भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ. संविधान लागू होने के तुरन्त बाद सभी को समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अत्याचारों से मुक्ति पाने का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, शिक्षा व संस्कृति का अधिकार, संवैधानिक उपचारों का अधिकार मिला. लेकिन संविधान लागू होने के 57 वर्ष बाद भी दलित समाज अपमानित, उपेक्षित और घृणित जीवन जीने पर मजबूर है. इसका कारण दूसरों पर नहीं थोपकर हम अपने अन्दर ही झांक कर देखें कि हम अपमानित, उपेक्षित और घृणित क्यों हैं? हम दूसरों में सौ बुराई देखते हैं. दूसरों की ओर अंगुली उठाते हैं, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हमारी ओर भी तीन अंगुलियां उठी रहती हैं. दूसरों में बुराई ढूँढने से पहले अपने अंदर की बुराई देखें. कबीर की पंक्तियाँ याद रखकर अपने अंदर झांकें:-
बुरा, जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जब दिल ढूंढा आपणा, मुझ से बुरा न कोय।
मन को उन्नत करो, हीन विचारों का त्याग करो.
मेरे विचार से यह सब इसलिए कि हम दब्बू हैं, स्वाभिमानी नहीं हैं. हम यह मानने भी लगे हैं कि वास्तव में अक्षम हैं. हमारा मन मरा हुआ है. हमारे अन्दर आत्मसम्मान व आत्मविश्वास की कमी है. किसी को आप बार-बार बुद्धु कहो तो वह वास्तव में बुद्धु जैसा दिखने लगता है. हमें भी ऐसा ही निरीह, कमजोर बनाया गया है और हम अपने को निरीह, कमजोर समझने लगे हैं. जबकि वास्तव में हम नहीं हैं. जब हमारे उपर कोई हाथ उठाता है, थप्पड़ मार मारता है तो हम केवल यही कहते हैं - अब की मार. दबी हुई, मरी हुई आत्मा, हुंकार तो मारती है, लेकिन मारने वाले का हाथ नहीं पकड़ती. मैं हिंसा में विश्वास नहीं करता, फिर भी आपको कहना चाहता हूँ कि आप पर जो हाथ उठे उस हाथ को साहस कर, एकजुट होकर कम से कम पकड़ने की तो हिम्मत करिए ताकि वह आपको मार नहीं सके. उसको वापिस मारने की आवश्यकता नहीं. आपका आत्मसम्मान जाग्रत होगा और आप एकजुट होकर अपने अधिकारों के प्रति सचेत होंगे. अपने दिलों को बदलना होगा. दब्बू को हर कोई मारने की कोशिश करता है. एक कहावत है- एक मेमना (बकरी का बच्चा) भगवान के पास गया और बोला -भगवान आपने तो कहा था कि सभी प्राणी समान हैं. सभी को जीने का समान अधिकार है. फिर भी सभी भाईचारे को भूलकर मुझ पालनहार का भी तुम्हें निगलने का मन कर रहा है. सीना उठाकर चलोगे तो कोई भी तुम पर झपटने से पहले सोचेगा. बली तो भेड़-बकरियों की ही दी जाती है, सिंहों की नहीं. अत: मेमने जैसा दब्बूपन छोड़ो और समानता के अधिकार के लिए सिंहों की तरह दहाड़ो. एक बार हम साहस करेंगे तो हमें कोई भी जबरन दब्बू नहीं बना सकता.
असमानता, ऊँच-नीच की धारणा दूसरों देशों में भी है.
ऊँच-नीच की बात भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में है. अमेरिका के राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन जब राष्ट्रपति बनकर वहाँ की संसद में पहुँचे तो किसी सदस्य ने पीछे से टोका, लेकिन तुम्हारे पिता जूते बनाते थे, एक चर्मकार थे. इब्राहिम लिंकन तनिक भी हीनभावना में नहीं आए बल्कि उस सदस्य को उत्तर दिया, हाँ, मेरे पिता जी जूते बनाते थे. वे एक अच्छे कारीगर थे. उनके द्वारा बनाए गए जूतों ने किसी के पैर नहीं काटे. किसी के पैरों में कील नहीं चुभी. किसी के पैरों में छाले नहीं हुए. डील नहीं बनी. मुझे गर्व है कि वे एक कुशल कारीगर थे. लोग उनकी कारीगरी की प्रशंसा करते थे. यह था लिंकन का स्वाभिमान, आत्मसम्मान के कारण वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति बने थे. हमें भी लिंकन की तरह अपने में आत्मविश्वास पैदा करना होगा. यदि हमको तरक्की की राह पकड़नी है तो हमें हीनभावना, कुंठित भावना को त्यागना होगा. हमें पुन: अपना आत्मसम्मान जगाना होगा. हम अपनी मर्जी से तो इस जाति में पैदा नहीं हुए और जब हम दलित वर्ग में पैदा हो ही गए हैं तो हीन भावना कैसी? आत्मसम्मान के साथ समाज की इस सच्चाई को स्वीकार कर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना होगा. सफलता की सबसे पहली शर्त आत्मसम्मान, आत्मविश्वास ही होती है.
राजस्थान प्रांत में मेघवाल जाति के क्षेत्रानुसार भिन्न-भिन्न नाम हैं लेकिन मूल रूप से यह 'चमार' नाम से जानी जाती थी. समाज में चमार शब्द से सभी नफ़रत करते हैं. गाली भी इसी नाम से दी जाती है. बचपन से ही मेघवाल जाति को हेय दृष्टि से देखा जाता है और समाज के इस उपेक्षित व्यवहार के कारण हमारे अंदर हीनभावना भर जाती है. हम अपनी जाति बताने में भी संकोच करते हैं. अब हम स्वतंत्र हैं, समान हैं तो अपने में हीन भावना क्यों पनपने दी जाए? हमें अपनी जाति पर गर्व होना चाहिए. संत शिरोमणी गुरु रविदास, भक्त कबीरदास, रूसी क्रांति का नायक स्टालिन, दासप्रथा समाप्त करने वाला अमेरिका का राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन, पागल कुत्ते के इलाज खोजने वाला लुई पास्चर, जलियाँवाला बाग में निर्दोष लोगों को मारने वाले जनरल डायर की हत्या कर बदला लेने वाला शहीद ऊधम सिंह, भारतीय संविधान के रचयिता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और न जाने कितने महान नायक समाज द्वारा घोषित तथा कथित दलित जाति में पैदा हुए हैं तो हम अपने को हीन क्यों समझें.
