरू किया. न्यूयॉर्क की ग्रैंड जूरी ने खुद अपना अलग जांच करवा कर यहां की हालत सुधारने के लिए अपने सुझाव रखे. सरकार ने देश के पागलखानों के लिए फंड में 8.5 लाख डॉलर का इजाफा किया और नीली ने खोजी पत्रकारिता के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया. इसके बाद नीली बलाई को दुनिया घूमने के लिए एक दूसरा असाइनमेंट मिला, जिसके बारे में उन्होंने अराउंड द वर्ल्ड इन एट डेज नामक किताब में लिखी है.
http://www.chauthiduniya.com/2015/04/itihas-badal-diya.html
जोधपुर किले की नींव में दलितों की बलि की दास्तान
राजस्थान में राजा रजवाड़ों के जमाने से तालाबों, किलों, मंदिरों व यज्ञों में ज्योतिषियों की सलाहपर शूद्रों को जीवित गाड़कर या जलाकर बलि देने की परम्परा थी। अमर शहीद राजा राम मेघवाल भी उनमें से एक है। जोधपुर के राजा राव जोधा के शासन काल में जोधपुर की पहाड़ियों पर विशाल मेहरानगढ़ किले का निर्माण हुआ था। इसी गगनचुम्बी भव्य किले की नींव में ज्योतिषी गणपतदत्त की सलाह पर 15मई 1459 को दलित राजाराम मेघवाल उसकी माता केसर व पिता मोहणसी को नींव में चुना गया। राजपूत राजाओं में यह अंधविश्वास चला आ रहा था कि यदि किसी किले की नींव में कोई जीवित पुरूष की बलि दी जाय तो वह किला हमेशा राजा के अधिकार में रहेगा, हमेशा विजयी होगा और राजा का खजाना हमेशा भरा रहेगा। उस काल में सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के अनुसार अछूत की छाया तक से घृणा की जाती थी लेकिन जब नर बलि की बात आती थी तो हमेशा अछूतों को पकड़ कर जिंदा गाड़ा जाता था। शूरवीर कहलाने वाले न क्षत्रिय आगे आते थे, न विद्वान कहलाने वाले पंडित और न ही राजा का गुणगान करने वाले चाटुकार अपनी नरबलि के लिए तैयार होते थे।
राजाराम के इस महान बलिदान को जातिवादी मानसिकता के इतिहासकारों ने सिर्फ डेढ़ लाइन में समेट लिया। जहां राजाराम की बलि दी गई थी उस स्थान के ऊपर विशाल किले का खजाना व नक्कारखाने वाला भाग स्थित है। किले में रोजाना हजारों देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं लेकिन उन्हें उस लोमहर्षक घटना के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है। एक दीवार पर एक छोटा-सा पत्थर जरूर चिपकाया गया है जो किसी पर्यटक को नजर ही नहीं आता है उस पत्थर पर धुंधले अक्षरों में राजाराम की शहादत की तारीख खुदी हुई है। राजाराम मेघवंशी की शहादत जैसी घटनाओं की अनगिनत कहानियां राजस्थान के हर कोने में बिखरी पड़ी हैं। महाराणा प्रताप की सेना में लड़ने वाले दलित आदिवासियों का महान योगदान रहा है। विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने दलितों आदिवासियों ने कुर्बानी दी लेकिन इतिहास में उनका कहीं भी नामोनिशान नहीं है। दलित चिंतकों, संतों, क्रांतिकारियों व बलिदानियों को इतिहास में पूरी तरह से हाशिए पर रखा। अब दलितों द्वारा अपना गौरवषाली इतिहास लिखा जा रहा है। इसी कड़ी में ''अमर शहीद राजाराम मेघवाल'' नामक पुस्तक उस लोमहर्षक घटना की सच्चाई को सामने लाने वाली है जिसमें राव भाटों की बहियों, शिलालेखों व कई ऐतिहासिक दस्तावेजों को शामिल किया गया है। डा. एल.एल. परिहार द्वारा लिखित पुस्तक जहां एक ओर दलितों में वैचारिक जागृति पैदा करती है वहीं दूसरी ओर राजा, शासक, अमीर या आम व्यक्ति को यह सीख देती है कि धार्मिक कुप्रथाओं, अंधविश्विसों व अमानवीय परम्पराओं के आगे नतमस्तक न हों व अपने विवेक, तर्क व बुद्धि का प्रयोग कर वैज्ञानिक सोच के साथ मानव कल्याण की राह चलें। महा मानव बुद्ध की राह चलें। करुणा,दया, प्रेम, मैत्री व शील का पालन करें। अंधविश्वासों, पाखण्डों, कर्मकांडों व कुप्रथाओं से समाज व देश का भारी नुकसान हुआ है। जिसका सबसे अधिक खामियाजा दलित वंचित वर्ग को भुगतना पड़ा है। इतिहास की यह लघु पुस्तक आवश्यक चित्रों के कारण काफी पठनीय व रोचक बन गई है। मूल्य मात्र 60 रूपये रखा ताकि मजदूर भी खरीदकर पढ़ सके।
समीक्षक-सुनील कुमार
प्रकाशक- बुद्धम पबिलशर्स, 21-।, धर्मपार्क श्यामनगर, जयपुर 302019 मो. 9414242059
राजाराम के इस महान बलिदान को जातिवादी मानसिकता के इतिहासकारों ने सिर्फ डेढ़ लाइन में समेट लिया। जहां राजाराम की बलि दी गई थी उस स्थान के ऊपर विशाल किले का खजाना व नक्कारखाने वाला भाग स्थित है। किले में रोजाना हजारों देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं लेकिन उन्हें उस लोमहर्षक घटना के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है। एक दीवार पर एक छोटा-सा पत्थर जरूर चिपकाया गया है जो किसी पर्यटक को नजर ही नहीं आता है उस पत्थर पर धुंधले अक्षरों में राजाराम की शहादत की तारीख खुदी हुई है। राजाराम मेघवंशी की शहादत जैसी घटनाओं की अनगिनत कहानियां राजस्थान के हर कोने में बिखरी पड़ी हैं। महाराणा प्रताप की सेना में लड़ने वाले दलित आदिवासियों का महान योगदान रहा है। विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने दलितों आदिवासियों ने कुर्बानी दी लेकिन इतिहास में उनका कहीं भी नामोनिशान नहीं है। दलित चिंतकों, संतों, क्रांतिकारियों व बलिदानियों को इतिहास में पूरी तरह से हाशिए पर रखा। अब दलितों द्वारा अपना गौरवषाली इतिहास लिखा जा रहा है। इसी कड़ी में ''अमर शहीद राजाराम मेघवाल'' नामक पुस्तक उस लोमहर्षक घटना की सच्चाई को सामने लाने वाली है जिसमें राव भाटों की बहियों, शिलालेखों व कई ऐतिहासिक दस्तावेजों को शामिल किया गया है। डा. एल.एल. परिहार द्वारा लिखित पुस्तक जहां एक ओर दलितों में वैचारिक जागृति पैदा करती है वहीं दूसरी ओर राजा, शासक, अमीर या आम व्यक्ति को यह सीख देती है कि धार्मिक कुप्रथाओं, अंधविश्विसों व अमानवीय परम्पराओं के आगे नतमस्तक न हों व अपने विवेक, तर्क व बुद्धि का प्रयोग कर वैज्ञानिक सोच के साथ मानव कल्याण की राह चलें। महा मानव बुद्ध की राह चलें। करुणा,दया, प्रेम, मैत्री व शील का पालन करें। अंधविश्वासों, पाखण्डों, कर्मकांडों व कुप्रथाओं से समाज व देश का भारी नुकसान हुआ है। जिसका सबसे अधिक खामियाजा दलित वंचित वर्ग को भुगतना पड़ा है। इतिहास की यह लघु पुस्तक आवश्यक चित्रों के कारण काफी पठनीय व रोचक बन गई है। मूल्य मात्र 60 रूपये रखा ताकि मजदूर भी खरीदकर पढ़ सके।
समीक्षक-सुनील कुमार
प्रकाशक- बुद्धम पबिलशर्स, 21-।, धर्मपार्क श्यामनगर, जयपुर 302019 मो. 9414242059
वसुधंरा राजे ने सराहीं हेमलता मेघवाल की कृति
मेघवाल समाज भले ही सदीयों से दबा-कुचला रहा हो। लेकिन जैसे ही इस समाज को आगे आने का मौका मिला तो फिर यह पिछे नहीं हटा। प्रशासन,सरकारी सेवा,राजनीति,आईटी,उद्योग हो या फिर कला का क्षेत्र। चित्रकला के क्षेत्र में तो कई मूर्धन्य कलाकार अपने समाज नाम रोशन कर रहे हैं। इसी तरह से पिछले दिनों पाली जिले की एक बालिका की चित्रकृति ने समूचा मेघवाल समाज का नाम गौरवान्वित कर दिया। यह कृति तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे को इतनी भायी कि उन्होंने खुद एक पत्र लिखकर उसकी तारीफ की। यह बालिका हैं कुमारी हेमलता। इस छात्रा ने पिछली 2 सितम्बर 2008 को राज्य स्तरीय चित्रकला प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था। उसकी चित्रकृति लाजवाब थी। इससे प्रभावित होकर मुख्यमंत्री राजे ने इस होनहार बालिका को पत्र लिखकर मुक्तकंठ से सराहना की। इस कृति को आर्ट एट दी सचिवालय में प्रकाशित किया गया। इतना ही नही इस कृति को शासन सचिवालय भवन में सुशोभित किया गया। जिले को यह सम्मान दिलाने के उपलक्ष में जिला कलेक्टर करणसिंह राठौड़ ने भी इस बालिका को सम्मानित किया। वर्तमान में पाली रह रही यह बालिका मूलत: देसूरी तहसील के गजनीपुरा ग्राम की निवासी हैं। पिता लक्ष्मणलाल परिहार क्रेन सर्विस एवं इंजीनियरिंग वक्र्स का व्यवसाय करते हैं। पिता व माता श्रीमती पूनम बालिका को चित्रकला के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं। इसी का परिणाम हैं कि उसने अपनी कला का लोहा प्रदेश में मनवा लिया। इस बालिका पर समूचे समाज को गर्व हैं।
