घेवर राम ने दिखाया अकाल की जोखिम को
कम करने का रास्ता
चरखा फिचर्स, अप्रैल 2013
पश्चिमी रेगिस्तान के रहने
वाले घेवर राम मेघवाल द्वारा
किये गये नवाचार को तरजीह
मिले तो रेगिस्तान भी
(Zizyphus mauritiana) उत्पादन
के नाम पर अपनी पहचान बना
सकता है। जोधपुर जिले की
फलौदी तहसील के एक छोटे से
गांव दयाकौर के रहने वाले
सीमांत किसान घेवर राम ने
अपनी मेहनत और लगन से 10
क्विंटल बेर का उत्पादन किया
है। घेवर राम ने वर्ष 2008 में अपनी
ज़मीन के 160 वर्ग फुट के टुकड़े में
36 बेर तथा 28 गूंदा, (जिसे
लसौड़ा के नाम से भी जाना
जाता है) के पौधे लगाये थे।
चालीस हजार लीटर के
अंडरग्राउंड टैंक में बरसात का
पानी एकत्रित कर पौधों को
सींचा और देखभाल की। चार साल की अथक
मेहनत से उन्होंने यह साबित कर दिया कि शुष्क
और अकाल प्रभावित क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध
रेगिस्तान की बंजर और कम उत्पादन वाली
धरती पर बेर की फसल भी लहलहा सकती है। अपने
गांव में ही नहीं, पूरी फलौदी तहसील में घेवर
राम के इस कार्य की चर्चा हो रही है। इस
सीजन में दिसंबर 2012 से फरवरी 2013 तक इस
किसान की ज़मीन के इस छोटे से टुकड़े में लगे 36
बेर के पौधों से 10 क्विंटल बेर का उत्पादन हुआ है।
जिसे उन्होंने 20 हजार रुपए में बेचा है।
घेवर राम के गांव में 14 अन्य किसानों ने उन्नति
विकास शिक्षण संगठन जोधपुर तथा उरमूल
मरूस्थली बुनकर विकास समिति फलौदी के
आर्थिक व तकनीकी सहयोग से आपदा जोखिम
घटाव कार्यक्रम के तहत व्यक्तिगत कृषि योग्य
ज़मीन के 160 वर्ग फुट के टुकड़े पर बेर व गूंदा के पौधे
लगाये थे। राजस्थान में आपदा जोखिम घटाव
पर काम करने वाली संस्था उन्नति विकास
शिक्षण संगठन ने अंतरराष्ट्रीय संगठन (cordaid) के
सहयोग से वर्ष 2008 में अकाल की जोखिम को
कम करने की कवायद के तहत जोधपुर जिले के
फालौदी एवं शेरगढ़ ब्लाक तथा बाड़मेर के
बालोतरा में आइडिया संस्थान व सिणधरी
ब्लाक में प्रयास संस्थान के सहयोग से कार्य
किया। जिसके तहत शुष्क एवं अकाल प्रभावित
क्षेत्र में मॉडल के तौर पर 125 किसानों की
प्रति किसान 0.5 हेक्टेयर व्यक्तिगत ज़मीन पर
हॉर्टिपाश्चर के ऐसे प्लॉट विकसित किये हैं
जिसका असर अब दिखने लगा है। 125 किसानों
की व्यक्तिगत ज़मीन पर प्रति किसान 64
पौधों की दर 8000 बेर व गूंदा के पौधे लगाये गये
थे। चार साल के अथक प्रयासों से आज 90
प्रतिशत पौधे इस मरूभूमि को हरियाली से
आच्छादित कर रहे हैं। घेवर राम के अलावा
फलौदी तहसील के दयाकैर गांव के जेठाराम,
हरूराम, सुगनी देवी, माडू देवी, बंशीलाल,
बालोतरा ब्लाक के मंडली व रामदेवपुरा के
अनोपाराम, भैराराम, शिवाराम, तगाराम व
मगाराम, सुरजबेरा के सत्ताराम, मिश्राराम,
झमूदेवी, सिणधरी ब्लाक के डाबड़ भाटियान
गांव की मोहरों देवी, चूनाराम,
करडालीनाडी के सिरदाराम, अन्नाराम के
हॉर्टिपाश्चर प्लॉट में इस साल बेर का उत्पादन
हुआ है। बेर के बंपर उत्पादन में गत वर्ष जेठाराम तो,
इस वर्ष घेवरराम अव्वल रहा है। तेल व गैस उत्पादन
तथा रिफ़ाइनरी स्थापित करने के नाम पर इन
दिनों सुर्खियों में रहने वाले मारवाड़ के इन
गरीब किसानों ने यह दिखा दिया है कि
थोड़ी मेहनत से मारवाड़ न केवल तेल उत्पादन
बल्कि रसीले बेर उत्पादन में भी जगप्रसिद्धि
हासिल कर सकता है।
पश्चिमी रेगिस्तान के चार जिले बाड़मेर,
जैसलमेर, जोधपुर व बीकानेर अकाल के नाम से
जाने जाते हैं। यहां हर तीसरे वर्ष अकाल पड़ता
है। किसी न किसी क्षेत्र में प्रतिवर्ष अकाल
मौजूद रहता है। अकाल में मुख्यतः पशुओं के लिये
चारा तथा पानी का संकट अधिक होता है।
घेवरराम बताते हैं कि क्षेत्र के गरीब व दलित
समुदाय अकाल को ध्यान में रखते हुए बकरी पालन
अधिक करते हैं। लेकिन अकाल में बकरियों के चारे
का संकट हो जाता है। ऐसे समय में चारे की
जोखिम को करने का आइडिया उन्नति
विकास शिक्षण संगठन ने अपने अनुभवों के आधार
पर हमारे सामने रखा। प्रारंभ में हमें विश्वास
नहीं हो रहा था कि इस सूखे क्षेत्र रेगिस्तान में
बेर जैसे फल लग सकते हैं। उन्नति द्वारा आर्थिक व
तकनीकी सहयोग देने का आश्वासन मिलने पर
वर्ष 2008 में गांव से हम सात किसान इस प्रयोग
को अंजाम तक पहुंचाने के लिये तैयार हुए। संस्थान
द्वारा पौधे, खाद, दवा, फैन्सिंग, अंडर ग्राउंड
टैंक निर्माण तथा समय-समय पर पौधों की
देखभाल के लिये प्रशिक्षण का सहयोग मिला।
इस नवाचार को अंजाम तक पहुंचाने में कुछ
किसान सुस्ता गये। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं
हारी। प्रशिक्षण व विजिट के दौरान कृषि
वैज्ञानिक जो भी सलाह मुझे देते, उसे लागू
करता रहा। कंपोस्ट खाद बनाकर हर साल
पौधों को देता रहा। समय पर पानी, निराई-
गुड़ाई करना तथा पौधों का बच्चों की तरह
पालन-पोषण करने से मुझे इस मेहनत का फल मिलने
लगा है। आज जब मैं घर के बाहर 160 वर्गफिट के इस
प्लॉट को देखता हूं तो, दिल खुश हो जाता है।
इस साल मैंने अपने ही गांव में बीस हजार रुपए के
बेर के फल बेचे हैं।
जोधुपर जिले में स्थापित सेंटर फॉर एरिडजॉन
रिसर्च इंस्टीट्यूट (काजरी), कृषि विज्ञान केंद्र
जोधपुर तथा कृषि प्रसार विभाग के
वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर इन किसानों
को प्रशिक्षण देने एवं क्षेत्र का विजिट कर
किसानों को सलाह देने में सहयोग मिलता
रहा। काजरी के वैज्ञानिक पी. आर. मेघवाल
का कहना है कि पश्चिमी रेगिस्तान के इस शुष्क
मरूस्थल में अच्छी गुणवत्ता वाले बेर का उत्पादन