अपने समाज की पहचान मेघवाल से स्थापित करो
मैंने कई पुस्तकें पढ़ी हैं. यह जानने की कोशिश की है कि समाज में अनेक अन्य जातियाँ भी हैं मगर ‘चमार’ शब्द से इतनी नफ़रत क्यों है? किसी अन्य जाति से क्यों नहीं लोग समझते हैं कि ‘चमार’ शब्द चमड़े का काम करने वाली जातियों से जुड़ा है. यदि चमड़े का काम करने से जाति चमार कही गई है तो कोई बात नहीं लेकिन इसी जाति से इतनी नफ़रत पैदा कहाँ से हुई? यह एक अनुसंधान का विषय है कि और जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ ‘चमार’ शब्द चमड़े से संबंधित न होकर संस्कृत के शब्द ‘च’ तथा ‘मार’ से बना है. संस्कृत में ‘च’ तथा ‘मार’ से बना है. संस्कृत में ‘मार’ का अर्थ मारना होता है. अत: चमार का अर्थ हुआ 'और मारो' उस समय उन लोगों को भय होगा कि ज़बरदस्ती अधीन किया गया एक विकसित समाज उनको कहीं पहले ही नहीं मार दे इसलिए अपने पूर्वजों को 'और मारो'….'और मारो' कहते हुए दब्बू बनाया गया, नीच बनाया गया, नीच व गंदे काम करवाए गए यह उस समय की व्यवस्था थी. हर विजेता हारने वाले को सभी प्रकार से दबाने-कुचलने की कोशिश करता है ताकि वह पुन: अपना राज्य न छीन सकें. लेकिन अब उस समय की व्यवस्था के बारे में आज चर्चा करना बेमानी है. हमें आज की व्यवस्था पर अपनी स्थिति पर विचार करना होगा. आप भी जाति का नाम चमार बताने में सभी संकोच करते हैं इसलिए हमें अपनी जाति का नाम 'चमार' की बजाए 'मेघवाल' लिखवाने का अभियान शुरू करना चाहिए. प्रत्येक को अपने घर में अन्य देवी देवताओं के साथ बाबा मेघऋषि की मूर्ति या तस्वीर लगानी चाहिए. हरिजन शब्द तो सरकार ने गैर कानूनी घोषित कर दिया है, इसलिए हरिजन शब्द का प्रयोग क़तई नहीं करना चाहिए.
हमारे पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि हम बिखरे हुए हैं, संगठित नहीं है. हम अपनी एकता की ताकत भूल चुके हैं. अपना समाज भिन्न-भिन्न उपनामों में बंटा हुआ है, भ्रमित है. एक दूसरे से ऊँचा होने का भ्रम बनाया हुआ है. हममें फूट डाली गई है. हमारे पिछड़ेपन का कारण हमारी आपसी फूट हैं. आप तो जानते हैं कि फूट के कारण यह भी है कि भारत सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहा है. रावण व विभीषण की फूट ने लंका को जलवाया, राजाओं की फूट ने बाहर से आक्रमणकारियों को बुलाया, अंग्रेजों को राज्य करने का मौका दिया और सबसे बड़ी बात है कि हमारी आपसी फूट से हमें असमानता की, अस्पृश्यता की जिन्दगी जीने पर मजबूर किया गया. फूट डालो और राज्य करो की नीति अंग्रेजों की देन नहीं, बल्कि यह भारत में बहुत प्राचीन समय से चालू की गई थी. ज़ोर-मर्जी से बनाया गया, शूद्र वर्ण अनेकों छोटी-छोटी उप जातियों में बांट दिया गया. उनके क्षेत्रीय नाम रख दिए गए ताकि हम सभी एक हो कर समाज के ठेकेदारों से अपने हक नहीं मांग सकें. मेघवाल यानि चमार जाति को अन्य छोटे-छोटे नामों से बांट दिया गया. मसलन बलाई, बुनकर, सूत्रकार, भांभी, बैरवा, जाटव, साल्वी, रैगर- जातियां मोची, जीनगर मेंघवाल इत्यादि आदि हमें एक होते हुए भी अपने को अलग-अलग मान लिया है. उनको एक दूसरे से बड़ा होने की बात सिखाई गई. यहाँ तक कि मेघवालों को भी जाटा मेघवाल तथा रजपूता मेघवाल में बांटा गया. यानि एक नहीं होने देने का पूरा बंदोबस्त पक्का कर दिया गया. यह एक षडयंत्र था और इस षडयंत्र में समाज के ठेकेदारों को कामयाबी भी मिली. राज्य के कुछ जिलों में अलवर, झुन्झुनु तथा सीकर जिले के कुछ भागों में मेघवाल जाति के चमार शब्द का उपयोग किया जाता था. चमार नाम को छोड़ मेघवाल नाम लगाने के लिए मेंघवंशीय नाम लगाने के लिए मेंघवंशीय समाज चेतना संस्थान ने मुहिम चलाई और 12-9-2004 को झुन्झुंनु में एक एतिहासिक सम्मेलन हुआ जिसमें लगभग सत्तर हज़ार लोगों ने हाथ खड़े करके मेघवाल कहलाने को राज्य स्तरीय अभियान शुरू किया गया. समाज को एकजुट करने के लिए मेघवाल नाम से अच्छा शब्द कोई नाम नहीं हो सकता. कई लोगों का सोचना है कि अपनी काफी रिश्तेदारियां हरियाणा, पंजाब प्रांतों में हैं और वहाँ पर अभी भी चमार शब्द का उपयोग होता है तो वहाँ पर क्या नाम होगा? इस बात पर मेरा कहना है कि हम पहल तो करें, बाद में वहाँ पर भी लोग अपनी तरह सोचेंगे.
राजस्थान राज्य में मेघवाल बाहुल्य में हैं बात उठती है कि समाज के लिए मेघवाल शब्द ही क्यों प्रयोग हों? इसका छोटा सा उत्तर है कि राजस्थान के 20-22 जिलों में यह शब्द अपने समाज के लिए प्रयोग होता है. अलवर में चमार, धौलपुर, सवाई माधोपुर, भरतपुर, करौली में जाटव, कोटा, टौंक, दौसा में बैरवा, जयपुर, सीकर में बलाई, बुनकर इत्यादि का प्रयोग किया जाता है. अत: एकरूपता के कारण मेघवाल बाकी जिलों में भी प्रयोग हो तो अच्छा है. एकरूपता के साथ एकता बनती है. कई लोग उपनामों को मेघवाल शब्द के नीचे लाने के समर्थक नहीं है. यह उनकी भूल है. मेरा तो मानना है कि शर्मा शब्द से परहेज़ नहीं होना चाहिए. मेघवाल शब्द से बहुमत दिखता है. मेघवालों में आपस में विभेद पूछना चाहें तो वे कह सकते हैं, -मैं जाटव मेघवाल हूँ, मैं बलाई मेघवाल हूँ इत्यादि. इस शब्द से एक बार शुरूआत तो हो. इसके बाद साल-छ महीनों में यह विभेद भी समाप्त कर हम सभी मेघवाल कहने लगेंगे. जब अन्य जातियाँ मेघवालों के शिक्षित बेटों के साथ अपनी बेटियों की शादी बिना किसी हिचकिचाहट के कर रही हैं तो हम छोटी-छोटी उपजातियों में भेदभाव नहीं रखें तो ही अच्छा है. अपनी एकता बनी रहेगी, वरना भौतिकवाद में पनप रहे इस समाज में हमारे अंदर फूट डाल कर हमारा शोषण ही होता रहेगा. कई भाइयों का मानना है कि नाम बदलने से जाति थोड़े ही बदल जाएगी. इस संशय पर मेरा विचार है कि नाम बदलने से हमारा व सम्पूर्ण समाज का सोच अवश्य बदलेगा. यह सही है कि मेघवाल नाम से लोग हमें चमार ही समझेंगे लेकिन मेघवाल शब्द बोलने में, सुनने में अच्छा लगता है और चमार यानि 'और मार' की दुर्गंध से पैदा हुई हीनभावना से छुटकारा भी मिलता है.