सिद्धपुरूष थे शिवदान जी महाराज Shivdan ji Meghwal
राजस्थान की धरती ने मेघवाल समाज के साधु-संतो के त्याग एवं बलिदान की इबारतें लिखी हैं। जनहित में जब भी आवश्यकता पड़ी। यह समाज के लोगों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कभी नहीं हिचकिचाया। बदले में किसी साम्राज्य की कामना नहीं की। इस समाज के लोगों ने ‘सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया‘ श्लोक के भावार्थ को अपने जीवन में उतारने का सफल प्रयास किया।
फिर चाहे वे बाबा रामदेव से पहले समाधि लेने की जिद करने वाली ड़ालीबाई हो,चाहे रानी रूपा दे ंके गुरू धारूजी मेघ हो, चाहे देशनोक में करणीमाता के साथ समाधि लेने वाला दशरथ मेघवाल,ढ़ालोप के रघुनाथपीर हो,चाहे,कोट सोलंकियान के हरचंदपीर,चाहे अणसीबाई हो और चाहे सेसली की पद्दीबाई हो। इन सभी ने लोककल्याणार्थ अपनी योगशक्ति एवं भक्ति के बल पर जीवित समाधि ली। यहीं नहीं मेहरानगढ़ की नीवं में जीवित समाने वाले राजाराम,पुष्कर झील में जल उत्पति के लिए नरबलि देने वाले महाचंद,उदयपुर की पिछोला झील में पानी के ठहराव के लिए सपत्निक नरबलि देने वाले मन्नाजी जैसे कितने ही अनगिनत नाम हैं,जिन्होंने अपने बलिदान के बदले अपने वंशजों के लिए किसी राज्य की कामना नहीं की। केवल सोचा तो यहीं कि सभी का कल्याण हो।
ऐसे ही एक संत गोड़वाड़ के मादा ग्राम में पैदा हुए। जिनका नाम आज भी अतीत के पन्नों में खोया हुआ हैं। दलित वग की मेघवाल जाति में जन्मे इस सिद्धपुरूष संत का नाम था शिवदान जी परिहार। ‘मेघवाल समाज का गौरवशाली इतिहास’ पुस्तक के लेखक ड़ॉ. एम.एल. परिहार पृष्ठ 196 पर लिखते हैं कि ‘इन्होंने संवत 2017 अथवा सन् 1960 में जीवित समाधि ली। इनकी समाधि पर लगे स्मारक,स्वास्तिक,चांद-सूरज के प्रतिक उकेरे हुए हैं। इन्होंने समाधि लेने के एक सप्ताह पूर्व ही समाधि स्थान खोदकर घोषणा की थी।’ इन्होंने अपनी शिष्या सेसली की पद््दीबाई के समाधि लेने के सात साल बाद समाधि ली थी।
समाधिस्थ शिवदानजी महाराज का आश्रम सादड़ी-सिदंरली सड़क मार्ग पर मादा ग्राम के निकट अवस्थित हैं। आधा बीघा आश्रम में विशाल वट वृक्ष की घनी छाया में काला-गौरा भैरू की प्रतिमा स्थापित हैं। इनके छोटे भाई हकारामजी भी सिद्धपुरूष थे।
उनके शिष्यों में सादड़ी की हरू मॉं,सिन्दरली के भगाजी,पदीबाई सेसली,सादड़ी के भेराजी खटीक,काला टूक घाणेराव के संतोषगिरीजी,खुड़ाला-फालना के नथा महाराज,मेवाड़ के ग्वार गोद के दलाराम मेघवाल एवं केलवाड़ा के नन्दराम मेघवाल प्रमुख थे।
आज भी शिवदानजी के समाधिस्थल पर नियमित पूजा-अर्चना का आयोजन होता हैं और समाधि दिवस पर भजन-सत्संग का आयोजन होता हैं। इस अवसर पर बड़ी संख्या में श्रद्धालुगण पहूॅंचते है और उनके परिजन एवं वंशजों के साथ विशेष पूजा अर्चना में भाग लेकर मनौतियॉं करते हैं। इस समय उनके प्रप्रौत्र गोपाराम मेघवाल मादा ग्राम पंचायत के सरपंच हैं। (लेखक -कपूरचंद बाफना स्वतंत्र पत्रकार हैं और मेघवाल समाज का गौरव बढ़ाने वाले विषयों पर लिखते हैं
फिर चाहे वे बाबा रामदेव से पहले समाधि लेने की जिद करने वाली ड़ालीबाई हो,चाहे रानी रूपा दे ंके गुरू धारूजी मेघ हो, चाहे देशनोक में करणीमाता के साथ समाधि लेने वाला दशरथ मेघवाल,ढ़ालोप के रघुनाथपीर हो,चाहे,कोट सोलंकियान के हरचंदपीर,चाहे अणसीबाई हो और चाहे सेसली की पद्दीबाई हो। इन सभी ने लोककल्याणार्थ अपनी योगशक्ति एवं भक्ति के बल पर जीवित समाधि ली। यहीं नहीं मेहरानगढ़ की नीवं में जीवित समाने वाले राजाराम,पुष्कर झील में जल उत्पति के लिए नरबलि देने वाले महाचंद,उदयपुर की पिछोला झील में पानी के ठहराव के लिए सपत्निक नरबलि देने वाले मन्नाजी जैसे कितने ही अनगिनत नाम हैं,जिन्होंने अपने बलिदान के बदले अपने वंशजों के लिए किसी राज्य की कामना नहीं की। केवल सोचा तो यहीं कि सभी का कल्याण हो।
ऐसे ही एक संत गोड़वाड़ के मादा ग्राम में पैदा हुए। जिनका नाम आज भी अतीत के पन्नों में खोया हुआ हैं। दलित वग की मेघवाल जाति में जन्मे इस सिद्धपुरूष संत का नाम था शिवदान जी परिहार। ‘मेघवाल समाज का गौरवशाली इतिहास’ पुस्तक के लेखक ड़ॉ. एम.एल. परिहार पृष्ठ 196 पर लिखते हैं कि ‘इन्होंने संवत 2017 अथवा सन् 1960 में जीवित समाधि ली। इनकी समाधि पर लगे स्मारक,स्वास्तिक,चांद-सूरज के प्रतिक उकेरे हुए हैं। इन्होंने समाधि लेने के एक सप्ताह पूर्व ही समाधि स्थान खोदकर घोषणा की थी।’ इन्होंने अपनी शिष्या सेसली की पद््दीबाई के समाधि लेने के सात साल बाद समाधि ली थी।
समाधिस्थ शिवदानजी महाराज का आश्रम सादड़ी-सिदंरली सड़क मार्ग पर मादा ग्राम के निकट अवस्थित हैं। आधा बीघा आश्रम में विशाल वट वृक्ष की घनी छाया में काला-गौरा भैरू की प्रतिमा स्थापित हैं। इनके छोटे भाई हकारामजी भी सिद्धपुरूष थे।
उनके शिष्यों में सादड़ी की हरू मॉं,सिन्दरली के भगाजी,पदीबाई सेसली,सादड़ी के भेराजी खटीक,काला टूक घाणेराव के संतोषगिरीजी,खुड़ाला-फालना के नथा महाराज,मेवाड़ के ग्वार गोद के दलाराम मेघवाल एवं केलवाड़ा के नन्दराम मेघवाल प्रमुख थे।
आज भी शिवदानजी के समाधिस्थल पर नियमित पूजा-अर्चना का आयोजन होता हैं और समाधि दिवस पर भजन-सत्संग का आयोजन होता हैं। इस अवसर पर बड़ी संख्या में श्रद्धालुगण पहूॅंचते है और उनके परिजन एवं वंशजों के साथ विशेष पूजा अर्चना में भाग लेकर मनौतियॉं करते हैं। इस समय उनके प्रप्रौत्र गोपाराम मेघवाल मादा ग्राम पंचायत के सरपंच हैं। (लेखक -कपूरचंद बाफना स्वतंत्र पत्रकार हैं और मेघवाल समाज का गौरव बढ़ाने वाले विषयों पर लिखते हैं
सायर मेघ Sayar meghwal sayar megh sayar jaipal
मेघ सायर सुत्त रामदे , ज्यारी महिमा भारी ।
अजमल जी ने भेट कियो सुत्त , सायर ने बलिहारी ।।
मेघरिखो सॅग अजमल जी रा , भाग जागिया भारी ।
दुनिया जाणे रामदेव जी , अजमल घर अवतारी ।।
अजमल जी ने भेट कियो सुत्त , सायर ने बलिहारी ।।
मेघरिखो सॅग अजमल जी रा , भाग जागिया भारी ।
दुनिया जाणे रामदेव जी , अजमल घर अवतारी ।।
मैं स्वयं बन मेघ जाता :-- हरिवंश राय बच्चन
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=2065&pageno=1
मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
1
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमन्त की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरु के,
कोकिला चाहे वनों में
हो वसन्ती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का मैं
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
2
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
माँस युक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस - धूम्र-संयुत
ज्योति-सलिल समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इन्द्र का वर वीर हूँ मैं,
मन्द गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने,
संग हैं बक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर में गीत गाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
3
झोपड़ी, गृह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुन्दर,
कलश, गुम्बद, स्तम्भ, उन्नत
धरहरे, मीनार दृढ़तर,
दुर्ग देवल, पथ सुविस्तृत
और क्रीड़ोद्यान सारे
मन्त्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीश अपना
गोद जिसकी स्निग्ध-छाया-
वान कानन लहलहाता!