हो सकता है। इस नवाचार को सरकार के मनरेगा
व बागवानी मिशन जैसे कार्यों से जोड़ा जाये
तो गरीब किसानों की आय का अच्छा
जरिया बन सकता है। मनरेगा में अपना खेत अपना
काम के तहत भूमि सुधार के इस कार्य को
नियोजित ढंग से इस नवाचार के साथ जोड़ा
जाये तो पश्चिमी राजस्थान की सूरत बदल
सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे अकाल
जैसी आफ़त के प्रभाव या उससे उपजी जोखिम
को कम किया जा सकता है।
हमारे उद्देश्य: - मेघवाल समुदाय समृद्ध सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, मानसिक और सांस्कृतिक. मृत्यु भोज, शराब दुरुपयोग, बाल विवाह, बहुविवाह, दहेज, विदेशी शोषण, अत्याचार और समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अपराधों को रोकने के लिए और समाज के कमजोर लोगों का समर्थन की तरह प्रगति में बाधा कार्यों से छुटकारा पाने की कोशिश करेंगे :- नवरत्न मन्डुसिया
सोमवार, 2 नवंबर 2015
मेघवाल समाज का इतिहास भारतवर्ष के सभ्यता इतिहास में पुरातन सभ्यताऐं सिन्धु घाटी, मोहनजोदडो जैसी सम्पन्न सभ्यताओं के पुरातन प्राप्त अवशेषों एवं भारत के कई प्राचीन ऋषि ग्रंथों में मेघवाल समाज की उत्पत्ति एवं उन्नति की जानकारीयां मिली हैं
मेघवाल समाज का इतिहास
भारतवर्ष के सभ्यता इतिहास में पुरातन सभ्यताऐं सिन्धु
घाटी, मोहनजोदडो जैसी
सम्पन्न सभ्यताओं के पुरातन प्राप्त अवशेषों एवं भारत के
कई प्राचीन ऋषि ग्रंथों में मेघवाल समाज
की उत्पत्ति एवं उन्नति की
जानकारीयां मिली हैं. साथ
ही समाज के प्रात: स्मरणीय
स्वामी गोकुलदास जी द्वारा
सदग्रंथों से प्राप्त जानकारी के आधार पर
भी समाज के सृजनहार ऋषि मेघ का विवरण
ज्ञात हुआ है. मेघवाल इतिहास
गौरवशाली ऋषि परम्पराओं वाला तथा
शासकीय स्वरूप वाला रहा है. मेघऋषि का
इतिहास भारत के उत्तर-पश्चिमी भूभाग
की सरसब्ज सिन्धुघाटी सभ्यता
के शासक एवं धर्म संस्थापक के रूप में रहा है जो
प्राचीनकाल में वस्त्र उद्दोग, कांस्यकला तथा
स्थापत्यकला का विकसित केन्द्र रहा था. संसार में
सभ्यता के सूत्रधार स्वरूप वस्त्र निर्माण की
शुरू आत भगवान मेघ की प्रेरणा से स्वयं
भगवान शिव द्वारा ऋषि मेघ के जरिये कपास का बिजारोपण
करवाकर कपास की खेती विकसित
करवाई गयी थी. जो समस्त विश्व
की सभ्यताओं के विकास का आधार बना.
समस्त उत्तर-पश्चिमी भूभाग पर मेघऋषि के
अनुयायियों एवं वंशजों का साम्राज्य था. जिसमें लोगों का
प्रजातांत्रिक तरीके से विकास हुआ था जहां
पर मानवमात्र एकसमान था. लेकिन भारत में कई
विदेशी कबीले आये जिनमें आर्य
भी एक थे, उन्होंने अपनी
चतुराई एवं बाहुबल से इन बसे हुये लोगों को खंडित कर
दिया तथा उन लोगों को | सम्पूर्ण भारत में बिखर जाने लिये
विवस कर दिया. चूंकि आर्य समुदाय शासक के रूप में एवं
सभी संसाधनों के स्वामी के रूप में
यहां स्थापित हो चुके थे उन्होंने अपने वर्णाश्रम
एवं ब्राह्मणी संस्कृति को यहां थोप दिया
था. ऐसी हालत में उनसे हारे हुये
मेघऋषि के वंशजों को आर्यों द्वारा नीचा दर्जा
दिया गया. जिसमें आज के वर्तमान के सभी
आदिवासी, दलित एवं पिछडे लोग शामिल थेभारत
में स्थापित आर्य सभ्यता वालों ने यहां पर अपने अनुकुल
धर्म, परमपरायें एवं नियम, रिवाज आदि कायम कर दिये थे
जिनमें श्रम सम्बन्धि कठिन काम पूर्व में बसे हुये लोगों
पर थोपकर उनसे निम्नता का व्यवहार किया जाना शुरू कर
दिया था तथा उन्हें पुराने काल के राक्षस, नाग, असुर,
अनार्य, दैत्य आदि कहकर उनकी छवि को
खराब किया गया. इन समूहों के राजाओं के धर्म को अधर्म
कहा गया था. इस प्रकार इतिहास के अंशों को देखकर
मेघऋषि के वंशजों को अपना गौरवशाली
अतीत पर गौरवान्वित होना चाहिये तथा
वर्तमान व्यवस्था में ब्राह्मणवादी संस्कृति
के थोपी हुई मान्यताओं को नकारते हुये
कलियुग में भगवान रामदेव एवं बाबा साहेब
भीमराव आम्बेडकर के बताये आदर्शों पर
अमल करते हुये अपने अधिकार प्राप्त करने चाहिये.
समाज में मेघवंश को सबल बनाने के लिये
स्वामी गोकुलदासजी महाराज,
गरीबदास जी महाराज जैसे संत
हुये हैं जिन्होंने मेघवाल समाज के गौरव को भारत के
प्राचीन ग्रंथों से समाज की
उत्पत्ति एवं विकास का स्वरूप उजागर कर हमें हमारा
गौरवशाली अतीत बताया है. तथा
हमें निम्नता एवं कुरीतियों का त्याग कर सत
कर्मों की ओर बड़ने का मार्ग दिखाया है.
मेघवंश इतिहास
मेघजाति की उत्पत्ति एवं निकास
की खोज स्वामी
गोकुलदासजी महाराज डूमाडा (अजमेर) ने
अपनी खोज एवं लेखन के जरिये मेघवाल
समाज की सेवा में प्रस्तुत की
है जो इस प्रकार है; सृष्टि के आदि में
श्रीनारायण के नाभिकमल से ब्रह्मा,
ब्रह्मा ने सृष्टि रचाने की इच्छा से सनक,
सनन्दन, सनातन, सन्तकुमार इन चार ऋषियों को उत्पन्न
किया लेकिन ये चारों नैष्टिक ब्रह्मचारी रहे
फिर ब्रह्मा ने दस मानसी पुत्रों को उत्पन्न
किया. मरीचि, अत्रि अंगिरा, पुलस्त्व, पुलह,
क्रतु, भृगु, वशिष्ट, दक्ष, और नारद. ब्रह्मा ने अपने
शरीर के दो खण्ड करके दाहिने भाग से
स्वायम्भुव मनु (पुरूष) और बाम भाग से स्तरूपा
(स्त्री) को उत्पन्न करके मैथुनी
सृष्टि आरम्भ की. स्वायम्भु मनु स्तरुपा से 2
पुत्र - उत्तानपाद और प्रियव्रत तथा 3 कन्याऐं आकुति,
प्रसूति, देवहूति उत्पन्न हुई. स्वायम्भु मनु
की पुत्री आकुति का विवाह
रूचिनाम ऋषि से, प्रसूति का दक्ष प्रजापति से और
देवहुति का कर्दम ऋषि से कर दिया. कर्दम ऋषि के
कपिल मुनि पैदा हुये जिन्होंने सांख्य शास्त्र बनाया.