हमें गर्व है कि हम मेघऋषि की संतान हैं. मेघ बादलों को भी कहते हैं. बादलों का काम तपती धरती को बारिश से तर-बतर कर हरा-भरा करना है. उसी तरह हमारी जाति भी अपनी परिश्रम रूपी वर्षा से समाज को लाभान्वित करती है. अपनी जाति ने देना सीखा है. किसी का दिल दुखाना नहीं. इसलिए अच्छे संस्कारों को आत्मसम्मान के साथ पुनर्जीवित करना है. अत: हम हीनभावना को ना पनपने देवें. अत: परस्पर वाद-विवाद में अपनी शक्ति को दुर्बल न करें. अपने को एकजुट होकर सम्पन्न, शिक्षित, योग्य कर्मठ, स्वाभिमानी बनना है. इसी से हम अपने खोए हुए अस्तित्व व अधिकारों की बहाली करने में सक्षम होंगे. अब भी समय है हम आपस के वर्ग भेदभाव -चमार, बलाई इत्यादि भुलाकर मेघवाल के नाम के नीचे एक हो जाएँ. यदि हम एक होकर अपने अधिकारों की बात करते हैं तो सभी को सोचना पड़ेगा. आप जानते हैं कि अकेली अंगुली को कोई भी आसानी से मरोड़ सकता है, लेकिन जब पाँचों अंगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बन जाती है तो किसी की भी हिम्मत नहीं होती कि उसे खोल सके. जिस प्रकार हनुमान जी को समुद्र की छलांग लगाने के लिए उनकी शक्ति की याद दिलायी गयी तो वे एक ही छलाँग में लंका पहुँच गए थे. उसी प्रकार हम भी अपनी एकता की ताकत पहचान कर एक ही झटके में अपनी मंजिल प्राप्त कर सकते हैं. अब आपको अपनी एकता की शक्ति की ताकत दिखाने की आवश्यकता है. जानते हो, छोटी चिड़ियाएँ एकता कर जाल को उड़ाकर साथ ही ले गईं और अपने अस्तित्व की रक्षा की थी. उसी प्रकार आप भी उठो. स्वाभिमान जागृत करो अलगाव छोड़ो और एकजुट हो जाओ. समाजिक बुराइयाँ छोड़ने के लिए एकजुट, अपने को आत्मनिभर्र बनाने के जिए एकजुट और समाज में समान अधिकार पाने के लिए एकजुट. हम एकजुट होंगे तो तरक्की का रास्ता स्वयं बन जाएगा. देश में हम एक होकर हुंकार भरेंगे तो उस हुंकार की नाद गूंजेगी.
अंध श्रद्धा का त्याग करो, कुरीतियों का त्याग करो, जीवित मां-बाप की सेवा करो, और लोग हमें हमारे अधिकार देने पर मजबूर होंगे.
हम अनेक सामाजिक बुराईयों से , बुरी प्रथाओं से, सामाजिक रुढि़यो की बेडि़यों में जकड़े हुए हैं. म्रत्यु -भोज जैसे दिखावे पर लाखों रुपए हैसियत ये अधिक खर्च कर डालते हैं. कुछ लोग मां-बाप के जिंदा रहते कई बार उन्हें रोटी भी नहीं देते और मरने के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए ढोंग करते हुए उनके मुंह में घी डालते हैं. जागरण कराते हैं. देवी देवताओं को मानते हैं. गंगाजल चढ़ाते हैं. घर में बूढ़ी दादी चारपाई पर लेटी पानी मांगती रहती है और उसे कोई पानी की पूछने वाला नहीं. यह कैसी विडम्बना है यह ? एक राजस्थानी कवि ने सही कहा है:-
जोर-जोर स्यूं करै जागरण, देई, देव मनावै,
घरां बूढ़की माची माथै, पाणी न अरड़ावै.
और उपेक्षित वृद्धा के मरने के बाद हम उसके मृत्यु-भोज पर हजा़रों रुपए खर्च कर डालते हैं जो पाप है. माता-पिता के जिंदा रहते उनकी सेवा करने से समस्त प्रकार को सुख प्राप्त होता है. मां-बाप से बड़ा से बड़ा भगवान, इस दुनिया में कोई नहीं है. यदि मां-बाप नहीं होते तो हम इस संसार में आते ही नहीं. अत: अनेक देवी-देवताओं के मंदिरों में माथा टेकने से अच्छा है, घर में मां-बाप की सेवा करो. हमें धोखे में रखकर, भटकाकर, कर्मकांडो के चक्रों में फंसाया गया है. मैने देखा है कि हम देवी देवता, पीर बाबा इत्यादि में बहुत विश्वास करते हैं. एक बात सोचो कि क्यों ये सभी देवी-देवता हमें ही बहुत परेशान करते हैं. किसी अन्य जाति को क्यों नहीं? बड़े-बड़े धार्मिक मेलों में जाकर देखो. अस्सी प्रतिशत लोग निम्न तबके के मिलेंगे. हमें धर्मभीरू बनाया जाता है. ताकि हम उनके चक्रों में पड़े रहें. भगवान तो घट-घट में हैं. जरा सोचो और इस चक्रव्यूह से निकलकर प्रगति की बातें करो. जागरण, डैरु, सवामणी इत्यादि के नाम पर हजारों रुपए कर्ज़ लेकर देवता को मनाना समझदारी नहीं है? कबीर ने कहा है:-
पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़
ताते तो चक्की भली पीस खाय संसार
यदि हम अब अपनी कुरीतियाँ पाले रहे, आडम्बरों से घिरे रहे तो अपना अस्तित्व दासों से भी घटिया, चाण्डलों से भी बदतर हो सकता है. निकलो इन कर्मकांडों से. त्यागो इस धर्मभरूता को. उठो और नये सवेरे की ओर बढ़ो. समाज की भलाई की ओर ध्यान दो तब आपका दिल नेक होगा, समाज की भलाई की ओर ध्यान होगा तो भगवान स्वयं मंदिर से चलकर आपके घर आयेंगे और पूछेंगे, बेटे बताओ तुम्हारी और क्या मदद की जाए? जो मनुष्य स्वयं अपनी मदद करता है, भगवान भी उसी की मदद करता है. स्वयं को सुधार कर अपनी मदद खुद करें. आप सुधर गए तो भगवान भी आपके कल्याण के लिए पीछे नहीं हट सकते. गूंगे बहरे मत बनों. एक दूसरे का दुख-दर्द बांटो, किसी की आत्मा को मत दुखाओ. अपने को सुधारो, समाज स्वयं सुधर जाएगा.
शादी-विवाह, दहेज, छुछक, भात, मृत्यु भोज इत्यादि सामाजिक दायित्व में हम हैसियत से अधिक खर्च कर डालते हैं. लेकिन कर्ज़ लेकर शान दिखाना कहाँ की शान है? बहन-बेटियों को भी सोचना चाहिए और अपने माता-पिता, भाई-बहन को सलाह देनी चाहिए कि उनका दहेज पढ़ाई है. वे पढ़-लिखकर आगे आएँ और समाज की अग्रणी बने. अत: मृत्यु भोज, दहेज प्रथा, बालविवाह, ढोंग-आडम्बर इत्यादि समाज के कोढ़ को छोड़ो और आत्मविश्वास के साथ प्रगति की राह पकड़ो.