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
4
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु-पूज्य पुष्कर,
पुण्य-जल जिनको किया था
जनक-तनया ने नहा कर
संग जब श्री राम के वे
थीं यहाँ जब वास करतीं,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिह्न वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश मैं भी
भक्ति-श्रद्धा से नवाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
5
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा वन
तरु लताओं में सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छ्वास भर-भर
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन हो कर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप में दुर्दिन बिताता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
6
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दण्ड सह कर
वह गया कब का स्वघर को
प्रेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,
किन्तु शापित यक्ष तेरा
रे महाकवि जन्म-भर को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगान्तर से पड़ा है,
मिल न पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका श्राप त्राता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
7
देख मुझको प्राण-प्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृदु-मन्द रथ पर,
अट्टहास-विहास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन तुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य सुख मेरा सिहा कर;
प्रयणिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
8
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रृंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठ
बार-बार प्रणाम करता;
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुन कर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढ़ाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
9
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बता कर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कण्ठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भाँति करता -
'जा प्रिया के पास ले
सन्देश मेरा, बन्धु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शम्भु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
10
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
कूल कहते मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्घ वासर,
क्या कहूँगा, क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर न आता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
11
मौन पा कर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देख कर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित, कर उठा कर
वह मुझे आशीष देता-
'इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्रीवृद्धि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!'
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
1
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमन्त की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरु के,
कोकिला चाहे वनों में
हो वसन्ती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का मैं
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
2
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
माँस युक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस - धूम्र-संयुत
ज्योति-सलिल समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इन्द्र का वर वीर हूँ मैं,
मन्द गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने,
संग हैं बक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर में गीत गाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
3
झोपड़ी, गृह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुन्दर,
कलश, गुम्बद, स्तम्भ, उन्नत
धरहरे, मीनार दृढ़तर,
दुर्ग देवल, पथ सुविस्तृत
और क्रीड़ोद्यान सारे
मन्त्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीश अपना
गोद जिसकी स्निग्ध-छाया-
वान कानन लहलहाता!
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
4
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु-पूज्य पुष्कर,
पुण्य-जल जिनको किया था
जनक-तनया ने नहा कर
संग जब श्री राम के वे
थीं यहाँ जब वास करतीं,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिह्न वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश मैं भी
भक्ति-श्रद्धा से नवाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
5
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा वन
तरु लताओं में सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छ्वास भर-भर
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन हो कर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप में दुर्दिन बिताता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
6
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दण्ड सह कर
वह गया कब का स्वघर को
प्रेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,
किन्तु शापित यक्ष तेरा
रे महाकवि जन्म-भर को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगान्तर से पड़ा है,
मिल न पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका श्राप त्राता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
7
देख मुझको प्राण-प्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृदु-मन्द रथ पर,
अट्टहास-विहास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन तुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य सुख मेरा सिहा कर;
प्रयणिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
8
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रृंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठ
बार-बार प्रणाम करता;
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुन कर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढ़ाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
9
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बता कर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कण्ठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भाँति करता -
'जा प्रिया के पास ले
सन्देश मेरा, बन्धु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शम्भु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
10
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
कूल कहते मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्घ वासर,
क्या कहूँगा, क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर न आता।
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
11
मौन पा कर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देख कर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित, कर उठा कर
वह मुझे आशीष देता-
'इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्रीवृद्धि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!'
'मेघ' जिस-जिस काल पढ़ता
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
डाली बाई मेघवंशी Dali Bai Meghwanshi