कर्दम ऋषि के 9 कन्याऐं हुई जिनका विवाह: कला का
मरीचि से, अनुसूया का अत्रि से, श्रद्धा का
अंगिरा ऋषि से, हवि का पुलस्त्य ऋषि से, गति का पुलह
से, योग का क्रतु से, ख्याति का भृगु से, अरुन्धति का वशिष्ट
से और शांति का अर्थवन से कर दिया.
ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ट ऋषि
की अरुन्धति नामक स्त्री से मेघ,
शक्ति आदि 100 पुत्र उत्पन्न हुये. इस प्रकार
ब्रह्माजी के पौत्र मेघ ऋषि से मेघवंश चला.
वशिष्ट ऋषि का वंश सूर्यवंश माना जाता है.
ब्रह्माजी के जिन दस मानसी
पुत्रों का वर्णन पीछे किया गया है उन ऋषियों
से उन्हीं के नामानुसार गौत्र चालू हुये जो
अब तक चले आ रहे हैं. ब्रह्माजी के
ये पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र ही गुण
कर्मानुसार चारों वर्णों में विभाजित हुये|
श्रीमदभागवत में एक कथा आती
है कि मान्धाता के वंश में त्रिशंकु नामक एक राजा हुये,
वह सदेह स्वर्ग जाने के लिये यज्ञ की
इच्छा करके महर्षि वशिष्ट के पास गये और इस प्रकार
यज्ञ करने के लिये कहा. वशिष्टजी ने
यह कहकर इन्कार कर दिया कि मुझे ऐसा यज्ञ कराना
नहीं आता. यह सुनकर वह
वशिष्टजी के 100 पुत्रों के पास जाकर उनसे
यज्ञ करने को कहा. तब उन्होंने उस राजा त्रिशंकु को
श्राप दिया कि तू हमारे गुरू का वचन झूंठा समझकर
हमारे पास आया है इसलिये तू चांडाल हो जायेगा,
वह चांडाल हो गया. फिर वह ऋषि विश्वामित्र के पास
गया, विश्वामित्र ने उसकी चांडाल हालत
देखकर कहा कि हे राजा तेरी यह दशा
कैसे हुई. त्रिशंक ने अपना सारा वृतान्त कह सुनाया.
विश्वामित्र उसका यह वृतान्त सुनकर अत्यन्त क्रोधित
हुये और उसका वह यज्ञ कराने की
स्वीकृति दे दी विश्वामित्र ने राजा
त्रिशंकु के यज्ञ में समस्त ब्राह्मणों को आमंत्रण किया
मगर वशिष्ट ऋषि और उनके 100 पुत्र यज्ञ में
सम्मिलित नहीं हुये. इस पर विश्वामित्र ने
उनको श्राप दिया कि तुम शूद्रत्व को प्राप्त हो जावो.
उनके श्राप से वशिष्ट ऋषि की सन्तान मेघ
आदि 100 पुत्र शूद्रत्व को प्राप्त हो गये|
जातिवाद दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवाद :- नवरत्न मन्डुसिया
जातिवाद हमारे देश मे बहूत जोरों शोरो से चल रहा । हमारे देश मे यदि जातिवाद हट जाये तो हमारे भारत देश को वापिस सोने की चिड़िया कह सकते है क्यों की देश का सबसे बड़ा आतंकवाद जातिवाद ही है। सुरेरा राजस्थान के युवा लेखक समाज सेवी नवरत्न मन्डुसिया ने बताया की डॉक्टर भीव राव अम्बेडकर ने समानता का कानून बनाया था लेकिन बाबा साहेब की कलम की अवहेलना की जा रही हैं और आज भी जातिवाद की बाढ़ आ रही हैं और कब रुकेगी ये जातिवाद की पाठशाला जब तक तक जातिवाद बढ़ता रहेगा तो भारत देश मे कोई भी समुदाय एक साथ नज़र नही आयेगा । सभी समुदायो के साथ कही ना कही भी भेदभाव किया जाता हैं ये लोग ऐसी नकारात्मक सोच क्यों रखते हैं जातिवाद एक भयंकर समस्या हैं क्यों की यह प्रथा हमारे समाज के लिये एक दिन बहूत समस्या बन जायेगी इस कारण समाज पिछड़ता जायेगा और हम आगे बढ़ नही पायेंगे इस कारण हम सभी लोगों कॊ एकता की भावना रखकर हम सभी कॊ आगे आना चाहिये और इस जातिवाद की पाठशाला कॊ विलुप्त करना चाहिये । और हम पूरे विश्व मे ये मुहिम की क्रांति चलानी जिसमे जातिवाद कॊ मिटाया जा सके । भारतीये संविधान ने सभी नागरिकों कॊ समानता का अधिकार दिया गया हैं और राजनेतिक और कानूनी तौर पर भी सभी समान हैं फ़िर भी समाज के साथ अत्याचार होता हैं और सरकार कोई गम्भीर कदम नही उठाती है । इसलिए हमारे समुदायो कॊ आगे बढ़ना हैं हमारे समाज मे आज भी ऐसी चुनौतियां हैं जिनके आधार पर विभिन्न समूहों / समुदायों व व्यक्तियों के साथ भेदभाव किया जाता हैं ऐसी घटनाये हमारे समाज को पिछडापन बना देती हैं इस कारण हमे समाज की खातिर आगे आना चहिये और समाज एकता मे अपना योगदान देना चहिये ॥
जितेंद्र रामचंद्र मेघवाल एक युवा सामाजिक कार्यकर्ता दांता रामगढ़ और सीकर शहर मे
जितेंद्र रामचंद्र मेघवाल एक युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं यह दांता रामगढ़ और सीकर शहर मे पिछले पाँच सालो से समाज मे लगातार सेवा कर रहा हैं दोस्तो आज के युग मे जितेंद्र मेघवाल जेसे युवा बहूत कम मिलेंगे क्यों की जब मे जितेंद्र मेघवाल से मिला तो मुझे लगा की वास्तव मे जितेंद्र समाज के लिये कूछ कर सकता हैं इस लिये इस युवा की मे अपनी वेबसाइट www.mandusiya.blogspot.com पर भी अपलोड की जिसमे जितेंद्र मेघवाल की बहूत तारीफें हुयी हैं जितेंद्र मेघवाल वर्तमान मे अनुसूचित जाति का उपाध्यक्ष भी हैं और देहली मे सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं तथा जितेंद्र मेघवाल की धर्मपत्नी श्रीमती बीजेस मेघवाल भी दाँता रामगढ़ मंडल भाजपा युवा मोर्चा की सचिव हैं मेघवाल समाज मे बीजेस मेघवाल का अच्छा योगदान हैं जितेंद्र मेघवाल ने दाँता दलित मारपीट और डांगावास दलित हत्याकांड मे एस.डी.एम कॊ ज्ञापन सौंपा था मे नवरतन मन्डुसिया जितेंद्र मेघवाल पर गर्व करता की इस युवा ने समाज के लिये अनेक कष्ट उठाये
जितेंद्र मेघवाल की धर्म पत्नी अभी भाजपा मंत्री दाँतारामगढ़ की हैं और जितेंद्र मेघवाल वर्तमान मे भाजपा एस.सी मोर्चा प्रदेश कार्यकारीनी सदस्य राजस्थान के हैं तथा जितेंद्र की एजुकेशन शिक्षा बी.ए बी.एड और एम॰ए के साथ साथ एल.एल.बी भी हैं
जितेंद्र मेघवाल की धर्म पत्नी अभी भाजपा मंत्री दाँतारामगढ़ की हैं और जितेंद्र मेघवाल वर्तमान मे भाजपा एस.सी मोर्चा प्रदेश कार्यकारीनी सदस्य राजस्थान के हैं तथा जितेंद्र की एजुकेशन शिक्षा बी.ए बी.एड और एम॰ए के साथ साथ एल.एल.बी भी हैं
'मेघवंश, मेघ, प्राचीन इतिहास
मेघवंशी समुदायों के लोग आपस में एक दूसरे से पूछते रहे हैं कि भाई, हमारा इतिहास क्या है? उत्तर मिलता है कि - पता नहीं.