लड़कियाँ लड़कों से प्रतिभा में कम नहीं
इंदिरा गाँधी अकेली लड़की थी जिसने अपने नाम के साथ अपने परिवार का नाम पूरे विश्व में रोशन किया. आज लड़कियाँ हर क्षेत्र में अग्रणी हैं. बड़े-बड़े पदों को सुशोभित कर रही हैं. राजस्थान में लड़कियों की नौकरियों में तीस प्रतशित आरक्षण हैं. अत पुत्र प्राप्ति का मोह त्यागकर एक या दो संतान ही पैदा करने का संकल्प करना चाहिए. उन्हीं को पढ़ा-लिखाकर उच्चाधिकारी बनाएँ. लड़का या लड़की कामयाब होंगे तो अपने नाम के साथ आपका नाम भी रोशन करेंगे. अत कम संतान पैदा करके अपने दो बच्चों को पढ़ाने की सौगंध खाएँ. समाज को भी होनहार, प्रतिभाशाली बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए.
आज कम्प्यूटर युग है. प्रतियोगिता का ज़माना है. जो प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ होगा वही सफलता प्राप्त करेगा. जो प्रतियोगिता में नहीं टिक पाएगा, चाहे उसने कितनी ही डिग्रियाँ ले रखीं हों, अनपढ़ के समान होगा. डिग्री के नशे में वह पेट पालने के लिए छोटा काम, मज़दूरी इत्यादि भी नहीं करेगा. वह न इधर का रहेगा और न उधर का. अतः आपने अपने बच्चों को कम्पीटीशन को ध्यान में रखकर पढ़ाना होगा. बच्चे भी इस बात का ध्यान रखें कि इस प्रतियोगिता के युग में एक नौकरी के लिए हज़ारों लड़के मैदान में खड़े हैं. हमें संघर्ष से नहीं डरना चाहिए. संघर्ष के बिना कुछ मिलता भी नहीं है. मंच पर बैठे सभी व्यक्ति भी आज संघर्ष के कारण इतनी उन्नति कर पाए हैं. सफलता के लिए कठिन संघर्ष की आवश्यकता है.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत,
कह कबीरा पिउ पाया, मन ही की परतीत.
नौकरियों के भरोसे पर निर्भर मत रहो. व्यापार करो. अपनो से क्रय-विक्रय करो. अतः आप दृढ़ निश्चय के साथ हिम्मत कर सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयास करेंगे तभी इस कम्पीटिशन व कम्प्यूटर के ज़माने में आपको सफलता मिलेगी अन्यथा फिर से आप अपने पूर्वजों की भांति शोषण का शिकार होंगे.
हमें यह भी भय रहता है कि हम आर्थिक रूप से कमजोर हैं. अपने अधिकारों के लिए एक होता देख, कहीं हमारा सामाजिक बायकॉट न कर दिया जाए. हमें काम-धंधा नहीं मिलेगा तो हम भूखे मरेंगे. आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति सामाजिक बायॅकाट के भय से जल्दी टूटता है. इसलिए हमें सुनिश्चित करना है कि हम आर्थिक रूप से सम्पन्न बने.
हमारे लोग केवल नौकरी की तलाश में रहते हैं, बिज़नेस की ओर ध्यान नहीं देते. जनसंख्या बढ़ोत्तरी के अनुपात में आजकल नौकरियाँ बहुत कम रह गई हैं. हम नौकरियों के भरोसे नहीं रहकर कोई धन्धा अपनाएँ तथा आत्मनिर्भर होंगे. इसलिए हमें दूसरे धंधों की ओर ध्यान देना चाहिए. यदि हम आर्थिक रूप से सम्पन्न होंगे, आत्मनिर्भर होंगे तो किसी की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी. आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति संघर्ष करने में अधिक सक्षम है. मकान बनाने की करणी पकड़ने से मकान बनाना शुरू करते-करते बिल्डिंग कंट्रेक्टर बनो, लकड़ी में कील ठोकने से धंधा शुरू कर बड़ी सी फर्नीचर की दूकान चलाओ, परचून की छोटी सी दूकान से शुरू कर मल्टीप्लैक्स क्रय-विक्रय बाजार बनाओ. वास्तुशास्त्र, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष, एस्ट्रोलॉजी इत्यादि में भी भाग्य आज़माया जा सकता है. ये कुछ उदाहरण है. आप अपनी पसंद का कोई भी धंधा शुरू कर सकते हैं. मन में शंका होती है कि क्या हम विज़नेस में कामयाब होंगे? अनुसूचित जाति की जनसंख्या राजस्थान में सोलह प्रतशित है. हम सभी सोच लें कि हम अधिकतर सामान अपने लोगों की दुकानों से ही खरीदेंगे तो दुकान जरूर चलेगी. जैसे हम आप सभी खुशी के अवसरों पर मिठाई खरीदें. मेघवाल भाई के ढाबे पर खाना खाएँ, चाय पिएँ, मेघवाल किराना स्टोर से सामान खरीदें, मेघवाल टीएसएफ जैसी जूतों की फैक्टरी खोल सकते हैं, जूतों की दुकान खोल सकते हैं तो हम अन्य धंधे क्यों नहीं अपना सकते. हम भी अपना सकते हैं और सफल भी हो सकते हैं. केवल हिम्मत की बात है. उदाहण के तौर पर जैसे विवाह-शादियों, जन्म-मरण इत्यदि अवसरों पर पंडितों की जरूरत होती है, यदि यह काम भी अपना ही कोई करे तो अच्छा लगेगा. रोज़गार के साथ किसी का मोहताज भी नहीं होना पड़ेगा. हम केवल गाँव में ही धंधे की क्यों सोचें. शहरों में जाकर भी धंधा कर सकते हैं. यह शाश्वत सत्य है कि जिसने भी स्थान परिवर्तन किया, बाहर जाकर खाने-कमाने की कोशिश की, वे सम्पन्न हो गए. हम कूप-मंडूक (कुएँ के मेंढक) बने रहे. जिस प्रकार कुएँ में पड़ा मेंढक उस कुएँ को ही अपना संसार समझता है, उसी प्रकार हम गाँव को ही अपना संसार समझकर बाहर नहीं निकलने के कारण, गाँव की अर्थव्यवस्था के चलते दबे रहे, पिछड़े रहे. एक बार आज़माकर तो देखो. घर से दूर जाकर मिट्टी भी बेचोगे तो सोना बन जाएगी. इसलिए आत्मनिर्भर होंगे तो आर्थिक बायकॉट के भय से मुक्त होकर हम एकजुट होंगे.
सरकार ने दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए, उनके सामाजिक संरक्षण के लिए अनेक कानून बनाए हैं, लेकिन अन्य लोग दलितों के कंधों पर बन्दूक रखकर इनका दुरुपयोग कर रहे हैं. इस कार्रवाई से हम बदनाम होते हैं. सामान्य वर्ग में दलितों को नीचा देखना पड़ता है. वे पुनः उपेक्षा के पात्र हो जाते हैं. कसम खाओ कि कानून का सहारा केवल अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए लेंगे. किसी अन्य के लाभ के लिए कानून का दुरुपयोग नहीं करेंगे.
आज हम संगठित होना शुरू हुए हैं और शिक्षित बनने-बनाने, संघर्ष करने-कराने का संकल्प लिया है. पीछे मुड़कर नहीं देखें और दिखाते रहें अपनी ताकत और बुद्धिमता. मैं आपको गर्व के साथ मेघऋषि की संतान मेघवाल कहलाने, सामाजिक बुराइयाँ छोड़ने, संगठित होने, शिक्षित बनने व संघर्ष करने का आह्वान करता हूँ. साथ ही निवेदन करता हूँ कि मेघऋषि को भी अपने देवताओं की भांति पूजें. उनका चित्र अपने घरों में श्रद्धा के साथ लगाएँ व प्रतिदिन पूजा करें ताकि भगवान मेघऋषि की हम संताने आत्मसम्मान के साथ जी सकें व समाज में अपना खोया सम्मान पा सकें.