बाबा ने समाधी के वक्त अपने सभी ग्रामीणों को यह समाचार दिए कि अब मेरे जाने का वक्त आ गया हैं, आप सभी को मेरा राम राम । बाबा ने जाते-जाते अपने ग्रामीणों को कहा कि इस युग में न तो कोई ऊँचा हैं, और न ही कोई नीचा, सभी जन एक समान हैं, और सभी को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि- "हे जन ईश्वर के प्रतीक हैं अतः उन्हें एक समान ही समझना और उनमे किसी भी प्रकार का भेद न करना । बाबा को रोकने के सभी प्रयास विफल होने पर सभी ग्रामीणों ने डाली बाई को इस दुःखद समाचार के बारे में जाकर बताया कि वे ही कुछ करे । डाली बाई समाचार सुनकर शीघ्र ही नंगे पाँव रामसरोवर की तरफ चली आई । डाली बाई ने आते ही रामदेव जी से कहा कि "हे प्रभु ! आप गलत समाधी को अपना बता रहे हो । ये समाधी तो मेरी हैं ।" रामदेव जी ने पूछा "बहिन, तुम कैसे कह सकती हो कि यह समाधी तुम्हारी हैं?" इस पर डाली बाई ने कहा कि अगर इस जगह को खोदने पर "आटी, डोरा एवं कांग्सी" निकलेगी तो यह समाधी मेरी होगी । ग्रामीणों द्वारा समाधी को खोदने पर वे ही वस्तुएं जो कि डाली बाई ने बताई थी उस समाधी से प्राप्त हुई तो रामदेव जी को ज्ञात हुआ कि सत्य ही यह समाधी तो डाली बाई की हैं । डाली बाई ने अपनी सत्यता दर्शाकर प्रभु से कहा कि "हे प्रभु ! अभी तो आपको इस सृष्टि में कई कार्य करने हैं, और आप हमसे विदा ले रहे हो?" रामदेव जी ने अपनी मुंहबोली बहिन डालीबाई को अपने इस सृष्टि में आने का कारण बताते हुए कहा कि "मेरा अब इस सृष्टि में कोई कार्य बाकी नहीं रहा हैं, में भले ही दैहिक रूप से इस सृष्टि को छोड़कर जा रहा हूँ, परन्तु मेरे भक्त के एक बुलावे पर में उसकी सहायता के लिए हर वक्त हाजिर रहूँगा ।" रामदेव जी और कहने लगे कि "हे डाली ! मैं तुम्हारी प्रभु भक्ति से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ और आज के बाद तुम्हारी जाति के सभी जन मेरे भजन गायेंगे और 'रिखिया' कहलायेंगे." इतना कहकररामदेव जी ने डालीबाई को विष्णुरूप के दर्शन दिए, जिसे देख डाली बाई धन्य हो गयी, और रामदेव जी से पहले ही समाधी में लीन हो गयी ।
डांगावास में निषेद्याज्ञा लगा दी होती तो यह नौबत नहीं आती- गहलोत
जयपुर,19 मई (हि.स.)। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि डांगावास गांव में अब धारा 144 लगाने के क्या मायने हैं जबकि पूरी प्रशासनिक मशीनरी अब वहां मौके पर मौजूद है। उन्होंने कहा कि घटना के पहले जब तनाव था, एक दूसरे को चुनौती दी जा रही थी, जिला प्रशासन को शिकायत कर दी गई थी तभी धारा 144, 145 या 151 की कार्यवाही कर दी जाती तो आज यह नौबत नहीं आती।
गहलोत ने एक बयान में मंगलवार को कहा कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति चौपट हो चुकी है और हत्या, लूट, चोरी एवं बलात्कार जैसे जघन्य अपराध लगातार हो रहे हैं। पुलिस अधिकारियों की पदोन्नति हुए छह माह होने को हैं मगर रहस्यमय कारणों से इनको पदस्थापित नहीं किया गया है, इसलिए भी पुलिस प्रशासन लुंज-पुंज हो गया है। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि पदोन्नत पुलिस अधिकारियों को मालूम है कि उनका तबादला होना है, इसलिए उस रूप में वो भी अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं। उन्होंने सलाह दी है कि मुख्यमंत्री को शीघ्र ही पदस्थापन का कार्य निबटाना चाहिए।
http://www.jansamachar.com/डांगावास-में-निषेद्याज्ञ/
गहलोत ने एक बयान में मंगलवार को कहा कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति चौपट हो चुकी है और हत्या, लूट, चोरी एवं बलात्कार जैसे जघन्य अपराध लगातार हो रहे हैं। पुलिस अधिकारियों की पदोन्नति हुए छह माह होने को हैं मगर रहस्यमय कारणों से इनको पदस्थापित नहीं किया गया है, इसलिए भी पुलिस प्रशासन लुंज-पुंज हो गया है। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि पदोन्नत पुलिस अधिकारियों को मालूम है कि उनका तबादला होना है, इसलिए उस रूप में वो भी अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे पा रहे हैं। उन्होंने सलाह दी है कि मुख्यमंत्री को शीघ्र ही पदस्थापन का कार्य निबटाना चाहिए।
http://www.jansamachar.com/डांगावास-में-निषेद्याज्ञ/
रामदेव जी महाराज ने मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
शुक्रवार, 19 जून 2015
तेज हुई डांगावास हत्याकांड के आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग
जोधपुर। पड़ोसी जिले नागौर में मेड़ता के पास डांगावास गांव में हुई दलितों की हत्या से उपजा आक्रोश शांत नहीं हो रहा है। जोधपुर में दलित शोषण मुक्ति मंच ने मंगलवार को जिला कलेक्टर कार्यालय पर प्रदर्शन किया और ज्ञापन देकर सभी आरोपियों की शीघ्र गिरफ्तारी की मांग की।
दलित शोषण मुक्ति मंच के बैनर तले बड़ी संख्या में दलित समाज के लोग कलेक्ट्रेट पर एकत्र हुए और प्रदर्शन करने लगे। वे डांगावास हत्याकांड को लेकर नारे लगा रहे थे और सभी आरोपियों की शीघ्र गिरफ्तारी की मांग कर रहे थे। इसके बाद एक प्रतिनिधिमंडल ने जिला कलेक्टर को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर अपनी मांग बताई।http://hindi.eenaduindia.com/State/Rajasthan/2015/06/16200105/demanded-the-arrest-of-those-accused-of-murder.vpf
Published 16-Jun-2015 20:00 IST
दलित शोषण मुक्ति मंच के बैनर तले बड़ी संख्या में दलित समाज के लोग कलेक्ट्रेट पर एकत्र हुए और प्रदर्शन करने लगे। वे डांगावास हत्याकांड को लेकर नारे लगा रहे थे और सभी आरोपियों की शीघ्र गिरफ्तारी की मांग कर रहे थे। इसके बाद एक प्रतिनिधिमंडल ने जिला कलेक्टर को प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर अपनी मांग बताई।http://hindi.eenaduindia.com/State/Rajasthan/2015/06/16200105/demanded-the-arrest-of-those-accused-of-murder.vpf
Published 16-Jun-2015 20:00 IST
गुरुवार, 18 जून 2015
बाबा रामदेव की मूर्ति स्थापना में झलकी श्रद्धा सुरेरा में मेघवाल समाज की
सुरेरा में मेघवाल समाज की ओर से नवनिर्मित मंदिर में हवन के साथ बाबा रामदेवजी महाराज की मूर्ति सेवक हरजी भाटी, बाबा की बहन डाली बाई, सुगना बाई की मूर्तियों की स्थापना की गई। साथ ही मंदिर पर कलश स्थापित किया गया। इस कार्यक्रम में समाज महिला, पुरुष, युवक, युवतियों ने उत्साह से भाग लिया। प्रतिमाओं की स्थापना से पहले शोभायात्रा निकाली गई। इसमें समाजबंधुओं की श्रद्धा उत्साह देखते ही बन रहा था। शोभायात्रा में डीजे पर बज रहे भजनों पर समाज के युवक-युवतियां नाचते, बाबा रामदेव के जयकारे लगाते हुए चल रहे थे। शोभायात्रा में एक रथ पर बाबा रामदेवजी महाराज सहित अन्य प्रतिमाएं, कलश विराजमान थे। समाजबंधु इन्हें चंवर ढुला रहे थे। इनके पीछे धूपड़ा, झालर लेकर समाज के युवा चल रहे थे।
शोभायात्रा
रामदेवजी मंदिर से रवाना हुई, जो गांव के प्रमुख मार्गों से होती हुई मंदिर पहंुची, जहां मंत्रोच्चार के साथ 21 हवन कुंडों में आहुतियां दिलवाई और बाबा रामदेवजी महाराज सहित अन्य मूर्तियों की स्थापना करवाई। मूर्ति स्थापना के बाद मंदिर के शिखर पर कलशारोहण करवाया तथा महाप्रसादी का वितरण हुआ।
बुधवार, 17 जून 2015
पिपराली प्रधान संतोष मेघवाल
पिपराली प्रधान संतोष का कहना है कि राजनीति में जनसेवा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं होता है। इसलिए शादी के बारे में अभी तक सोचा भी नहीं है। 22 वर्षीय प्रधान लगातार क्षेत्र की ग्राम पंचायतों में जाकर लोगों की समस्या सुनती हैं। राजनीति के साथ वे फिलहाल एमए की पढ़ाई कर रही हैं।
प्रधान का मानना इस वक्त शादी से निश्चित तौर पर प्रधानी में फर्क पड़ेगा। शादी के बाद घर-परिवार की जिम्मेदारी आ जाती है, इसलिए एक बार सिर्फ जनता की जिम्मेदारी निभाएंगे।
प्रधान का मानना इस वक्त शादी से निश्चित तौर पर प्रधानी में फर्क पड़ेगा। शादी के बाद घर-परिवार की जिम्मेदारी आ जाती है, इसलिए एक बार सिर्फ जनता की जिम्मेदारी निभाएंगे।
सोमवार, 15 जून 2015