इतिहास तो बाद की बात है, पहले कुछ ऐतिहासिक सवाल हैं -
मेघों का इतिहास है तो उन्होंने युद्ध भी लड़ा होगा. इसके पर्याप्त सबूत हैं कि मेघवंशी या मेघ-भगत योद्धा रहे हैं हालाँकि उनकेअधिकतर इतिहास का लोप कर दिया गया है. नवल वियोगी जैसे इतिहासकारों ने नए तथ्यों के साथ इतिहास को फिर से लिखाहै और बताया है कि इस देश के प्राचीन शासक नागवंशी थे. आपने मेघ ऋषि के बारे में सुना होगा उसे वेदों में 'अहि' यानि'नाग' कहा गया है.
''मेघवंश'' एक मानव समूह है जो उस कोलारियन ग्रुप से संबंधित है जो मध्य एशिया से ईरान के रास्ते इस क्षेत्र में आया था.इसका रंग गेहुँआ (wheetish) है.
मेघवंशी सत्ता में रहे हैं जिसे 'अंधकार युग' (dark period या dark ages) कहा जाता था. लेकिन के.पी. जायसवाल, नवल वियोगी, एस.एन. रॉय-शास्त्री (जिन्होंने मेघ राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों का अध्ययन किया) और आर.बी. लाथम ऐसे इतिहासकार हैं जिनकी खोज ने उस समय का इतिहास खोजा. आज इतिहास में कोई 'अंधकार काल' नहीं है.
मेघवंशी रेस ने मेडिटेरेनियन साम्राज्य की स्थापना की थी जो सतलुज और झेलम तक फैला था. पर्शियन राज्य की स्थापना के बाद यह समाप्त हो गया और मेदियन साम्राज्य के लोग बिखर गए होंगे इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है.
आर्यों के आने से पहले सप्तसिंधु क्षेत्र में बसे लोग 'मेघ ऋषि' जिसे 'वृत्र' भी कहा जाता है के अनुगामी थे या उसकी प्रजा थे.उसका उल्लेख वेदों में आता है. काबुल से लेकर दक्षिण में नर्बदा नदी तक उसका आधिपत्य (Suzerainty) था. सप्तसिंधु का अर्थ है सात दरिया यानि सिंध, सतलुज, ब्यास, रावि, चिनाब, झेलम और यमुना. आर्यों का आगमन ईसा से लगभग 1500 वर्ष पूर्व माना जाता है और मेदियन साम्राज्य ईसा से 600 वर्ष पूर्व अस्तित्व में था. इस दौरान आर्यों के बड़ी संख्या में आने की शुरूआत हुई और इस क्षेत्र में मेघवंशियों के साथ लगभग 500 वर्ष तक चले संघर्ष के बाद आर्य जीत गए. यह लड़ाई मुख्यतः दरियाओं के पानी और उपजाऊ जमीन के लिए लड़ी गई.
आर.एल. गोत्रा जी ने लिखा है कि 'वैदिक साहित्य के अनुसार मेघ या वृत्र से जुड़े लगभग 8 लाख मेघों की हत्या की गई थी'.धीरे-धीरे आर्यों का वर्चस्व स्थापित होता चला गया जो बुद्ध के बाद पुष्यमित्र शुंग के द्वारा असंख्य बौधों की हत्या तक चला जिसमें बौधधर्म के मेघवंशी प्रचारक भी बड़ी संख्या में शामिल थे. कालांतर में ब्राह्मणीकल व्यवस्था स्थापित हुई, मनुस्मृति जैसा धार्मिक-राजनीतिक संविधान पुष्यमित्र ने स्मृति भार्गव से लिखवाया. जात-पात निर्धारित हुई और मेघवंशियों का बुरा समय शुरू हुआ.
मेघों का प्राचीन इतिहास भारत में कम और पुराने पड़ोसी देशों के इतिहास में अधिक है. यह उनके लिए दिशा संकेत है जो खोजी हैं.
ख़ैर, बहुत आगे चल कर आर्य ब्राह्मणों की बनाई हुई जातिप्रथा में शामिल होने से मेघवंश से कई जातियाँ निकलीं. पंजाब और जम्मू-कश्मीर के मेघ-भगत एक जाति है तथापि मेघवंश से राजस्थान के मेघवाल भी निकले हैं और गुजरात के मेघवार भी. कई अन्य जातियाँ भी मेघवंश से निकली हैं जिन्हें आज हम पहचाने से इंकार कर देते हैं लेकिन पहचानने की कोशिशें तेज़ हो रही है.
आपके गोत्र में आपका थोडा-सा इतिहास रहता है और आपका सामाजिक स्तर भी. गोत्र से उन सारी बातों का प्रचार हो जाता हैजो याद दिलाती रहती हैं कि कौन सा वर्ण सबसे ऊँचा है या सबसे ऊँचे से कितना नीचे है.
लोगों को आपने जन्म-मरण, विवाह के संस्कारों के समय अपना गोत्र छिपाते हुए देखा होगा. वे केवल ऋषि गोत्र से काम चलाना चाहते हैं. वे जानते हैं कि गोत्र बता कर वे अपनी जाति और अपने सामाजिक स्तर की घोषणा खुद करते हैं जो उन्हें अच्छा नहीं लगता. गोत्र की परंपरा का बोलबाला देख कर मेघों ने भी ख़ुद को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मिलाते हुए इस गोत्र व्यवस्था कोअपनाया. गोत्र-परंपरा ब्राह्मणी परंपरा से ली गई प्रथा है.
आमतौर पर ब्राह्मण परंपरा में गोत्र को रक्त-परंपरा (अपना ख़ून) और वंश के अर्थ में लिया जाता है. इसलिए ब्राह्मण हमेशाब्राह्मण ही रहेगा. मेघवंशी मेघवंशी ही रहेगा. वह आर्य या ब्राह्मण नहीं बन सकता. एक अन्य परंपरा के अनुसार मेघों की पहचान वशिष्टी के नाम से ही की जाती थी. इसलिए सारे भारत में मेघ वाशिष्ठी, वशिष्टा या वासिका नाम से जाने गए. फिरकई भू-भागों में यह वशिष्टा नाम धीरे-धीरे लुप्तप्राय हो गया.
आदिकाल से ही मेघ लोग अपने मूलपुरुष के रूप में मेघ नामधारी महापुरुष को मानते आए हैं. यह मूल पुरुष ही उनका गोत्रकर्ता(वंशकर्ता) है. इसे सभी मेघवंशी मानते हैं.
मेघों का धर्म
क्या मेघों का अपना कोई पुराना धर्म है? इतिहास खुली नज़र से इसका भी रिकार्ड देखता है. मेघ समुदाय में मेघों के धर्म के विषय पर कुछ कहना टेढ़ी खीर है. जम्मू के एक उत्साही युवा सतीश एक विद्रोही ने इस विषय पर एक चर्चा आयोजित की थी जिसमें बहुत-सी बातें उभर कर आई थीं. वैसे आज धर्म नितांत व्यक्तिगत चीज़ है.