बाबा मेघऋषि की जय, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की जय,
मेघवंश समाज की जय, भारत माता की जय. जय हिन्द, जय भीम.
आर.पी.सिंह आई.पी.एस.
73, अरविंद नगर, सी.बी.आई. कॉलोनी, जगतपुरा, जयपुर.
बुरा, जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जब दिल ढूंढा आपणा, मुझ से बुरा न कोय।
मन को उन्नत करो, हीन विचारों का त्याग करो.
मेरे विचार से यह सब इसलिए कि हम दब्बू हैं, स्वाभिमानी नहीं हैं. हम यह मानने भी लगे हैं कि वास्तव में अक्षम हैं. हमारा मन मरा हुआ है. हमारे अन्दर आत्मसम्मान व आत्मविश्वास की कमी है. किसी को आप बार-बार बुद्धु कहो तो वह वास्तव में बुद्धु जैसा दिखने लगता है. हमें भी ऐसा ही निरीह, कमजोर बनाया गया है और हम अपने को निरीह, कमजोर समझने लगे हैं. जबकि वास्तव में हम नहीं हैं. जब हमारे उपर कोई हाथ उठाता है, थप्पड़ मार मारता है तो हम केवल यही कहते हैं - अब की मार. दबी हुई, मरी हुई आत्मा, हुंकार तो मारती है, लेकिन मारने वाले का हाथ नहीं पकड़ती. मैं हिंसा में विश्वास नहीं करता, फिर भी आपको कहना चाहता हूँ कि आप पर जो हाथ उठे उस हाथ को साहस कर, एकजुट होकर कम से कम पकड़ने की तो हिम्मत करिए ताकि वह आपको मार नहीं सके. उसको वापिस मारने की आवश्यकता नहीं. आपका आत्मसम्मान जाग्रत होगा और आप एकजुट होकर अपने अधिकारों के प्रति सचेत होंगे. अपने दिलों को बदलना होगा. दब्बू को हर कोई मारने की कोशिश करता है. एक कहावत है- एक मेमना (बकरी का बच्चा) भगवान के पास गया और बोला -भगवान आपने तो कहा था कि सभी प्राणी समान हैं. सभी को जीने का समान अधिकार है. फिर भी सभी भाईचारे को भूलकर मुझ पालनहार का भी तुम्हें निगलने का मन कर रहा है. सीना उठाकर चलोगे तो कोई भी तुम पर झपटने से पहले सोचेगा. बली तो भेड़-बकरियों की ही दी जाती है, सिंहों की नहीं. अत: मेमने जैसा दब्बूपन छोड़ो और समानता के अधिकार के लिए सिंहों की तरह दहाड़ो. एक बार हम साहस करेंगे तो हमें कोई भी जबरन दब्बू नहीं बना सकता.
असमानता, ऊँच-नीच की धारणा दूसरों देशों में भी है.
ऊँच-नीच की बात भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में है. अमेरिका के राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन जब राष्ट्रपति बनकर वहाँ की संसद में पहुँचे तो किसी सदस्य ने पीछे से टोका, लेकिन तुम्हारे पिता जूते बनाते थे, एक चर्मकार थे. इब्राहिम लिंकन तनिक भी हीनभावना में नहीं आए बल्कि उस सदस्य को उत्तर दिया, हाँ, मेरे पिता जी जूते बनाते थे. वे एक अच्छे कारीगर थे. उनके द्वारा बनाए गए जूतों ने किसी के पैर नहीं काटे. किसी के पैरों में कील नहीं चुभी. किसी के पैरों में छाले नहीं हुए. डील नहीं बनी. मुझे गर्व है कि वे एक कुशल कारीगर थे. लोग उनकी कारीगरी की प्रशंसा करते थे. यह था लिंकन का स्वाभिमान, आत्मसम्मान के कारण वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति बने थे. हमें भी लिंकन की तरह अपने में आत्मविश्वास पैदा करना होगा. यदि हमको तरक्की की राह पकड़नी है तो हमें हीनभावना, कुंठित भावना को त्यागना होगा. हमें पुन: अपना आत्मसम्मान जगाना होगा. हम अपनी मर्जी से तो इस जाति में पैदा नहीं हुए और जब हम दलित वर्ग में पैदा हो ही गए हैं तो हीन भावना कैसी? आत्मसम्मान के साथ समाज की इस सच्चाई को स्वीकार कर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना होगा. सफलता की सबसे पहली शर्त आत्मसम्मान, आत्मविश्वास ही होती है.
राजस्थान प्रांत में मेघवाल जाति के क्षेत्रानुसार भिन्न-भिन्न नाम हैं लेकिन मूल रूप से यह 'चमार' नाम से जानी जाती थी. समाज में चमार शब्द से सभी नफ़रत करते हैं. गाली भी इसी नाम से दी जाती है. बचपन से ही मेघवाल जाति को हेय दृष्टि से देखा जाता है और समाज के इस उपेक्षित व्यवहार के कारण हमारे अंदर हीनभावना भर जाती है. हम अपनी जाति बताने में भी संकोच करते हैं. अब हम स्वतंत्र हैं, समान हैं तो अपने में हीन भावना क्यों पनपने दी जाए? हमें अपनी जाति पर गर्व होना चाहिए. संत शिरोमणी गुरु रविदास, भक्त कबीरदास, रूसी क्रांति का नायक स्टालिन, दासप्रथा समाप्त करने वाला अमेरिका का राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन, पागल कुत्ते के इलाज खोजने वाला लुई पास्चर, जलियाँवाला बाग में निर्दोष लोगों को मारने वाले जनरल डायर की हत्या कर बदला लेने वाला शहीद ऊधम सिंह, भारतीय संविधान के रचयिता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और न जाने कितने महान नायक समाज द्वारा घोषित तथा कथित दलित जाति में पैदा हुए हैं तो हम अपने को हीन क्यों समझें.
अपने समाज की पहचान मेघवाल से स्थापित करो
मैंने कई पुस्तकें पढ़ी हैं. यह जानने की कोशिश की है कि समाज में अनेक अन्य जातियाँ भी हैं मगर ‘चमार’ शब्द से इतनी नफ़रत क्यों है? किसी अन्य जाति से क्यों नहीं लोग समझते हैं कि ‘चमार’ शब्द चमड़े का काम करने वाली जातियों से जुड़ा है. यदि चमड़े का काम करने से जाति चमार कही गई है तो कोई बात नहीं लेकिन इसी जाति से इतनी नफ़रत पैदा कहाँ से हुई? यह एक अनुसंधान का विषय है कि और जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ ‘चमार’ शब्द चमड़े से संबंधित न होकर संस्कृत के शब्द ‘च’ तथा ‘मार’ से बना है. संस्कृत में ‘च’ तथा ‘मार’ से बना है. संस्कृत में ‘मार’ का अर्थ मारना होता है. अत: चमार का अर्थ हुआ 'और मारो' उस समय उन लोगों को भय होगा कि ज़बरदस्ती अधीन किया गया एक विकसित समाज उनको कहीं पहले ही नहीं मार दे इसलिए अपने पूर्वजों को 'और मारो'….'और मारो' कहते हुए दब्बू बनाया गया, नीच बनाया गया, नीच व गंदे काम करवाए गए यह उस समय की व्यवस्था थी. हर विजेता हारने वाले को सभी प्रकार से दबाने-कुचलने की कोशिश करता है ताकि वह पुन: अपना राज्य न छीन सकें. लेकिन अब उस समय की व्यवस्था के बारे में आज चर्चा करना बेमानी है. हमें आज की व्यवस्था पर अपनी स्थिति पर विचार करना होगा. आप भी जाति का नाम चमार बताने में सभी संकोच करते हैं इसलिए हमें अपनी जाति का नाम 'चमार' की बजाए 'मेघवाल' लिखवाने का अभियान शुरू करना चाहिए. प्रत्येक को अपने घर में अन्य देवी देवताओं के साथ बाबा मेघऋषि की मूर्ति या तस्वीर लगानी चाहिए. हरिजन शब्द तो सरकार ने गैर कानूनी घोषित कर दिया है, इसलिए हरिजन शब्द का प्रयोग क़तई नहीं करना चाहिए.