कैलाश चन्द्र मेघवाल
कैलाश चन्द्र मेघवाल एक भारतीय राजनेता हैं। वर्तमान मेँ वे राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष हैं। वे पूर्व मेँ केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री रह चुके हैं। और वे भारतीय जनता पार्टी के पूर्व मेँ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रह चुके है। वर्तमान मेँ भीलवाड़ा जिले के शाहपुरा विधानसभा क्षेत्र के विधायक हैं। पूर्व मेँ वे टोंक-सवाई माधोपुर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से सांसद थे। वे राजस्थान सरकार में अनेक बार मंत्री पद पर रह चुके हैं।।
1977-1985 - सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
1989 - जालौर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से 9 वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित।
1990 -सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
1993-1998 -सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
22 सितंबर 2001 -(उपचुनाव) 13 वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित।
2004 -14 वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित।
2013 -सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
1962 -संयुक्त सचिव, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी. राजस्थान।
1969-1975 -संयुक्त सचिव, भारतीय जनसंघ, राजस्थान।
1977 -खान एवं भूविज्ञान मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार, पंचायती राज, भेड़ और ऊन, राजस्थान सरकार के राज्य मंत्री।
1978 -कैबिनेट मंत्री, सहकारिता, खान एवं भूविज्ञान, राजस्थान सरकार।
1980-1982 -सचिव, भारतीय जनता पार्टी, राजस्थान।
1981-1984 -सदस्य, लोक लेखा समिति, राजस्थान विधान सभा।
1982-1985 -महासचिव, भारतीय जनता पार्टी, राजस्थान।
1987 के बाद उपाध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी, राजस्थान।
1991-1992 -कैबिनेट मंत्री, सिंचाई और राहत, राजस्थान सरकार।
1994-1998 -कैबिनेट मंत्री, गृह, खान और मुद्रण के मंत्रालय, राजस्थान सरकार।
2003-2004 -राज्य मंत्री, सामाजिक न्याय और अधिकारिता,भारत सरकार।
20.12.2013-21.01.2014 -कैबिनेट मंत्री, खान एवं भूविज्ञान, राजस्थान सरकार।
22.1.2014 -राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष।
1977-1985 - सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
1989 - जालौर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से 9 वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित।
1990 -सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
1993-1998 -सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
22 सितंबर 2001 -(उपचुनाव) 13 वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित।
2004 -14 वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित।
2013 -सदस्य, राजस्थान विधान सभा।
1962 -संयुक्त सचिव, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी. राजस्थान।
1969-1975 -संयुक्त सचिव, भारतीय जनसंघ, राजस्थान।
1977 -खान एवं भूविज्ञान मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार, पंचायती राज, भेड़ और ऊन, राजस्थान सरकार के राज्य मंत्री।
1978 -कैबिनेट मंत्री, सहकारिता, खान एवं भूविज्ञान, राजस्थान सरकार।
1980-1982 -सचिव, भारतीय जनता पार्टी, राजस्थान।
1981-1984 -सदस्य, लोक लेखा समिति, राजस्थान विधान सभा।
1982-1985 -महासचिव, भारतीय जनता पार्टी, राजस्थान।
1987 के बाद उपाध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी, राजस्थान।
1991-1992 -कैबिनेट मंत्री, सिंचाई और राहत, राजस्थान सरकार।
1994-1998 -कैबिनेट मंत्री, गृह, खान और मुद्रण के मंत्रालय, राजस्थान सरकार।
2003-2004 -राज्य मंत्री, सामाजिक न्याय और अधिकारिता,भारत सरकार।
20.12.2013-21.01.2014 -कैबिनेट मंत्री, खान एवं भूविज्ञान, राजस्थान सरकार।
22.1.2014 -राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष।
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन के तेंतीस वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना सम्भव नही था
रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं। 15वी. शताब्दी के आरम्भ में भारत में लूट खसोट, छुआछूत, हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के कारण स्थितियाँ बड़ी अराजक बनी हुई थीं। ऐसे विकट समय में पश्चिम राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर भादो शुक्ल पक्ष दूज के दिन वि•स• 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए (द्वारकानाथ ने राजा अजमल जी के घर अवतार लिया, जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार, वैर-द्वेष, छुआछूत का विरोध कर अछूतोद्धार का सफल आन्दोलन चलाया।
एक बार बालक रामदेव ने खिलोने वाले घोड़े की जिद करने पर राजा अजमल उसे खिलोने वाले के पास् लेकर गये एवं खिलोने बनाने को कहा। राजा अजमल ने चन्दन और मखमली कपडे का घोड़ा बनाने को कहा। यह सब देखकर खिलोने वाला लालच में आ ग़या और उसने बहुत सारा कपडा अपनी पत्नी के लिये रख लिया और उस में से कुछ ही कपडा काम में लिया। जब बालक रामदेव घोड़े पर बैठे तो घोड़ा उन्हें लेकर आकाश में चला ग़या। राजा खिलोने वाले पर गुस्सा हुए तथा उसे जेल में डालने के आदेश दे दिये। कुछ समय पश्चात, बालक रामदेव वापस घोड़े के साथ आये। खिलोने वाले ने अपनी गलती स्वीकारी तथा बचने के लिये रामदेव से गुहार की। बाबा रामदेव ने दया दिखाते हुए उसे माफ़ किया। अभी भी, कपडे वाला घोड़ा बाबा रामदेव की खास चढ़ावा माना जाता है।
एक बार बालक रामदेव ने खिलोने वाले घोड़े की जिद करने पर राजा अजमल उसे खिलोने वाले के पास् लेकर गये एवं खिलोने बनाने को कहा। राजा अजमल ने चन्दन और मखमली कपडे का घोड़ा बनाने को कहा। यह सब देखकर खिलोने वाला लालच में आ ग़या और उसने बहुत सारा कपडा अपनी पत्नी के लिये रख लिया और उस में से कुछ ही कपडा काम में लिया। जब बालक रामदेव घोड़े पर बैठे तो घोड़ा उन्हें लेकर आकाश में चला ग़या। राजा खिलोने वाले पर गुस्सा हुए तथा उसे जेल में डालने के आदेश दे दिये। कुछ समय पश्चात, बालक रामदेव वापस घोड़े के साथ आये। खिलोने वाले ने अपनी गलती स्वीकारी तथा बचने के लिये रामदेव से गुहार की। बाबा रामदेव ने दया दिखाते हुए उसे माफ़ किया। अभी भी, कपडे वाला घोड़ा बाबा रामदेव की खास चढ़ावा माना जाता है।
बाबा रामदेव ने अपनी सगी छोटी बहन डाली बाई के साथ समाज सेवा के लिए एक अभियान चलाया था।
लोककथा के अनुसार बाबा रामदेव ने अपनी सगी छोटी बहन डाली बाई के साथ समाज सेवा के लिए एक अभियान चलाया था। गांव-गांव जाकर छुआछूत के विरूद्ध अपनी आवाज तेज करने लगे तथा धार्मिक जागृति फैलाने लगे व मेघवंशी घरों में जम्मा (जागरण) करने लगे। एक बार भक्त शिरोमणि धारू मेघवंशी के घर जोधपुर के राव मालदेव की राणी रूपादे जो कि रावजी के मना करने के पश्चात् भी इसी जागरण में शामिल हुई जिसका रावजी को पता चलने पर क्रोधित हो कर सबूत के तौर पर नाई औरत के साथ रूपादे की जूती मंगवाई। नाई औरत चमत्कार के कारण जूती नहीं ले जा सकी तो रावजी खुद महल के दरवाजे पर खड़े होकर राणी रूपादे का इंतजार करने लगे और पूजा की थाली के बारे में पूछने लगे इसमें क्या है राणी ने घबराते हुए झूठ ही कह दिया कि वह तो बाग में फूल लाने गई, रावजी को फूलों के साथ पूरा बाग नजर आया और राणी के कदमों में झुक गए व राणी को गुरू की तरह ही खुद के लिए एक समर्थ गुरू का हाथ अपने सिर पर रखवाने का अनुनय-विनय करने लगे जिसेराणी ने मेघवंशियों के घरों में धार्मिक व ऊंच-नीच के लिए चलाए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने लगे। मेघवंशियों को समाज में बराबर का स्थान दिलाने के लिए सवर्णों से उनको उपेक्षा मिली तथा कई समस्याएं पैदा हुई। कई जगह अपमानित तथा लड़ाई-झगड़ा भी करना पड़ा। फिर भी मेघवंशियों के लिए संघर्ष जारी रखते हुए मंदिरों में प्रवेश करवाया, तालाब, बावडि़यों तथा कुओं से पानी भरने से हाने वाली छुआछूत के विरूद्ध जगह- जगह एक अभियान के रूप में समानता दिलाने का प्रयास किया। बाबा रामदेवजी को 33 वर्ष की अल्प आयु में ही समाधि हेतु विवश होना पड़ा।