राजस्थान के बहुत से मेघवंशी अपने एक पूर्वज बाबा रामदेव में आस्था रखते हैं. गुजरात के मेघवारों ने अपने पूर्वज मातंग ऋषिऔर ममई देव के बारमतिपंथ को धर्म के रूप में सहेज कर रखा है और उनके अपने मंदिर हैं, पाकिस्तान में भी हैं. प्रसंगवश मातंग शब्द का अर्थ मेघ ही है. मेघवार अपने सांस्कृतिक त्योहारों में सात मेघों की पूजा करते हैं. संभव है वे सात मेघवंशी राजा रहे हों. ममैदेव महेश्वरी मेघवारों के पूज्य हैं जो मातंग देव या मातंग ऋषि के वंशज हैं. ममैदेव का मक़बरा जिस कब्रगाह में है उसे यूनेस्को ने विश्वधरोहर (World Heritage) के रूप में मान्यता दी है. इस प्रकार एक मेघवंशी का निर्वाण स्थल विश्वधरोहर में है.
मेघ कई अन्य धर्मों/पंथों में गए जैसे राधास्वामी, निरंकारी, ब्राह्मणीकल सनातन धर्म, सिखिज़्म, आर्यसमाज, ईसाईयत, विभिन्न गुरुओं की गद्दियाँ, डेरे आदि. सच्चाई यह है कि जिसने भी उन्हें 'मानवता और समानता' का बोर्ड दिखाया वे उसकी ओर गए.लेकिन उनका सामाजिक स्तर वही रहा. धार्मिक दृष्टि से उनकी अलग पहचान और एकता नहीं हो पाई. मेघों ने सामूहिक निर्णय कम ही लिए हैं.
लेकिन इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि आर्यसमाज द्वारा मेघों के शुद्धीकरण के बाद मेघों का आत्मविश्वास जागा, उनकी राजनीतिक महत्वाकाँक्षा बढ़ी और स्थानीय राजनीति में सक्रियता की उनकी इच्छा को बल मिला. वे म्युनिसपैलिटी जैसी संस्थाओं में अपनी नुमाइंदगी की माँग करने लगे. इससे आर्यसमाजी परेशान हुए.
मेघों की नई पीढ़ी कबीर की ओर झुकने लगी है ऐसा दिखता है और बुद्धिज़्म को एक विकल्प के रूप में जानने लगी है. यह भी आगे चल कर मेघों के धार्मिक इतिहास में एक प्रवृत्ति (tendency) के तौर पर पहचाना जाएगा. मेघों में संशयवादी(scepticism) विचारधारा के लोग भी हैं जो ईश्वर-भगवान, मंदिर, धर्मग्रंथों, धार्मिक प्रतीकों आदि पर सवाल उठाते हैं और उनकी आवश्यकता महसूस नहीं करते. मेघों की देरियाँ भी उनके पूजास्थल हैं जो अधिकतर जम्मू में और दो-तीन पंजाब में हैं.
इधर ''मेघऋषि'' का मिथ धर्म और पूजा पद्धति में प्रवेश पाने के लिए आतुर है. मेघऋषि की कोई स्पष्ट तस्वीर तो नहीं है लेकिन कल्पना की जाती है कि एक जटाधारी भगवा कपड़े पहने ऋषि रहा होगा जो पालथी लगा कर जंगल में तपस्या करता था. इसी पौराणिक इमेज के आधार पर गढ़ा, जालंधर में एक मेघ सज्जन सुदागर मल कोमल ने अपने देवी के मंदिर में मेघऋषि की मूर्ति स्थापित की है. राजस्थान में गोपाल डेनवाल ने मेघ भगवान और मेघ ऋषि के मंदिर बनाने का कार्य शुरू किया है. इसके लिए उन्होंने मोहंजो दाड़ो सभ्यता में मिली सिन्धी अज्रुक पहने हुए पुरोहित-नरेश (King Preist) की 2500 ई.पू.की एक प्रतिमा जो पाकिस्तान के नेशनल म्यूज़ियम, कराची, में रखी है उसकी इमेज या छवि का भी प्रयोग किया है. मेघ भगवान की आरतियाँ, चालीसा, स्तुतियाँ तैयार करके CDs बनाई और बाँटी गई हैं.
कमज़ोर आर्थिक-सामाजिक स्थिति की वजह से राजनीति के क्षेत्र में मेघों की सुनवाई लगभग नहीं के बराबर है और सत्ता में भागीदारी बहुत दूर की बात है. एक सकारात्मक बात यह है कि पढ़े-लिखे मेघों ने बड़ी तेज़ी से अपना पुश्तैनी कार्य छोड़ कर अपनी कुशलता कई अन्य कार्यों में दिखाई और उसमें सफल हुए. व्यापार के क्षेत्र में इनकी पहचान बने इसकी प्रतीक्षा है.
मेघों के इतिहास के ये कुछ पृष्ठ ख़ाली पड़े हैं.
1. अलैक्ज़ेंडर कन्निंघम ने अपनी खोज में मेघों की स्थिति को सिकंदर के रास्ते में बताया है. हालाँकि राजा पोरस पर कई जातियाँ अपना अधिकार जताती हैं. तथापि यह देखने की बात है कि उस समय पोरस की सेना में शामिल योद्धा जातियाँ कौन-कौन थीं. भूलना नहीं चाहिए कि उस क्षेत्र में मेघ बहुत अधिक संख्या में थे जो योद्धा थे. कुछ इतिहासकारों ने बताया है कि पोरस ने ही सिकंदर को हराया था.
2. केरन वाले भगता साध की अगुआई में कई हज़ार मेघों ने मांसाहार छोड़ा. यह एक तरह का एकतरफा करार था. इस करार की शर्तों और पृष्ठभूमि को देखने की ज़रूरत है.
3. कुछ मेघों ने विश्वयुद्धों में, पाकिस्तान और चीन के साथ हुए युद्धों में हिस्सा लिया है. वे दुश्मन की सामाओं में घुस कर लड़े हैं. उनके बारे में जानकारी नहीं मिलती.
4. दीनानगर की अनीता भगत ने बताया था कि एक मेघ भगत मास्टर नरपत सिंह, गाँव बफड़ीं, तहसील और ज़िला हमीरपुर(हिमाचल प्रदेश), (जीवन काल - सन् 1914 से 1992 तक) स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा पा चुके हैं. अनीता ने उनके बारे में जानकारी और फोटोग्राफ इकट्ठे करके भेजे हैं. उस वीर को 1972 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने स्वतंत्रता संग्राम में योगदान के लिए ताम्रपत्र भेंट किया था. गाँव की पंचायत ने उनके सम्मान में स्मृति द्वार बनवाया है. एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी जिसके शरीर पर गोलियों के छह निशान थे. ऐसे लोग शायद और भी मिलें. देखिए. ढूँढिए.
5. मेघवंश के लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का रिकार्ड तैयार करने की भी ज़रूरत है. एडवोकेट हंसराज भगत, भगत दौलत राम जी के बारे में कुछ जानकारी मिली है. यह सूची अधूरी है.
6. ऐसे ही मेघों के राजनेताओं की जानकारी का संकलन अभी तक नहीं हो पाया है.
जो अब तक कहा गया है उसे अंत में आप मेघों के इतिहास की हेडलाइन्स समझ कर संतोष करें.