हमारे पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि हम बिखरे हुए हैं, संगठित नहीं है. हम अपनी एकता की ताकत भूल चुके हैं. अपना समाज भिन्न-भिन्न उपनामों में बंटा हुआ है, भ्रमित है. एक दूसरे से ऊँचा होने का भ्रम बनाया हुआ है. हममें फूट डाली गई है. हमारे पिछड़ेपन का कारण हमारी आपसी फूट हैं. आप तो जानते हैं कि फूट के कारण यह भी है कि भारत सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहा है. रावण व विभीषण की फूट ने लंका को जलवाया, राजाओं की फूट ने बाहर से आक्रमणकारियों को बुलाया, अंग्रेजों को राज्य करने का मौका दिया और सबसे बड़ी बात है कि हमारी आपसी फूट से हमें असमानता की, अस्पृश्यता की जिन्दगी जीने पर मजबूर किया गया. फूट डालो और राज्य करो की नीति अंग्रेजों की देन नहीं, बल्कि यह भारत में बहुत प्राचीन समय से चालू की गई थी. ज़ोर-मर्जी से बनाया गया, शूद्र वर्ण अनेकों छोटी-छोटी उप जातियों में बांट दिया गया. उनके क्षेत्रीय नाम रख दिए गए ताकि हम सभी एक हो कर समाज के ठेकेदारों से अपने हक नहीं मांग सकें. मेघवाल यानि चमार जाति को अन्य छोटे-छोटे नामों से बांट दिया गया. मसलन बलाई, बुनकर, सूत्रकार, भांभी, बैरवा, जाटव, साल्वी, रैगर- जातियां मोची, जीनगर मेंघवाल इत्यादि आदि हमें एक होते हुए भी अपने को अलग-अलग मान लिया है. उनको एक दूसरे से बड़ा होने की बात सिखाई गई. यहाँ तक कि मेघवालों को भी जाटा मेघवाल तथा रजपूता मेघवाल में बांटा गया. यानि एक नहीं होने देने का पूरा बंदोबस्त पक्का कर दिया गया. यह एक षडयंत्र था और इस षडयंत्र में समाज के ठेकेदारों को कामयाबी भी मिली. राज्य के कुछ जिलों में अलवर, झुन्झुनु तथा सीकर जिले के कुछ भागों में मेघवाल जाति के चमार शब्द का उपयोग किया जाता था. चमार नाम को छोड़ मेघवाल नाम लगाने के लिए मेंघवंशीय नाम लगाने के लिए मेंघवंशीय समाज चेतना संस्थान ने मुहिम चलाई और 12-9-2004 को झुन्झुंनु में एक एतिहासिक सम्मेलन हुआ जिसमें लगभग सत्तर हज़ार लोगों ने हाथ खड़े करके मेघवाल कहलाने को राज्य स्तरीय अभियान शुरू किया गया. समाज को एकजुट करने के लिए मेघवाल नाम से अच्छा शब्द कोई नाम नहीं हो सकता. कई लोगों का सोचना है कि अपनी काफी रिश्तेदारियां हरियाणा, पंजाब प्रांतों में हैं और वहाँ पर अभी भी चमार शब्द का उपयोग होता है तो वहाँ पर क्या नाम होगा? इस बात पर मेरा कहना है कि हम पहल तो करें, बाद में वहाँ पर भी लोग अपनी तरह सोचेंगे.
राजस्थान राज्य में मेघवाल बाहुल्य में हैं बात उठती है कि समाज के लिए मेघवाल शब्द ही क्यों प्रयोग हों? इसका छोटा सा उत्तर है कि राजस्थान के 20-22 जिलों में यह शब्द अपने समाज के लिए प्रयोग होता है. अलवर में चमार, धौलपुर, सवाई माधोपुर, भरतपुर, करौली में जाटव, कोटा, टौंक, दौसा में बैरवा, जयपुर, सीकर में बलाई, बुनकर इत्यादि का प्रयोग किया जाता है. अत: एकरूपता के कारण मेघवाल बाकी जिलों में भी प्रयोग हो तो अच्छा है. एकरूपता के साथ एकता बनती है. कई लोग उपनामों को मेघवाल शब्द के नीचे लाने के समर्थक नहीं है. यह उनकी भूल है. मेरा तो मानना है कि शर्मा शब्द से परहेज़ नहीं होना चाहिए. मेघवाल शब्द से बहुमत दिखता है. मेघवालों में आपस में विभेद पूछना चाहें तो वे कह सकते हैं, -मैं जाटव मेघवाल हूँ, मैं बलाई मेघवाल हूँ इत्यादि. इस शब्द से एक बार शुरूआत तो हो. इसके बाद साल-छ महीनों में यह विभेद भी समाप्त कर हम सभी मेघवाल कहने लगेंगे. जब अन्य जातियाँ मेघवालों के शिक्षित बेटों के साथ अपनी बेटियों की शादी बिना किसी हिचकिचाहट के कर रही हैं तो हम छोटी-छोटी उपजातियों में भेदभाव नहीं रखें तो ही अच्छा है. अपनी एकता बनी रहेगी, वरना भौतिकवाद में पनप रहे इस समाज में हमारे अंदर फूट डाल कर हमारा शोषण ही होता रहेगा. कई भाइयों का मानना है कि नाम बदलने से जाति थोड़े ही बदल जाएगी. इस संशय पर मेरा विचार है कि नाम बदलने से हमारा व सम्पूर्ण समाज का सोच अवश्य बदलेगा. यह सही है कि मेघवाल नाम से लोग हमें चमार ही समझेंगे लेकिन मेघवाल शब्द बोलने में, सुनने में अच्छा लगता है और चमार यानि 'और मार' की दुर्गंध से पैदा हुई हीनभावना से छुटकारा भी मिलता है.