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
सायर मेघवंशी (जयपाल गौत्र) sayar meghwal
सायर मेघवंशी (जयपाल गौत्र) एवं श्रीमती मगनीदेवी जो ऊण्डू कश्मीर गांव (बाड़मेर) के निवासी थे। जिनके घर (वि. स. 1406 सेे 1468) के बीच में देवता, महामानव, शक्तिवान, सिद्धसंत, युगपुरूष बाबा रामदेव का अवतरण हुआ।
मेघवाल समाज के लोग ईमानदार, मेहनती, साहसी एवं परमार्थ के कार्यों में सदैव अच्छी नीति के साथ कार्य करने वाले रहे है।
मेघवाल समाज के लोग ईमानदार, मेहनती, साहसी एवं परमार्थ के कार्यों में सदैव अच्छी नीति के साथ कार्य करने वाले रहे है। समाज का मेहनतकश तबका अपनी रोजी-रोटी के कार्यों में लगने से पूर्व मन्दिर में जाकर दर्शन एवं पूजा-पाठ आदि धार्मिक कार्य से निवृत होते है।
गांव में निवास करने वाले अन्य समाज से निकटता के कारण मेघवाल समाज का आचार-विचार प्रायः उनसे मिलता जुलता है। मेघवाल समाज के लोगों का पहनावा, रीति-रिवाज एवं कई सांस्कृतिक रस्में उनसे मिलती-जुलती है। सगाई, ब्याह व अन्य धार्मिक उत्सव पर पण्डित मांगलिक कार्यों को सम्पन्न करवाते है। समाज के व्यक्ति का स्वर्गवास होने पर हरिद्वार, पुष्कर व अन्य तीर्थ स्थानों पर समाज के लोग जाते है। वहाँ ब्राह्मण पण्डित विभिन्न संस्कारों का कार्य करवाते है। हरिद्वार में पण्डित की बहियों में वंशावली लिखवाते है तथा यथा योग्य दक्षिणा भी देते है।
समाज की वंशावली का बखान राव की प्राचीन बहियों में सुनहरे अक्षरों से लिखा हुआ मिलता है। जिन्हें राव सा आकर घरों में ‘पाठ’ बैठाकर वंशावली वांचते थे, समाज के लोग उचित दक्षिणा देकर राव महाराज की सम्मान पूर्वक विदाई करते थे। ब्याह-शादी के अवसर पर अभी भी उनके परिवार के लोग आते है, समाज सदस्य यथोयोग्य स्वागत-सत्कार करते है।
धर्म:
मेघवाल जाति बाबा रामदेव की उपासक है। यह बाबा की बीज व दशम् को उपवास रखते है तथा घरों में जोत करके भोजन आदि ग्रहण करते है तथा कई बार बाबा की सत्संग का आयोजन करते है। जिसमें समाज के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते है तथा सवेरे परसादी का आयोजन भी होता है।
अपर्णा रोलण एम.ए. की छात्रा बनी सबसे काम उम्र की जिला प्रमुख
अपर्णा रोलण एम.ए. की छात्रा बानी सीकर की जिला प्रमुख | सीकर जिला परिषद मे 39 वार्ड है जिन मेसे रोलण को 23 व कांग्रेस के भंवर लाल वर्मा को 11 मत मिले | माकपा के 4 सदस्य और एक निर्दलीय उम्मीदवार ने मतदान मे भाग नही लिया | अपर्णा रोलण के जिला प्रमुख निर्वाचित होते ही भाजपा खेमे मे खुशी की लहर दौड़
डाली बाई मेघवंशी (dali bai meghwanshi)
मन्डुसिया लेखन //लोककथा में भक्तिमती डाली का जन्म भी संदेह के घेरे में विकृत एवं संदिग्धावस्था में कथन करके हास्यास्पद बुद्वि के दिवाले पीटने की गाथा है कि त्रेतायुग यानि आठ लाख वर्ष पूर्व होने वाले ऋंगिऋषि के औरस से कलियुग में जाल (पीलवान) की डाली या मुस्लिम धर्मांतरण को श्री रामदेव द्वारा शुद्धिकरण करके सायर को सौंपने की चर्चा या जुमले में जाने से नेतलदे के इनकार करने के बाद डाली को साथ ले जाने की कल्पित एवं घृणित बड़ा धर्म की कथा को चर्चित लेखक करते रहते हैं, वस्तुस्थिति में मेघवंशी श्री सायर की धर्मपत्नी श्रीमती मगनीदेवी जयपाल की कोख से जन्मी श्री रामदेव से चार वर्ष छोटी बाल सती साध्वी भक्ति मती सिद्ध डालीबाई थी। दोनों भाई-बहिनों का अक्षुण्य प्रेम जीवन भर स्नेहिल भक्ति भाव ही रामदेव को रोक नहीं सका और अंतिम समय तक भ्रातृत्व स्नेह निभाया। रामदेवजी ने सायर मेघवाल के घर जाने आने में कोई हिचक नहीं रखी। संबंधी, रिश्तेदारों बीरमदेव या उनके घर इत्यादि सभी ने विरोध किया किंतु अजमलजी रोक नहीं सकें चंूकि वे अंतर्कथा को भली-भांति जानते थे। अजमलजी के घोषित, पोषित दत्तक पुत्र होने की हामी पर अलग-अलग जगहों से क्रमशः तीन विवाह हुए और सात पुत्र हुए। इन्होंने आजीवन मेघवंशी समाज से निरंतर/ संबंध बनाए रखे। यह गोपनीय लक्ष्यों का परमाधार है कि यत्र-तत्र अन्यान्य संबंधों का निर्वाह करते हुए भी श्री रामदेव का सतसंग/ जुम्मा/ जुमला का सार्थक समय या मैत्री के नाम मेघवंशी समाज से अटूट सामीप्य संबंध रखते रहे। इतिहास प्रमाणों के साथ लोक किंवदंतियों में कतिपय निम्न उदाहरण भी विचारणीय इतिहास बिंदुओं की पुष्टि करते है कि (1.) रामदेव को जो भी मिले वह रिखिया (2.) रामदेवजी का रिखिया (3.) पांच रिखियों से जुमा जगाना, इन कहावतों के अतिरिक्त प्राच्य काल में अद्यावधि पर्यंत जुमला था साधारण काल में कोई रामदेवजी के नाम से किए गए धूपेड़े पर अन्यान्य किसी तथा कथित सामंत/ सवर्ण व्यक्ति द्वारा घृत सिंचित करने पर भी ज्योति दीपन नहीं होती अपितु किसी बाल-वृद मेघवंश में जन्मे व्यक्ति के हाथ घृत पड़ते ही धूपेड़ा दीपित हो जाता देखा जा सकता है। मेघवंशी से घृणा करके रामदेव का जुम्मा जगाने पर वह सफल नहीं होता है। आज से चालीस वर्ष पहले अन्यान्य समाज में रामदेवजी की मान्यता नगण्य मात्र थी, वहां शताब्दियों पूर्व मेघवंशी जाति के लोग सोना-चांदी का चित्रित फूल गले में धारण करते, रामदेवजी की सौगंध (शपथ) सर्वोपरि विश्वसनीय साक्षी या साक्ष्य की मध्यस्थता मानी जाती रही है। प्रत्येक घर के एक कोने में छोटा सा देवल देवलिया बनाम पूजा मंदिर बनाकर सुबह-शाम नारियल, चिटकी या बतीसा धूपेड़ा खेते करते है और मेघवंशी जाति का इष्ट मानते हैं। समीक्षा - मेघवंश समाज के वंशप्रशंसक भट्टग्रंथ (बही) धारकराव (भाट) समाज के लोग भी तत्संबंधी सत्यक्षा उगलाने में अक्षम है कि ब्रह्माजी की मंूछ से आद्य महर्षि मेघ की उत्पति अवांतर मेघवंशी समाज का सृजन कथन करते हुए पोथी पढ़वाने पर प्रत्येकवंश पीढ़ी को ब्राह्मण-राजपूत इत्यादि अन्यान्य से निकास देते है। तब स्वयं उनके दिए कथन असत्य सिद्ध हो जाते है कि इतना पुराना ब्रह्मा मंूछ पुत्र महर्षि से उत्पन्न होकर भी पूर्व का कोई इष्ट अवधारणा नियम न बताकर रामदेव को आराध्य बताकर भट्टग्रंथों की प्राच्यता पर संदेह उत्पन्न करता है। अद्यावधि इस समाज का भोलापन, सादगी, विश्वसनीयता, सत्यता बेदाग है, पूर्ण सेवाभाव स्वाभाविक अक्षुण्णता लिए रहता है। यह सब पूर्ण रामदेव जीवन संपर्ककाल इतिहास से जुड़े प्रभाव का प्रतिफल हो सकता है, चंूकि भयंकर विदेशी यवन काल शासन के सामंत राजाओं की विकृत नीतिकाल के अस्पृश्यता जैसे विषैले वातावरण को सर्प के पास रहती मणि की भांति सम्मान में सर्व सामंजस्य भाव को भेद रहित संत स्वभाव के खान-पान व्यवहार रखा हिंदू, मुस्लिम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इत्यादि सब के भाव सामान्य बर्ताव रखकर संसार के सामने अमिट उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज भी रूणेचा या अन्यत्र यत्र-तत्र सर्वत्र भारतवर्ष में प्रचारित रामदेव प्रसादी विवरण भेदभव रहित होता है। रामदेवजी द्वारा अद्यावधि मेघवंशी को अपनत्व से जोड़कर रखा जाता है ऋषि महर्षि वंशज समाज में सर्वाधिक संत, विद्वान ज्ञानी, गुणी, सिद्ध अनुभवशील, वाणीपुरूष, तपोनिष्ठ, भक्त या जीवित समाधि लेने वाले यहां हुए है जितने कि अन्यान्य किसी वर्ग विशेष में होने अति दुर्लभ है। रामदेवजी द्वारा वर्गभेद, जातिभेद की खाई दूर करने का अथक प्रयास कुछ यवन राज्य की कठोरता के तालमेल बैठाते अग्नि संस्कार की जगह धोर/ दफन, जुम्मा जगाने इत्यादि प्रक्रियाओं से उनकी क्रूरता, हठधर्मी पर अंकुश लगा, इससे सामाजिक क्षमता बढ़ी। अपनी सिद्धियों की शक्ति का प्रचार-प्रसार हिंदू-मुस्लिम आदि सभी वर्गों में समान रूप से देशा जाने लगा। तत्सगय में पीरों, सिद्धों संतों के साथ और राज्य शासकों व्यापारियों आदि को मानवता का संदेश देते रहे और वर्णभेद की अस्पृश्यता को दूर करके सामाजिक संगठन, अशिक्षित समाज के लोगों में साधारण संत संस्थानों द्वारा लौकिक/ पार लौकिक जागृति का ज्ञान बोध देते रहे, वह सर्वभावन मेघवंशियों में अद्यावधि परिपुष्ठ है। ऐसा देखा जा रहा है, यह गौरवता समाज को भान होनी चाहिए।