मेघ इतने दमन के बावजूद बेदम नहीं हुए बल्कि आज वे पहले से अधिक प्रकाशित हैं. अन्य जातियों के साथ मिला कर वे देश की प्रगति में अपना योगदान दे रहे हैं. आने वाले समय में इनकी भूमिका बहुत एक्टिव होगी और स्पेस भी अधिक होगा. आपनेपिछले इतिहास को थोड़ा-सा जान लिया है. अब अपने आज को सँवारिए और भविष्य बनाइए जो आपका है.
जय मेघ, जय भारत.
भारत भूषण भगत
चंडीगढ़.
शनिवार, 27 जून 2015
एम. कोम. की छात्रा बनी राजलिया (नागोर) की कम उम्र की सरपंच
वन्दना
पिपरालिया एम. कोम. की छात्रा बनी राजलिया (नागोर) की
कम उम्र की सरपंच | वन्दना पिपरालिया ने राजलिया (नागोर) में पहुंचकर लोगों को चुनाव जीत जाने की सूचना दी तो लोग खुशी से नाचने लगे। उन्होंने गांव में लड्डू बांटे। इस अवसर पर कार्यकर्ताओं ने मिठाइयां बांटकर खुशी जाहिर वन्दना पिपरालिया
के सरपंच निर्वाचित होते ही राजलिया (नागोर) मे
खुशी की लहर दौड़ी
शनिवार, 20 जून 2015
समाज , परिवार , (samaj)
व्यावहारिक रुप से समाज शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है । किन्तु वास्तविक रुप से समाज मानव समूह के अन्तर्गत व्यक्तियों के सम्बंधों की व्यवस्था का नाम है । समाज स्वयं एक संघ है संगठन है, औपचारिक सम्बंधों का योग है ।
समाज के प्रमुख स्तम्भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्बंध पति और पत्नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्तानोत्पत्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्बंधों का एक लम्बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्बों के स्वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्व करता था । मध्य काल तक लगभग परिवार की यही व्यवस्था चलती रही । किन्तु योरोपीय सभ्यता ने जब हमारी संस्कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्नी तथा अविवाहित बच्चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्य कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्यात्मिक मूल्यों पर यह व्यवस्था आधारित थी उन मूल्यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्पत्ति के संरक्षण, वंश विस्तार तथा पिता के मरणोपरान्त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्यक समझा जाने लगा तथा सन्तान का होना भी अत्यावश्यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्यवस्था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का परम्परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। भारतीय संस्कृति इसके जननी, भगिनी, पत्नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्वजनों के निमित्त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी । किन्तु भारतीय संस्कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । प्रकृति ने नर और नारी में भिन्नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्य है और कठोर परिश्रम के पश्चात् विश्राम की आवश्यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्नी रुप से अति निकट का सम्बन्ध है । नर-नारी सम्बन्धों का सुन्दर रुप दाम्पत्य जीवन है । क्योंकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्न समुदायों तथा वर्गों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्ड हैं जो स्त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्त्री से उच्च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्त अंतिम धार्मिक कृत्य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्वपूर्ण स्थान न देना आदि । इन्हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं की िस्थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
यद्यपि वर्तमान में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव, परिवार नियोजन की धारणा तथा व्यक्तिवादी सोच के कारण नारी स्वभाव में कुछ विकृति आई है । पूर्वकाल में जहॉं नारियॉं अपने दूध से दूसरों के बच्चों का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्य समझती थीं वहॉं कभी यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि ममता, करुणा, स्नेह और दया की देवी कही जाने वाली नारी अपने ही बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी । किन्तु वर्तमान में यह स्पष्ट रुप से दृष्टिगत हो रहा है । स्त्रियों द्वारा बच्चों को अपना दूध न पिलाना एक समस्या बन गयी है और इसी प्रकार यह कहना कि नारी सर्पिणी बन जायेगी अपने ही बच्चे की हत्यारिन होगी असंभव था, किन्तु आज बढ़ती हुई भ्रूण हत्या इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यद्यपि इसके लिए पुरुष व चिकित्सक भी कम जिम्मेदार नहीं है । भारत सरकार ने कानून बनाकर भ्रूण-हत्या को कानूनी अपराध करार दिया है ।
व्यक्तिवादी सोच एवं फिल्म संसार ने तो वर्तमान में सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है । स्मरणीय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी फिल्म निर्माता पर मुकद्मा चलाया गया । किन्तु आज फिल्मों में ही नहीं बल्कि चौराहों पर लगे पोस्टर में भारतीय नारियों को अर्द्धनग्न ही नहीं बल्कि अति नग्न तस्वीरें देखी जा सकती है । यदि समाज के इस परिवर्तन पर ध्यान न दिया गया इसे नियंत्रित करने का प्रयास न किया गया तो भविष्य में भारतीय नारी का आदर्श क्या होगा, कहना कठिन है ।
दाम्पत्य जीवन का फल संतान उत्पत्ति है । पहले भी लिखा जा चुका है कि नियोजित परिवार की धारणा के बावजूद भी कोई व्यक्ति पुत्रहीन होना पसंद नहीं करता । आज के बच्चे ही कल के स्त्री और पुरुष है । बाल्यावस्था में जो संस्कार बनते हैं वही बड़े होने पर प्रकट होते हैं । मॉं की गोद को बच्चे की पहली पाठशाला कहा गया है । प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययनों से पता चलता है कि मॉं अपने बच्चे को लोरियों और कहानियों के माध्यम से वीर गाथायें और सत्पुरुषों की कहानियां सुनाती थी, जिससे उनके अन्दर वीरता एवं सच्चाई के भाव पैदा होते थे और बड़े होकर वीर और सच्चे बालक के रुप में धरा को सुशोभित करते थे । कक्षा-3 की पुस्तक में सच्चा बालक नामक शीर्षक में यह पढ़ा था कि हजरत अब्दुल कादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैहे को उनकी मॉं ने सच्चाई का पाठ पढ़ाया था और यात्रा पर जाते समय यह समझाया था कि बेटा कभी झूठ मत बोलना । मॉं की इस नसीहत का बच्चे अब्दुल कादिर पर इतना गहरा असर था कि रास्ते में डाकुओं द्वारा काफिले का सारा माल लूटे जाने के पश्चात् जब उनसे उनके माल के बारे में पूछा गया तो उन्होंने सदरी में मॉं द्वारा छिपाकर रखी गई चालीस अशर्फियों को निकाल कर दिखा दिया, जबकि डाकू उन अशर्फियों को ढूंढने में असमर्थ थे । यह देखकर डाकुओं के सरदार ने आश्चर्य से पूछा ऐ लड़के । तुमने अपने छिपे हुए माल का पता हमें क्यों बता दिया, जबकि तुमको यह पता है कि हम डाकू हैं । बच्चे ने जवाब दिया कि चलते समय मेरी मॉं ने मुझसे कहा था, बेटा कभी झूठ मत बोलना तो मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ बच्चे की इस सच्चाई का डाकुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होने काफिले का लूटा हुआ सारा माल वापस कर दिया तथा हमेशा के लिए डकैती का परित्याग कर दिया
भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के सम्यक संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक आधार पर चार सूत्रीय व्यवस्था की योजना की थी । जिसके अनुसार मानव को 100 वर्ष का मानकर चार स्वाभाविक अवस्थाओं में विभक्त किया गया था, जिसके प्रथम 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) विद्या अध्ययन हेतु रखा गया था । बालक परिवार की पाठशाला छोड़ कर गुरु की पाठशाला में प्रवेश करता था । गुरु गाँव अथवा शहर के वातावरण से पृथक जगंल के शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में छात्र को विद्या अध्ययन कराते थे और अध्ययनोपरांत छात्र चरित्रवान, सुशील, सहनशील, धैर्यवान एवं आज्ञापालक बनकर अपने घर वापस लौटते थे यधपि शिक्षा का यह रूप बहुत सीमित था । समाज का हर व्यक्ति शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था आगे चलकर यह व्यवस्था समाप्त हो गयी और वर्तमान में समाज के हर व्यक्ति को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में परिवार के बाद दूसरी महत्वपूर्ण संस्था विद्यालय है । अधिकांश देशों में प्राथमिक स्तर तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गयी है । चूँकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । चूंकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । विद्यालय बालक को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला तथा भूगोल की जानकारी प्रदान करते है । कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान व्यक्ति को किन्हीं खास विषयों का विशिष्ट ज्ञान प्रदान करते हैं । वे व्यक्ति को इस योग्य बनाते है कि वे अपनी जीविका उपार्जित कर सकें और समाज का एक उपयोगी अंग बन सके । वर्तमान में शिक्षा संस्थाओं की बहुतायत है और इस संस्था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र, छात्राओं की भीड़ है । बालक, बालिकाएं समान रुप से तकनीकी एवं गैर-तकनीकी हर क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । किन्तु आज की सह-शिक्षा ने पाश्चात्य देशों की तरह हमारे देश में निरंकुश समाज को जन्म दिया है । जिसके परिणामस्वरुप युवक और युवतियों के आचार-विचार में काफी परिवर्तन आया है । आचरणहीनता, अशिष्टता तथा मर्यादा का निर्वाह न करना आम बात बन गयी है । शिक्षा संस्थाओं और शिक्षकों की बहुतायत होने के बावजूद भी समाज नैतिक पतन की और जा रहा है । इसके पीछे जो कारण प्रतीत होता है वह यह है कि शिक्षा का उद्देश्य लिखने-पढ़ने के योग्य बन जाना और शिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन का साधन प्राप्त कर लेना है । हमारी आज की शिक्षा में कहीं भी इस बात पर बल नहीं दिया गया है कि शिक्षा के माध्यम से चरित्र का निर्माण हो और मर्यादा का पालन किया जायेगा । आज का एक डाक्टर समाज का शिक्षित और संभ्रांत व्यक्ति है । क्या यह डाक्टर अपने भौतिक सुख के लिए अथवा भौतिक सुख को प्राइज़ करने के लिए अपनी कई पत्नियों, एक के बाद दूसरी को जहर का इंजेक्शन लगाकर मौत के घाट उतार सकता है क्या उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च अधिकारी पति-पत्नियों की आपसी आचरणहीनता एक दूसरे को आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकती है इस प्रकार की अनेकों खबरें समाचार पत्रों के माध्यम से आज के शिक्षित समाज की प्राप्त होती रहती है । जो आज के शिक्षित समाज के लिए एक अभिशाप है ।
परिवार और शिक्षण संस्थाओं के बाद व्यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का इलाका सबसे अधिक महत्व रखता है । पड़ोसी अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते है । उनके व्यवसाय धार्मिक विश्वास और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है, किन्तु पड़ोसी होने के कारण कुछ सम्मिलित जिम्मेदारियां होती है । जैसे पड़ोस में रहने वाले सभी लोगों का कल्याण इस बात में है कि गली-मुहल्ला साफ-सुथरा रहे, सभी लोग यह चाहेगें कि पड़ोस में शान्ति पूर्ण वातावरण रहे, सभी यह चाहेगें कि उनके बच्चे बुरी आदतों का शिकार न बनें और पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्वस्थ्य वातावरण बना रहे । अच्छे पड़ोसी के लिये यह आवश्यक है कि वह पास-पड़ोस को साफ-सुथरा रखें, पड़ोसियों के दु:ख दर्द में शामिल हो, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखें, चोरों और अजनबी लोगों पर नजर रखें, बच्चों को कुसंग से बचायें आदि ।
जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है समाजिक क्षेत्र का विस्तार होता चला जाता है । कई परिवारों से गॉंव, कस्बे शहर बनते हैं, तत्पश्चात् देश और सम्पूर्ण विश्व । पड़ोस से तात्पर्य सिर्फ घर से घर ही नहीं बल्कि गॉंव का पड़ोसी गॉंव, शहर का पड़ोसी शहर, देश का पड़ोसी देश इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व बनता है । हमारी संस्कृति तो वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव से परिपूर्ण है । सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना गया है और सबके ही सुख और कल्याण की कामना की गयी है ।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत् ।।
समाज के प्रमुख स्तम्भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्बंध पति और पत्नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्तानोत्पत्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्बंधों का एक लम्बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है ।
प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्बों के स्वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्व करता था । मध्य काल तक लगभग परिवार की यही व्यवस्था चलती रही । किन्तु योरोपीय सभ्यता ने जब हमारी संस्कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्नी तथा अविवाहित बच्चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्य कारण व्यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्यात्मिक मूल्यों पर यह व्यवस्था आधारित थी उन मूल्यों को हम भूलते जा रहे हैं ।
आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्पत्ति के संरक्षण, वंश विस्तार तथा पिता के मरणोपरान्त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्यक समझा जाने लगा तथा सन्तान का होना भी अत्यावश्यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्यवस्था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है ।
भारतीय संस्कृति में नारी का परम्परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। भारतीय संस्कृति इसके जननी, भगिनी, पत्नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्वजनों के निमित्त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी । किन्तु भारतीय संस्कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । प्रकृति ने नर और नारी में भिन्नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्य है और कठोर परिश्रम के पश्चात् विश्राम की आवश्यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्नी रुप से अति निकट का सम्बन्ध है । नर-नारी सम्बन्धों का सुन्दर रुप दाम्पत्य जीवन है । क्योंकि पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्नी ही आदर्श भारतीय नारी है ।
ऊपर यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्न समुदायों तथा वर्गों में स्त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्ड हैं जो स्त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्त्री से उच्च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्त अंतिम धार्मिक कृत्य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्थान प्राप्त नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्वपूर्ण स्थान न देना आदि । इन्हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं की िस्थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है ।
यद्यपि वर्तमान में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव, परिवार नियोजन की धारणा तथा व्यक्तिवादी सोच के कारण नारी स्वभाव में कुछ विकृति आई है । पूर्वकाल में जहॉं नारियॉं अपने दूध से दूसरों के बच्चों का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्य समझती थीं वहॉं कभी यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि ममता, करुणा, स्नेह और दया की देवी कही जाने वाली नारी अपने ही बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी । किन्तु वर्तमान में यह स्पष्ट रुप से दृष्टिगत हो रहा है । स्त्रियों द्वारा बच्चों को अपना दूध न पिलाना एक समस्या बन गयी है और इसी प्रकार यह कहना कि नारी सर्पिणी बन जायेगी अपने ही बच्चे की हत्यारिन होगी असंभव था, किन्तु आज बढ़ती हुई भ्रूण हत्या इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । यद्यपि इसके लिए पुरुष व चिकित्सक भी कम जिम्मेदार नहीं है । भारत सरकार ने कानून बनाकर भ्रूण-हत्या को कानूनी अपराध करार दिया है ।