हमें गर्व है कि हम मेघऋषि की संतान हैं. मेघ बादलों को भी कहते हैं. बादलों का काम तपती धरती को बारिश से तर-बतर कर हरा-भरा करना है. उसी तरह हमारी जाति भी अपनी परिश्रम रूपी वर्षा से समाज को लाभान्वित करती है. अपनी जाति ने देना सीखा है. किसी का दिल दुखाना नहीं. इसलिए अच्छे संस्कारों को आत्मसम्मान के साथ पुनर्जीवित करना है. अत: हम हीनभावना को ना पनपने देवें. अत: परस्पर वाद-विवाद में अपनी शक्ति को दुर्बल न करें. अपने को एकजुट होकर सम्पन्न, शिक्षित, योग्य कर्मठ, स्वाभिमानी बनना है. इसी से हम अपने खोए हुए अस्तित्व व अधिकारों की बहाली करने में सक्षम होंगे. अब भी समय है हम आपस के वर्ग भेदभाव -चमार, बलाई इत्यादि भुलाकर मेघवाल के नाम के नीचे एक हो जाएँ. यदि हम एक होकर अपने अधिकारों की बात करते हैं तो सभी को सोचना पड़ेगा. आप जानते हैं कि अकेली अंगुली को कोई भी आसानी से मरोड़ सकता है, लेकिन जब पाँचों अंगुलियाँ मिलकर मुट्ठी बन जाती है तो किसी की भी हिम्मत नहीं होती कि उसे खोल सके. जिस प्रकार हनुमान जी को समुद्र की छलांग लगाने के लिए उनकी शक्ति की याद दिलायी गयी तो वे एक ही छलाँग में लंका पहुँच गए थे. उसी प्रकार हम भी अपनी एकता की ताकत पहचान कर एक ही झटके में अपनी मंजिल प्राप्त कर सकते हैं. अब आपको अपनी एकता की शक्ति की ताकत दिखाने की आवश्यकता है. जानते हो, छोटी चिड़ियाएँ एकता कर जाल को उड़ाकर साथ ही ले गईं और अपने अस्तित्व की रक्षा की थी. उसी प्रकार आप भी उठो. स्वाभिमान जागृत करो अलगाव छोड़ो और एकजुट हो जाओ. समाजिक बुराइयाँ छोड़ने के लिए एकजुट, अपने को आत्मनिभर्र बनाने के जिए एकजुट और समाज में समान अधिकार पाने के लिए एकजुट. हम एकजुट होंगे तो तरक्की का रास्ता स्वयं बन जाएगा. देश में हम एक होकर हुंकार भरेंगे तो उस हुंकार की नाद गूंजेगी.
अंध श्रद्धा का त्याग करो, कुरीतियों का त्याग करो, जीवित मां-बाप की सेवा करो, और लोग हमें हमारे अधिकार देने पर मजबूर होंगे.
हम अनेक सामाजिक बुराईयों से , बुरी प्रथाओं से, सामाजिक रुढि़यो की बेडि़यों में जकड़े हुए हैं. म्रत्यु -भोज जैसे दिखावे पर लाखों रुपए हैसियत ये अधिक खर्च कर डालते हैं. कुछ लोग मां-बाप के जिंदा रहते कई बार उन्हें रोटी भी नहीं देते और मरने के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए ढोंग करते हुए उनके मुंह में घी डालते हैं. जागरण कराते हैं. देवी देवताओं को मानते हैं. गंगाजल चढ़ाते हैं. घर में बूढ़ी दादी चारपाई पर लेटी पानी मांगती रहती है और उसे कोई पानी की पूछने वाला नहीं. यह कैसी विडम्बना है यह ? एक राजस्थानी कवि ने सही कहा है:-
जोर-जोर स्यूं करै जागरण, देई, देव मनावै,
घरां बूढ़की माची माथै, पाणी न अरड़ावै.
और उपेक्षित वृद्धा के मरने के बाद हम उसके मृत्यु-भोज पर हजा़रों रुपए खर्च कर डालते हैं जो पाप है. माता-पिता के जिंदा रहते उनकी सेवा करने से समस्त प्रकार को सुख प्राप्त होता है. मां-बाप से बड़ा से बड़ा भगवान, इस दुनिया में कोई नहीं है. यदि मां-बाप नहीं होते तो हम इस संसार में आते ही नहीं. अत: अनेक देवी-देवताओं के मंदिरों में माथा टेकने से अच्छा है, घर में मां-बाप की सेवा करो. हमें धोखे में रखकर, भटकाकर, कर्मकांडो के चक्रों में फंसाया गया है. मैने देखा है कि हम देवी देवता, पीर बाबा इत्यादि में बहुत विश्वास करते हैं. एक बात सोचो कि क्यों ये सभी देवी-देवता हमें ही बहुत परेशान करते हैं. किसी अन्य जाति को क्यों नहीं? बड़े-बड़े धार्मिक मेलों में जाकर देखो. अस्सी प्रतिशत लोग निम्न तबके के मिलेंगे. हमें धर्मभीरू बनाया जाता है. ताकि हम उनके चक्रों में पड़े रहें. भगवान तो घट-घट में हैं. जरा सोचो और इस चक्रव्यूह से निकलकर प्रगति की बातें करो. जागरण, डैरु, सवामणी इत्यादि के नाम पर हजारों रुपए कर्ज़ लेकर देवता को मनाना समझदारी नहीं है? कबीर ने कहा है:-
पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़
ताते तो चक्की भली पीस खाय संसार
यदि हम अब अपनी कुरीतियाँ पाले रहे, आडम्बरों से घिरे रहे तो अपना अस्तित्व दासों से भी घटिया, चाण्डलों से भी बदतर हो सकता है. निकलो इन कर्मकांडों से. त्यागो इस धर्मभरूता को. उठो और नये सवेरे की ओर बढ़ो. समाज की भलाई की ओर ध्यान दो तब आपका दिल नेक होगा, समाज की भलाई की ओर ध्यान होगा तो भगवान स्वयं मंदिर से चलकर आपके घर आयेंगे और पूछेंगे, बेटे बताओ तुम्हारी और क्या मदद की जाए? जो मनुष्य स्वयं अपनी मदद करता है, भगवान भी उसी की मदद करता है. स्वयं को सुधार कर अपनी मदद खुद करें. आप सुधर गए तो भगवान भी आपके कल्याण के लिए पीछे नहीं हट सकते. गूंगे बहरे मत बनों. एक दूसरे का दुख-दर्द बांटो, किसी की आत्मा को मत दुखाओ. अपने को सुधारो, समाज स्वयं सुधर जाएगा.
शादी-विवाह, दहेज, छुछक, भात, मृत्यु भोज इत्यादि सामाजिक दायित्व में हम हैसियत से अधिक खर्च कर डालते हैं. लेकिन कर्ज़ लेकर शान दिखाना कहाँ की शान है? बहन-बेटियों को भी सोचना चाहिए और अपने माता-पिता, भाई-बहन को सलाह देनी चाहिए कि उनका दहेज पढ़ाई है. वे पढ़-लिखकर आगे आएँ और समाज की अग्रणी बने. अत: मृत्यु भोज, दहेज प्रथा, बालविवाह, ढोंग-आडम्बर इत्यादि समाज के कोढ़ को छोड़ो और आत्मविश्वास के साथ प्रगति की राह पकड़ो.
लड़कियाँ लड़कों से प्रतिभा में कम नहीं
इंदिरा गाँधी अकेली लड़की थी जिसने अपने नाम के साथ अपने परिवार का नाम पूरे विश्व में रोशन किया. आज लड़कियाँ हर क्षेत्र में अग्रणी हैं. बड़े-बड़े पदों को सुशोभित कर रही हैं. राजस्थान में लड़कियों की नौकरियों में तीस प्रतशित आरक्षण हैं. अत पुत्र प्राप्ति का मोह त्यागकर एक या दो संतान ही पैदा करने का संकल्प करना चाहिए. उन्हीं को पढ़ा-लिखाकर उच्चाधिकारी बनाएँ. लड़का या लड़की कामयाब होंगे तो अपने नाम के साथ आपका नाम भी रोशन करेंगे. अत कम संतान पैदा करके अपने दो बच्चों को पढ़ाने की सौगंध खाएँ. समाज को भी होनहार, प्रतिभाशाली बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए.