श्री रामदेवजी ने मेघवंशी समाज के लिए जो भी किया वो उस सामंती युग में एक मिसाल थी। लोग ताना देकर कहते है- ‘‘बाबे नंू मिलिया वो रिखिया’’, इस कहावता से पता चलता है कि रामदेवजी मेघवंशी समाज से ही घिरे रहते थे ताकि अपने भाईयों के सुख-दुख में हमेश साथ रहते थे। इसी प्रकारसामंती लोग उलाहना देकर कहते थे ‘‘बांभियों रे घरे बाबो तंदूरा, बजावे’’ इससे स्पष्ट होता कि श्री रामदेवजी ने अपनी लीला (भक्ति व शक्ति) मेघवंशियों के साथ ही रहकर प्रदर्शित की। रामदेवजी की समाधि के खोदने पर डाली बाई की निशानी आंटी-डोरा-कांगसी समाधि स्थल से निकलने पर रामदेवजी ने उसी स्थल को डाली बाई को समाधि की आज्ञा दी व स्वयं ने अन्य जगह समाधि ली।
यह एक विराट हृदयता का उदाहरण है। रामदेवजी ने अपने को मेघवंशियों की तरह समाधिस्त किया न कि चिता का वरण। आज आप पूरे भारत में लोकदेवता का कोमी एकता के प्रतीक के रूप में पूजे जाते है। करीब 575 वर्ष पहले उण्डू कश्मीर जिला बाड़मेर में अजमलजी के सेवक सायरजी मेघवंशी के घर रामदेवजी का जन्म हुआ। भविष्यवाणी के आधार पर अजमलजी ने भगवान का रूप समझ कर अपने घर में लालन-पालन के लिए सायरजी पर दबाव दे कर ले गए। उनका राजकुमार के रूप में लालन-पालन होने से सायरजी भी संतुष्ट हो गए तथा राजशाही वादे के कारण इस राज पर पर्दा डालने की सहमति सायरजी से ले ली गई।
वे बचपन से ही धार्मिक संस्कारों व कुरीतियों के खिलाफ सामाजिक आवाज उठाने लगे। बचपन से ही सामाजिक बुराइयों, छुआछूत, ऊंच-नीच, जाति-प्रथा, असहाय रोगियों को अपना समर्थन देने लगे। सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए सतगुरू बालीनाथजी की शक्ति से उनके द्वारा बाल अवस्था में ही कई चमत्कार पर्चे मानवता की भलाई लिए उजागर हुए जिससे दुनिया उन्हें भगवान का रूप मानने लगी। रामदेवजी ने गुरू बालीनाथजी की शक्क्ति व आशीर्वाद लेकर तत्कालीन दानव भैरव वध का सपना साकार करके मनुष्यों में दुबारा चैन व अमन की मनोकामना पूर्ण की। उस समय सबसे उपेक्षित समझी जाने वाली मेघवंशी जाति जिसकी छाया से ही दूसरी तथाकथित सवर्ण जाति भेद करती थी, बाबा ने उन्हें गले लगाकर मंदिरों में प्रवेश के लिए जन-जन चेतना जागृत की और जाति-पांती, छुआछूत का जड़ से खत्म करने की प्रेरणा दी और मेघवंशियों को भगवान की मालाएं वितरित की और उन्हें आराधना व भक्ति की शिक्षा दी।
लोककथा के अनुसार बाबा रामदेव ने अपनी सगी छोटी बहन डाली बाई के साथ समाज सेवा के लिए एक अभियान चलाया था। गांव-गांव जाकर छुआछूत के विरूद्ध अपनी आवाज तेज करने लगे तथा धार्मिक जागृति फैलाने लगे व मेघवंशी घरों में जम्मा (जागरण) करने लगे। एक बार भक्त शिरोमणि धारू मेघवंशी के घर जोधपुर के राव मालदेव की राणी रूपादे जो कि रावजी के मना करने के पश्चात् भी इसी जागरण में शामिल हुई जिसका रावजी को पता चलने पर क्रोधित हो कर सबूत के तौर पर नाई औरत के साथ रूपादे की जूती मंगवाई। नाई औरत चमत्कार के कारण जूती नहीं ले जा सकी तो रावजी खुद महल के दरवाजे पर खड़े होकर राणी रूपादे का इंतजार करने लगे और पूजा की थाली के बारे में पूछने लगे इसमें क्या है राणी ने घबराते हुए झूठ ही कह दिया कि वह तो बाग में फूल लाने गई, रावजी को फूलों के साथ पूरा बाग नजर आया और राणी के कदमों में झुक गए व राणी को गुरू की तरह ही खुद के लिए एक समर्थ गुरू का हाथ अपने सिर पर रखवाने का अनुनय-विनय करने लगे जिसेराणी ने मेघवंशियों के घरों में धार्मिक व ऊंच-नीच के लिए चलाए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने लगे। मेघवंशियों को समाज में बराबर का स्थान दिलाने के लिए सवर्णों से उनको उपेक्षा मिली तथा कई समस्याएं पैदा हुई। कई जगह अपमानित तथा लड़ाई-झगड़ा भी करना पड़ा। फिर भी मेघवंशियों के लिए संघर्ष जारी रखते हुए मंदिरों में प्रवेश करवाया, तालाब, बावडि़यों तथा कुओं से पानी भरने से हाने वाली छुआछूत के विरूद्ध जगह- जगह एक अभियान के रूप में समानता दिलाने का प्रयास किया। बाबा रामदेवजी को 33 वर्ष की अल्प आयु में ही समाधि हेतु विवश होना पड़ा।
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
http://meghwalsamajgotan.com/sant.html
श्री रामदेवजी ने मेघवंशी समाज के लिए जो भी किया वो उस सामंती युग में एक मिसाल थी। लोग ताना देकर कहते है- ‘‘बाबे नंू मिलिया वो रिखिया’’, इस कहावता से पता चलता है कि रामदेवजी मेघवंशी समाज से ही घिरे रहते थे ताकि अपने भाईयों के सुख-दुख में हमेश साथ रहते थे। इसी प्रकारसामंती लोग उलाहना देकर कहते थे ‘‘बांभियों रे घरे बाबो तंदूरा, बजावे’’ इससे स्पष्ट होता कि श्री रामदेवजी ने अपनी लीला (भक्ति व शक्ति) मेघवंशियों के साथ ही रहकर प्रदर्शित की। रामदेवजी की समाधि के खोदने पर डाली बाई की निशानी आंटी-डोरा-कांगसी समाधि स्थल से निकलने पर रामदेवजी ने उसी स्थल को डाली बाई को समाधि की आज्ञा दी व स्वयं ने अन्य जगह समाधि ली।
यह एक विराट हृदयता का उदाहरण है। रामदेवजी ने अपने को मेघवंशियों की तरह समाधिस्त किया न कि चिता का वरण। आज आप पूरे भारत में लोकदेवता का कोमी एकता के प्रतीक के रूप में पूजे जाते है। करीब 575 वर्ष पहले उण्डू कश्मीर जिला बाड़मेर में अजमलजी के सेवक सायरजी मेघवंशी के घर रामदेवजी का जन्म हुआ। भविष्यवाणी के आधार पर अजमलजी ने भगवान का रूप समझ कर अपने घर में लालन-पालन के लिए सायरजी पर दबाव दे कर ले गए। उनका राजकुमार के रूप में लालन-पालन होने से सायरजी भी संतुष्ट हो गए तथा राजशाही वादे के कारण इस राज पर पर्दा डालने की सहमति सायरजी से ले ली गई।
वे बचपन से ही धार्मिक संस्कारों व कुरीतियों के खिलाफ सामाजिक आवाज उठाने लगे। बचपन से ही सामाजिक बुराइयों, छुआछूत, ऊंच-नीच, जाति-प्रथा, असहाय रोगियों को अपना समर्थन देने लगे। सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए सतगुरू बालीनाथजी की शक्ति से उनके द्वारा बाल अवस्था में ही कई चमत्कार पर्चे मानवता की भलाई लिए उजागर हुए जिससे दुनिया उन्हें भगवान का रूप मानने लगी। रामदेवजी ने गुरू बालीनाथजी की शक्क्ति व आशीर्वाद लेकर तत्कालीन दानव भैरव वध का सपना साकार करके मनुष्यों में दुबारा चैन व अमन की मनोकामना पूर्ण की। उस समय सबसे उपेक्षित समझी जाने वाली मेघवंशी जाति जिसकी छाया से ही दूसरी तथाकथित सवर्ण जाति भेद करती थी, बाबा ने उन्हें गले लगाकर मंदिरों में प्रवेश के लिए जन-जन चेतना जागृत की और जाति-पांती, छुआछूत का जड़ से खत्म करने की प्रेरणा दी और मेघवंशियों को भगवान की मालाएं वितरित की और उन्हें आराधना व भक्ति की शिक्षा दी।