व्यक्तिवादी सोच एवं फिल्म संसार ने तो वर्तमान में सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है । स्मरणीय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी फिल्म निर्माता पर मुकद्मा चलाया गया । किन्तु आज फिल्मों में ही नहीं बल्कि चौराहों पर लगे पोस्टर में भारतीय नारियों को अर्द्धनग्न ही नहीं बल्कि अति नग्न तस्वीरें देखी जा सकती है । यदि समाज के इस परिवर्तन पर ध्यान न दिया गया इसे नियंत्रित करने का प्रयास न किया गया तो भविष्य में भारतीय नारी का आदर्श क्या होगा, कहना कठिन है ।
दाम्पत्य जीवन का फल संतान उत्पत्ति है । पहले भी लिखा जा चुका है कि नियोजित परिवार की धारणा के बावजूद भी कोई व्यक्ति पुत्रहीन होना पसंद नहीं करता । आज के बच्चे ही कल के स्त्री और पुरुष है । बाल्यावस्था में जो संस्कार बनते हैं वही बड़े होने पर प्रकट होते हैं । मॉं की गोद को बच्चे की पहली पाठशाला कहा गया है । प्राचीन ऐतिहासिक अध्ययनों से पता चलता है कि मॉं अपने बच्चे को लोरियों और कहानियों के माध्यम से वीर गाथायें और सत्पुरुषों की कहानियां सुनाती थी, जिससे उनके अन्दर वीरता एवं सच्चाई के भाव पैदा होते थे और बड़े होकर वीर और सच्चे बालक के रुप में धरा को सुशोभित करते थे । कक्षा-3 की पुस्तक में सच्चा बालक नामक शीर्षक में यह पढ़ा था कि हजरत अब्दुल कादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैहे को उनकी मॉं ने सच्चाई का पाठ पढ़ाया था और यात्रा पर जाते समय यह समझाया था कि बेटा कभी झूठ मत बोलना । मॉं की इस नसीहत का बच्चे अब्दुल कादिर पर इतना गहरा असर था कि रास्ते में डाकुओं द्वारा काफिले का सारा माल लूटे जाने के पश्चात् जब उनसे उनके माल के बारे में पूछा गया तो उन्होंने सदरी में मॉं द्वारा छिपाकर रखी गई चालीस अशर्फियों को निकाल कर दिखा दिया, जबकि डाकू उन अशर्फियों को ढूंढने में असमर्थ थे । यह देखकर डाकुओं के सरदार ने आश्चर्य से पूछा ऐ लड़के । तुमने अपने छिपे हुए माल का पता हमें क्यों बता दिया, जबकि तुमको यह पता है कि हम डाकू हैं । बच्चे ने जवाब दिया कि चलते समय मेरी मॉं ने मुझसे कहा था, बेटा कभी झूठ मत बोलना तो मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ बच्चे की इस सच्चाई का डाकुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होने काफिले का लूटा हुआ सारा माल वापस कर दिया तथा हमेशा के लिए डकैती का परित्याग कर दिया
भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के सम्यक संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक आधार पर चार सूत्रीय व्यवस्था की योजना की थी । जिसके अनुसार मानव को 100 वर्ष का मानकर चार स्वाभाविक अवस्थाओं में विभक्त किया गया था, जिसके प्रथम 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) विद्या अध्ययन हेतु रखा गया था । बालक परिवार की पाठशाला छोड़ कर गुरु की पाठशाला में प्रवेश करता था । गुरु गाँव अथवा शहर के वातावरण से पृथक जगंल के शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में छात्र को विद्या अध्ययन कराते थे और अध्ययनोपरांत छात्र चरित्रवान, सुशील, सहनशील, धैर्यवान एवं आज्ञापालक बनकर अपने घर वापस लौटते थे यधपि शिक्षा का यह रूप बहुत सीमित था । समाज का हर व्यक्ति शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था आगे चलकर यह व्यवस्था समाप्त हो गयी और वर्तमान में समाज के हर व्यक्ति को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में परिवार के बाद दूसरी महत्वपूर्ण संस्था विद्यालय है । अधिकांश देशों में प्राथमिक स्तर तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गयी है । चूँकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । चूंकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्च प्राथमिकता दी गयी है । विद्यालय बालक को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला तथा भूगोल की जानकारी प्रदान करते है । कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान व्यक्ति को किन्हीं खास विषयों का विशिष्ट ज्ञान प्रदान करते हैं । वे व्यक्ति को इस योग्य बनाते है कि वे अपनी जीविका उपार्जित कर सकें और समाज का एक उपयोगी अंग बन सके । वर्तमान में शिक्षा संस्थाओं की बहुतायत है और इस संस्था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र, छात्राओं की भीड़ है । बालक, बालिकाएं समान रुप से तकनीकी एवं गैर-तकनीकी हर क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । किन्तु आज की सह-शिक्षा ने पाश्चात्य देशों की तरह हमारे देश में निरंकुश समाज को जन्म दिया है । जिसके परिणामस्वरुप युवक और युवतियों के आचार-विचार में काफी परिवर्तन आया है । आचरणहीनता, अशिष्टता तथा मर्यादा का निर्वाह न करना आम बात बन गयी है । शिक्षा संस्थाओं और शिक्षकों की बहुतायत होने के बावजूद भी समाज नैतिक पतन की और जा रहा है । इसके पीछे जो कारण प्रतीत होता है वह यह है कि शिक्षा का उद्देश्य लिखने-पढ़ने के योग्य बन जाना और शिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन का साधन प्राप्त कर लेना है । हमारी आज की शिक्षा में कहीं भी इस बात पर बल नहीं दिया गया है कि शिक्षा के माध्यम से चरित्र का निर्माण हो और मर्यादा का पालन किया जायेगा । आज का एक डाक्टर समाज का शिक्षित और संभ्रांत व्यक्ति है । क्या यह डाक्टर अपने भौतिक सुख के लिए अथवा भौतिक सुख को प्राइज़ करने के लिए अपनी कई पत्नियों, एक के बाद दूसरी को जहर का इंजेक्शन लगाकर मौत के घाट उतार सकता है क्या उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च अधिकारी पति-पत्नियों की आपसी आचरणहीनता एक दूसरे को आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकती है इस प्रकार की अनेकों खबरें समाचार पत्रों के माध्यम से आज के शिक्षित समाज की प्राप्त होती रहती है । जो आज के शिक्षित समाज के लिए एक अभिशाप है ।
परिवार और शिक्षण संस्थाओं के बाद व्यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का इलाका सबसे अधिक महत्व रखता है । पड़ोसी अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते है । उनके व्यवसाय धार्मिक विश्वास और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है, किन्तु पड़ोसी होने के कारण कुछ सम्मिलित जिम्मेदारियां होती है । जैसे पड़ोस में रहने वाले सभी लोगों का कल्याण इस बात में है कि गली-मुहल्ला साफ-सुथरा रहे, सभी लोग यह चाहेगें कि पड़ोस में शान्ति पूर्ण वातावरण रहे, सभी यह चाहेगें कि उनके बच्चे बुरी आदतों का शिकार न बनें और पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्वस्थ्य वातावरण बना रहे । अच्छे पड़ोसी के लिये यह आवश्यक है कि वह पास-पड़ोस को साफ-सुथरा रखें, पड़ोसियों के दु:ख दर्द में शामिल हो, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखें, चोरों और अजनबी लोगों पर नजर रखें, बच्चों को कुसंग से बचायें आदि ।
जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है समाजिक क्षेत्र का विस्तार होता चला जाता है । कई परिवारों से गॉंव, कस्बे शहर बनते हैं, तत्पश्चात् देश और सम्पूर्ण विश्व । पड़ोस से तात्पर्य सिर्फ घर से घर ही नहीं बल्कि गॉंव का पड़ोसी गॉंव, शहर का पड़ोसी शहर, देश का पड़ोसी देश इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व बनता है । हमारी संस्कृति तो वसुधैव कुटुम्बकम् के भाव से परिपूर्ण है । सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार माना गया है और सबके ही सुख और कल्याण की कामना की गयी है ।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत् ।।
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