आज कम्प्यूटर युग है. प्रतियोगिता का ज़माना है. जो प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ होगा वही सफलता प्राप्त करेगा. जो प्रतियोगिता में नहीं टिक पाएगा, चाहे उसने कितनी ही डिग्रियाँ ले रखीं हों, अनपढ़ के समान होगा. डिग्री के नशे में वह पेट पालने के लिए छोटा काम, मज़दूरी इत्यादि भी नहीं करेगा. वह न इधर का रहेगा और न उधर का. अतः आपने अपने बच्चों को कम्पीटीशन को ध्यान में रखकर पढ़ाना होगा. बच्चे भी इस बात का ध्यान रखें कि इस प्रतियोगिता के युग में एक नौकरी के लिए हज़ारों लड़के मैदान में खड़े हैं. हमें संघर्ष से नहीं डरना चाहिए. संघर्ष के बिना कुछ मिलता भी नहीं है. मंच पर बैठे सभी व्यक्ति भी आज संघर्ष के कारण इतनी उन्नति कर पाए हैं. सफलता के लिए कठिन संघर्ष की आवश्यकता है.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत,
कह कबीरा पिउ पाया, मन ही की परतीत.
नौकरियों के भरोसे पर निर्भर मत रहो. व्यापार करो. अपनो से क्रय-विक्रय करो. अतः आप दृढ़ निश्चय के साथ हिम्मत कर सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयास करेंगे तभी इस कम्पीटिशन व कम्प्यूटर के ज़माने में आपको सफलता मिलेगी अन्यथा फिर से आप अपने पूर्वजों की भांति शोषण का शिकार होंगे.
हमें यह भी भय रहता है कि हम आर्थिक रूप से कमजोर हैं. अपने अधिकारों के लिए एक होता देख, कहीं हमारा सामाजिक बायकॉट न कर दिया जाए. हमें काम-धंधा नहीं मिलेगा तो हम भूखे मरेंगे. आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति सामाजिक बायॅकाट के भय से जल्दी टूटता है. इसलिए हमें सुनिश्चित करना है कि हम आर्थिक रूप से सम्पन्न बने.
हमारे लोग केवल नौकरी की तलाश में रहते हैं, बिज़नेस की ओर ध्यान नहीं देते. जनसंख्या बढ़ोत्तरी के अनुपात में आजकल नौकरियाँ बहुत कम रह गई हैं. हम नौकरियों के भरोसे नहीं रहकर कोई धन्धा अपनाएँ तथा आत्मनिर्भर होंगे. इसलिए हमें दूसरे धंधों की ओर ध्यान देना चाहिए. यदि हम आर्थिक रूप से सम्पन्न होंगे, आत्मनिर्भर होंगे तो किसी की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी. आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति संघर्ष करने में अधिक सक्षम है. मकान बनाने की करणी पकड़ने से मकान बनाना शुरू करते-करते बिल्डिंग कंट्रेक्टर बनो, लकड़ी में कील ठोकने से धंधा शुरू कर बड़ी सी फर्नीचर की दूकान चलाओ, परचून की छोटी सी दूकान से शुरू कर मल्टीप्लैक्स क्रय-विक्रय बाजार बनाओ. वास्तुशास्त्र, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष, एस्ट्रोलॉजी इत्यादि में भी भाग्य आज़माया जा सकता है. ये कुछ उदाहरण है. आप अपनी पसंद का कोई भी धंधा शुरू कर सकते हैं. मन में शंका होती है कि क्या हम विज़नेस में कामयाब होंगे? अनुसूचित जाति की जनसंख्या राजस्थान में सोलह प्रतशित है. हम सभी सोच लें कि हम अधिकतर सामान अपने लोगों की दुकानों से ही खरीदेंगे तो दुकान जरूर चलेगी. जैसे हम आप सभी खुशी के अवसरों पर मिठाई खरीदें. मेघवाल भाई के ढाबे पर खाना खाएँ, चाय पिएँ, मेघवाल किराना स्टोर से सामान खरीदें, मेघवाल टीएसएफ जैसी जूतों की फैक्टरी खोल सकते हैं, जूतों की दुकान खोल सकते हैं तो हम अन्य धंधे क्यों नहीं अपना सकते. हम भी अपना सकते हैं और सफल भी हो सकते हैं. केवल हिम्मत की बात है. उदाहण के तौर पर जैसे विवाह-शादियों, जन्म-मरण इत्यदि अवसरों पर पंडितों की जरूरत होती है, यदि यह काम भी अपना ही कोई करे तो अच्छा लगेगा. रोज़गार के साथ किसी का मोहताज भी नहीं होना पड़ेगा. हम केवल गाँव में ही धंधे की क्यों सोचें. शहरों में जाकर भी धंधा कर सकते हैं. यह शाश्वत सत्य है कि जिसने भी स्थान परिवर्तन किया, बाहर जाकर खाने-कमाने की कोशिश की, वे सम्पन्न हो गए. हम कूप-मंडूक (कुएँ के मेंढक) बने रहे. जिस प्रकार कुएँ में पड़ा मेंढक उस कुएँ को ही अपना संसार समझता है, उसी प्रकार हम गाँव को ही अपना संसार समझकर बाहर नहीं निकलने के कारण, गाँव की अर्थव्यवस्था के चलते दबे रहे, पिछड़े रहे. एक बार आज़माकर तो देखो. घर से दूर जाकर मिट्टी भी बेचोगे तो सोना बन जाएगी. इसलिए आत्मनिर्भर होंगे तो आर्थिक बायकॉट के भय से मुक्त होकर हम एकजुट होंगे.
सरकार ने दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए, उनके सामाजिक संरक्षण के लिए अनेक कानून बनाए हैं, लेकिन अन्य लोग दलितों के कंधों पर बन्दूक रखकर इनका दुरुपयोग कर रहे हैं. इस कार्रवाई से हम बदनाम होते हैं. सामान्य वर्ग में दलितों को नीचा देखना पड़ता है. वे पुनः उपेक्षा के पात्र हो जाते हैं. कसम खाओ कि कानून का सहारा केवल अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए लेंगे. किसी अन्य के लाभ के लिए कानून का दुरुपयोग नहीं करेंगे.
आज हम संगठित होना शुरू हुए हैं और शिक्षित बनने-बनाने, संघर्ष करने-कराने का संकल्प लिया है. पीछे मुड़कर नहीं देखें और दिखाते रहें अपनी ताकत और बुद्धिमता. मैं आपको गर्व के साथ मेघऋषि की संतान मेघवाल कहलाने, सामाजिक बुराइयाँ छोड़ने, संगठित होने, शिक्षित बनने व संघर्ष करने का आह्वान करता हूँ. साथ ही निवेदन करता हूँ कि मेघऋषि को भी अपने देवताओं की भांति पूजें. उनका चित्र अपने घरों में श्रद्धा के साथ लगाएँ व प्रतिदिन पूजा करें ताकि भगवान मेघऋषि की हम संताने आत्मसम्मान के साथ जी सकें व समाज में अपना खोया सम्मान पा सकें.
बाबा मेघऋषि की जय, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की जय,
मेघवंश समाज की जय, भारत माता की जय. जय हिन्द, जय भीम.
आर.पी.सिंह आई.पी.एस.
73, अरविंद नगर, सी.बी.आई. कॉलोनी, जगतपुरा, जयपुर.