लोककथा के अनुसार बाबा रामदेव ने अपनी सगी छोटी बहन डाली बाई के साथ समाज सेवा के लिए एक अभियान चलाया था। गांव-गांव जाकर छुआछूत के विरूद्ध अपनी आवाज तेज करने लगे तथा धार्मिक जागृति फैलाने लगे व मेघवंशी घरों में जम्मा (जागरण) करने लगे। एक बार भक्त शिरोमणि धारू मेघवंशी के घर जोधपुर के राव मालदेव की राणी रूपादे जो कि रावजी के मना करने के पश्चात् भी इसी जागरण में शामिल हुई जिसका रावजी को पता चलने पर क्रोधित हो कर सबूत के तौर पर नाई औरत के साथ रूपादे की जूती मंगवाई। नाई औरत चमत्कार के कारण जूती नहीं ले जा सकी तो रावजी खुद महल के दरवाजे पर खड़े होकर राणी रूपादे का इंतजार करने लगे और पूजा की थाली के बारे में पूछने लगे इसमें क्या है राणी ने घबराते हुए झूठ ही कह दिया कि वह तो बाग में फूल लाने गई, रावजी को फूलों के साथ पूरा बाग नजर आया और राणी के कदमों में झुक गए व राणी को गुरू की तरह ही खुद के लिए एक समर्थ गुरू का हाथ अपने सिर पर रखवाने का अनुनय-विनय करने लगे जिसेराणी ने मेघवंशियों के घरों में धार्मिक व ऊंच-नीच के लिए चलाए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने लगे। मेघवंशियों को समाज में बराबर का स्थान दिलाने के लिए सवर्णों से उनको उपेक्षा मिली तथा कई समस्याएं पैदा हुई। कई जगह अपमानित तथा लड़ाई-झगड़ा भी करना पड़ा। फिर भी मेघवंशियों के लिए संघर्ष जारी रखते हुए मंदिरों में प्रवेश करवाया, तालाब, बावडि़यों तथा कुओं से पानी भरने से हाने वाली छुआछूत के विरूद्ध जगह- जगह एक अभियान के रूप में समानता दिलाने का प्रयास किया। बाबा रामदेवजी को 33 वर्ष की अल्प आयु में ही समाधि हेतु विवश होना पड़ा।
समाधि से पूर्व भोली-भाली व निष्ठावान मेघवंशी जाति के लिए समाज में बदलाव लाने के लिए धार्मिक अनिवार्यता के रूप में मेघवंशियों को दो वचन दे गए। पहला मेरी समाधि में पांव रखने से पहले डाली बाई के मंदिर के दर्शन व फेरी लगाने पर ही मेरी पूजा होगी। दूसरा भगवान के जम्मा जागरण में आत्मिक रूप से उन्नत मेघवंशी सदस्य की प्रधानता को अनिवार्यता प्रदान करना अन्यथा वह जागरण संपूर्ण नहीं माना जाएगा।
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डांगावास हत्याकांड की जांच सीबीआई को
डांगावास हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौंपी, केन्द्र सरकार ने दी मंजूरी
राज्य सरकार ने 27 मई को पत्र लिख केन्द्रीय गृह मंत्रालय से मामले की जांच सीबीआई से कराने की अनुशंसा की थी।
जयपुर. केन्द्र सरकार ने डांगावास हत्याकांड की जांच
सीबीआई को सौंप दी है। नागौर
के डांगावास में 14 मई 2015 को जमीन के लिए हुए
खूनी संघर्ष में भीड़ ने तीन दलितों को
ट्रैक्टरों से रौंद डाला था। राज्य सरकार ने 27 मई 2015 को पत्र लिख
केन्द्रीय गृह मंत्रालय से मामले की जांच
सीबीआई से कराने की
अनुशंसा की थी। इस संबंध में
केन्द्र सरकार के कार्मिक लोक शिकायत के अवर सचिव अजित
कुमार ने पत्र जारी किया। घटना के घायल अब
भी अजमेर के अस्पताल में भर्ती है।
उधर, एक और घायल गणेशराम की अजमेर
के अस्पताल में मौत हो गई। इसी के साथ हत्याकांड
में कुल मौतों की संख्या छह हो चुकी है।
गणेश की मौत से गुस्साए परिजनों-दलित समाज के लोग
अजमेर के राजकीय
अस्पताल की मोर्चरी के बाहर धरने पर
बैठे रहे।
रविवार, 14 जून 2015
अपर्णा रोलण (मेघवाल)
सीकर । प्रदेश की सबसे युवा सीकर जिला प्रमुख अपर्णा रोलण ने जनता की जिम्मेदारी निभाने के लिए कड़ा फैसला लिया है। उनका कहना है कि जब तक जिला प्रमुख का कार्यकाल पूरा नहीं हो जाता वह शादी नहीं करेंगी। उनका मानना है कि शादी के बाद ससुराल में भी समय देना पड़ेगा। वह जनता व जिला परिषद को वह समय नहीं दे सकेंगी। 22 वर्षीय जिला प्रमुख रोलण का मानना है कि एक वक्त में दो जिम्मेदारी निभाने वाले व्यक्ति दोनों जगह सही ढंग से सफल नहीं होते।
इसी तरह जिले की पिपराली प्रधान व जिला परिषद एवं पंचायत समिति सदस्यों ने राजधर्म निभाने के लिए शादी नहीं करने का फैसला लिया है। एमए प्रीवियस में अध्ययनरत जिला प्रमुख दिन में जिला परिषद स्थित अपने दफ्तर में बैठने के अलावा पंचायतों का भी दौरा करती रहती हैं और देर रात तक पढ़ाई करतीं हैं। जिला परिषद में खाली समय में वह पंचायतीराज सहित अन्य कानून की पुस्तकों का अध्ययन करती हैं।
ग्रामीणों से सीधा संवाद
पंचायतीराज विभाग जनता से सीधा जुड़ाव का जरिया है। पंचायतीराज जनप्रतिनिधियों का प्रत्येक घर में संपर्क होता है। जिला प्रमुख का कहना है कि सीकर जिला उनका पूरा परिवार है ।
पूरा हुआ सपना...
जिला प्रमुख बताती हैं कि बचपन में उनका अच्छा कलाकार बनाने का जो सपना था वह हकीकत में बदलने लगा है। फाइन आर्ट में प्रवेश मिलना जीवन का सबेस अच्छा दिन था। पेंटिंग का कोई मौका नहीं छोडऩे वाली रोलण तनाव की स्थिति में पेंटिंग ही बनाती हैं।
सदस्य भी बोले, पहले जनसेवा
धोद के पंचायत समिति सदस्य कुलदीप रणवां ने भी जनसेवा के लिए पांच वर्ष तक शादी नहीं करने का निर्णय लिया है। 28 वर्षीय रणवां बताते हैं कि जनता ने जिन भावनाओं से उन्हे चुना है उसको ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया है। जिला परिषद सदस्य प्रवीण जाखड़ का कहना है कि राजनीति के जरिए सेवा का मौका बड़ी मेहनत से मिला है। पांच वर्षों का उपयोग जनता के लिए करने के लिए शादी नहीं करेंगे।
पिपराली प्रधान बोली, पांच वर्ष सोच भी नहीं सकती
पिपराली प्रधान संतोष का कहना है कि राजनीति में जनसेवा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं होता है। इसलिए शादी के बारे में अभी तक सोचा भी नहीं है। 22 वर्षीय प्रधान लगातार क्षेत्र की ग्राम पंचायतों में जाकर लोगों की समस्या सुनती हैं। राजनीति के साथ वे फिलहाल एमए की पढ़ाई कर रही हैं।
प्रधान का मानना इस वक्त शादी से निश्चित तौर पर प्रधानी में फर्क पड़ेगा। शादी के बाद घर-परिवार की जिम्मेदारी आ जाती है, इसलिए एक बार सिर्फ जनता की जिम्मेदारी निभाएंगे।
इसी तरह जिले की पिपराली प्रधान व जिला परिषद एवं पंचायत समिति सदस्यों ने राजधर्म निभाने के लिए शादी नहीं करने का फैसला लिया है। एमए प्रीवियस में अध्ययनरत जिला प्रमुख दिन में जिला परिषद स्थित अपने दफ्तर में बैठने के अलावा पंचायतों का भी दौरा करती रहती हैं और देर रात तक पढ़ाई करतीं हैं। जिला परिषद में खाली समय में वह पंचायतीराज सहित अन्य कानून की पुस्तकों का अध्ययन करती हैं।
ग्रामीणों से सीधा संवाद
पंचायतीराज विभाग जनता से सीधा जुड़ाव का जरिया है। पंचायतीराज जनप्रतिनिधियों का प्रत्येक घर में संपर्क होता है। जिला प्रमुख का कहना है कि सीकर जिला उनका पूरा परिवार है ।
पूरा हुआ सपना...
जिला प्रमुख बताती हैं कि बचपन में उनका अच्छा कलाकार बनाने का जो सपना था वह हकीकत में बदलने लगा है। फाइन आर्ट में प्रवेश मिलना जीवन का सबेस अच्छा दिन था। पेंटिंग का कोई मौका नहीं छोडऩे वाली रोलण तनाव की स्थिति में पेंटिंग ही बनाती हैं।
सदस्य भी बोले, पहले जनसेवा
धोद के पंचायत समिति सदस्य कुलदीप रणवां ने भी जनसेवा के लिए पांच वर्ष तक शादी नहीं करने का निर्णय लिया है। 28 वर्षीय रणवां बताते हैं कि जनता ने जिन भावनाओं से उन्हे चुना है उसको ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया है। जिला परिषद सदस्य प्रवीण जाखड़ का कहना है कि राजनीति के जरिए सेवा का मौका बड़ी मेहनत से मिला है। पांच वर्षों का उपयोग जनता के लिए करने के लिए शादी नहीं करेंगे।
पिपराली प्रधान बोली, पांच वर्ष सोच भी नहीं सकती
पिपराली प्रधान संतोष का कहना है कि राजनीति में जनसेवा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं होता है। इसलिए शादी के बारे में अभी तक सोचा भी नहीं है। 22 वर्षीय प्रधान लगातार क्षेत्र की ग्राम पंचायतों में जाकर लोगों की समस्या सुनती हैं। राजनीति के साथ वे फिलहाल एमए की पढ़ाई कर रही हैं।
प्रधान का मानना इस वक्त शादी से निश्चित तौर पर प्रधानी में फर्क पड़ेगा। शादी के बाद घर-परिवार की जिम्मेदारी आ जाती है, इसलिए एक बार सिर्फ जनता की जिम्मेदारी निभाएंगे।
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नवरत्न मन्डुसिया
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